अपठित बोध ncert class 10th hindi imp questions
अध्याय 12 अपठित बोध
अपठित गद्यांश पद्यांश पर एक प्रश्न परीक्षा में हल करना होता है। इसमें दिए गए अंश का शीर्षक बताना होता है और उस अंश पर पूछे गए प्रश्नों का उत्तर देना होता है। इसे ध्यान से पढ़कर उसका उचित शीर्षक लिखे तथा प्रश्नों का सटीक उत्तर दें।
1 अपठित गद्यांश
प्रश्न- निम्नलिखित अपठित गद्यांशों को पढ़कर उनके नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर दीजिए
मानव का अकारण ही मानव के प्रति अनुदार हो उठना न केवल मानवता के लिए लज्जाजनक है वरन् अनुचित है। वस्तुतः यथाथं मनुष्य वही है जो मानवता का आदर करना जानता है, कर सकता है। केवल इसलिए कि कोई मनुष्य बुद्धिमान है अथवा दरिद्र, वह घृणा का तो दूर उपेक्षा का भी पात्र नहीं होना चाहिए। मानव तो इसलिए सम्मान के योग्य है कि वह मानव है, भगवान की सर्वश्रेष्ठ रचना है।
प्रश्न – (i) उपर्युक्त गद्यांश का उपर्युक्त शीर्षक दीजिए।
(ii) यथार्थ मनुष्य किसे कहा गया है ?
(iii) उक्त गद्यांश का सारांश लिखिए।
उत्तर- (i) शीर्षक- यथाथं मनुष्य।
(ii) यथार्थ मनुष्य उसे कहा जाता है जो मानवता का आदर करता है।
(iii) सारांश-मनुष्य को अकारण ही किसी के प्रति अनुदार नहीं होना चाहिए। यथार्थ में मनुष्य वही है जो मानवता का आदर करता है। किसी मनुष्य के बुद्धिहीन या दरिद्र होने से उसे घृणा का पात्र नहीं बनाना चाहिए। मनुष्य भगवान की श्रेष्ठ रचना है।
(2)
आदर्श व्यक्ति कर्मशीलता में ही अपने जीवन की सफलता समझता है। जीवन का प्रत्येक क्षण वह कर्म में लगाता है। विश्राम और विनोद के लिए उसके पास निश्चित समय रहता है। शेष समय जनसेवा में व्यतीत होता है। हाथ पर हाथ धर कर बैठने को वह मृत्यु के समान समझता है। काम करने की उसमें लगन होती है। उत्साह होता है। विपत्तियों में भी वह अपने चरित्र का सच्चा परिचय देता है। धैर्य की कुदाली से वह बड़े-बड़े संकट पर्वतों को ढहा देता है। उसकी कार्यकुशलता देखकर लोग दाँतों तले ऊँगली दबाते हैं। सन्तोष उसका धन है। वह परिस्थितियों का दास नहीं है। परिस्थितियाँ उसकी दासी हैं।
प्रश्न- (i) उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
(ii) उपर्युक्त गद्यांश में वर्णित व्यक्ति के गुणों का वर्णन अपने शब्दों में कीजिए।
उत्तर-(i) शीर्षक- आदर्श कर्मशील व्यक्ति।
(ii) वर्णित व्यक्ति के गुण- यह व्यक्ति कर्मशीलता में ही अपने जीवन की सफलता समझता है। वह निश्चित समय पर विश्राम एवं विनोद करता है और शेष समय जनसेवा में ही लगाता है। उसमें काम करने की ऐसी लगन होती है कि वह खाली बैठने को मरण के समान मानता है। उत्साह से पूर्ण उस व्यक्ति का सही परिचय संकट के समय प्रकट होता है। वह बड़े से बड़े संकट पर धैर्य से विजय प्राप्त कर लेता है। उसकी कर्मठता चकित करती हैं। संतोष से परिपूर्ण वह व्यक्ति विषम परिस्थितियों में भी सफलता प्राप्त करता है।
(3)
कई लोग समझते हैं कि अनुशासन और स्वतन्त्रता में विरोध है, किन्तु वास्तव में यह भ्रम है। अनुशासन द्वारा स्वतन्त्रता नहीं छीनी जाती, बल्कि दूसरों की स्वतन्त्रता की रक्षा होती है। सड़क पर चलने के लिए हम स्वतन्त्र हैं, हमें बाईं तरफ से चलना चाहिए किन्तु चाहें तो हम बीच में भी चल सकते हैं। इससे हम अपने प्राण तो संकट में डालते ही हैं, दूसरों की स्वतन्त्रता भी छीनते हैं। विद्यार्थी भारत के भावी राष्ट्रनिर्माता हैं। उन्हें अनुशासन के गुणों का अभ्यास अभी से करना चाहिए जिससे वे भारत के सच्चे सपूत कहला सकें।
प्रश्न – (i) उपर्युक्त गद्यांश का शीर्षक दीजिए।
(ii) उपर्युक्त गद्यांश का सारांश लिखिए।
उत्तर- (i) शीर्षक- अनुशासन और विद्यार्थी जीवन ।
(ii) सारांश- प्रत्येक मनुष्य के जीवन में अनुशासन आवश्यक है। इससे व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के साथ-साथ दूसरों की स्वतन्त्रता की भी रक्षा होती है। अपना जीवन सुरक्षित होता है और दूसरों का भी भविष्य के आशापुंज विद्यार्थियों को अनुशासन में रहना चाहिए, जिससे वे भावी भारत का स्वस्थ निर्माण कर सकें। में
(4)
क्षमा पृथ्वी का गुणधर्म है। क्षमा वीरों का भूषण है। मनुष्य से स्वाभाविक रूप से अपराध होते रहते हैं, गलतियाँ होती रहती हैं। हमारी दृष्टि में कोई अपराधी है तो हम भी किसी की दृष्टि में अपराधी हैं। यहाँ निर्दोष कोई भी नहीं है, इसलिए परस्पर क्षमा-भावना की अति आवश्यकता है। क्षमा के अभाव में क्रोध, हिंसा, संघर्ष का साम्राज्य छा जायेगा जिसे कोई भी स्वीकार नहीं करता है। माता-पिता, गुरु सभी क्षमाशील होते हैं। मानव जीवन में क्षमा के अवसर आते रहते हैं। क्षमा के अभाव में मानव जीवन चलना दूभर हो जाता है। अहिंसा, करुणा, दया, मैत्री, क्षमा आदि दैवी गुण हैं। ये गुण मानव जीवन के लिए आवश्यक हैं।
प्रश्न – (i) उपर्युक्त गद्यांश का सटीक शीर्षक दीजिए।
(ii) उपर्युक्त गद्यांश का सारांश लिखिए।
(iii) क्षमा के अभाव में किसका साम्राज्य छा जाता है ?
उत्तर- (i) शीर्षक- क्षमा-भावना।
(ii) सारांश – क्षमा पृथ्वी का गुण-धर्म और वीरों का भूषण है। मानव स्वभाव से अपराधी होता है। यदि क्षमा- भावना न होगी तो क्रोध, हिंसा एवं संघर्ष का बोलबाला होगा जो मनुष्य को स्वीकार्य न होगा। माता-पिता, गुरु आदि क्षमाशील होते हैं। बिना क्षमा के मानव जीवन बहुत कठिन हो जाता है अतः यह गुण मानव के लिए आवश्यक है।
(iii) क्षमा के अभाव में क्रोध, हिंसा, संघर्ष आदि का साम्राज्य छा जायेगा।
(5)
अमृत तो प्रत्येक प्राणी के हृदय में समाया हुआ है, जरूरत है तो उसे जानने की। इस काया के अन्दर भरपूर अमृत है। गुरु के शब्द पर विचार करके ही उसे प्राप्त किया जा सकता है। जो प्रभु की खोज करते हैं वह इस अमृत को देह से ही प्राप्त करते हैं लेकिन गुरु के शब्द पर विचार न कर पाने के कारण अज्ञानी जीव व्यर्थ ही नष्ट हो जाता है। इस शरीर के नौ द्वार हैं परन्तु इन नौ द्वारों में से हमें अमृत प्राप्ति नहीं हो सकती क्योंकि वह दसवें द्वार में स्थित है। मनुष्य नौ द्वारों के रहस्य को तो जानता है परन्तु गुरु रूपी दसवें द्वार को भूला हुआ है। गुरु का कार्य उस द्वार को प्रकट करना है। यदि अन्तर में परमपिता परमात्मा से हमें प्रेम है, परन्तु जब तक हमें परमात्मा के दर्शन नहीं होते हम तब तक अमृतपान नहीं कर सकते।
प्रश्न – (i) उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
(ii) उपर्युक्त गद्यांश का सारांश लिखिए।
(iii) व्यक्ति अमृतपान कब कर सकता है ?
उत्तर- (i) शीर्षक- अमृत की अभिलाषा।
(ii) सारांश- प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में ईश्वर का निवास है लेकिन ईश्वर तक पहुँचने का साधन गुरु है। व्यक्ति अज्ञानता के कारण इधर-उधर भटकता रहता है और अपने जीवन को व्यर्थ ही नष्ट कर लेता है। मानव उसके शरीर में मौजूद नौ द्वारों के रहस्य को तो जानता है किन्तु अमृत से तृप्त दसवें द्वार को वह भूला हुआ है, जिसे बिना गुरु के मार्गदर्शन के वह प्राप्त नहीं कर सकता।
(iii) व्यक्ति गुरु के सानिध्य में रहकर अमृतपान कर सकता है।
(6)
धर्म एक व्यापक शब्द है। मजहब, मत, पंथ या संप्रदाय सीमित रूप है। संसार के सभी धर्म मूल रूप में एक ही हैं। सभी मनुष्य के साथ सद्व्यवहार सिखाते हैं। ईश्वर किसी विशेष धर्म या जाति का नहीं। सभी मानवों में एक प्राण-स्पंदन होता है। उसके रक्त का रंग भी एक ही है। सुख-दुःख का भाव बोध भी उनमें एक जैसा है। आकृति और वर्ण, वेशभूषा और रीति-रिवाज तथा नाम ये सब ऊपरी वस्तुएँ हैं। ईश्वर ने मनुष्य या इंसान को बनाया है, और इंसान ने बनाया है धर्म या मजहब को ध्यान रहे, मानवता या इंसानियत से बड़ा धर्म या मजहब दूसरा कोई नहीं। वह मिलना सिखाता है, अलगाव नहीं। ‘धर्म’ तो एकता का द्योतक है।
प्रश्न – (i) उपर्युक्त गद्यांश का शीर्षक लिखिए।
(ii) सबसे बड़ा धर्म कौन-सा है ?
(iii) बाह्य वस्तुएँ क्या हैं ?
उत्तर-(i) शीर्षक-साम्प्रदायिक एकता।
(ii) मानवता और इसानियत सबसे बड़ा धर्म है।
(iii) आकृति, वर्ण, वेशभूषा, रीति रिवाज, नाम ये सभी बाह्य वस्तुएँ हैं।
(7)
मनुष्य का जीवन बहुत संघर्षमय होता है। उसे पग-पग पर कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। फिर भी ईश्वर के द्वारा जो मनुष्यरूपी वरदान की निर्मिति इस पृथ्वी पर हुई है मानो धरती का रूप ही बदल गया है। यह संसार कर्म करने वाले मनुष्यों के आधार पर ही टिका हुआ है। देवता भी उनसे ईष्यां करते हैं। मनुष्य अपने कर्म बल के कारण श्रेष्ठ है। धन्य है मनुष्य का जीवन
प्रश्न – (i) उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
(ii) उपर्युक्त गद्यांश का सारांश लिखिए।
(iii) मनुष्य किस कारण श्रेष्ठ माना गया है ?
उत्तर- (i) शीर्षक- मनुष्य और कर्म
(ii) सारांश-संघर्षमय जीवन जीते हुए मनुष्य ने जो कर्म किए हैं उनसे इस धरती का रूप ही बदल गया है। ईश्वर के द्वारा वरदानस्वरूप बनाये गए इन कर्मठ लोगों के आधार पर ही ससार टिका है। कर्मठ जीवन धन्यवाद का पात्र है।
(iii) मनुष्य अपने कर्म के कारण श्रेष्ठ माना गया है।
(8)
स्वार्थ और परमार्थ मानव की प्रवृत्तियाँ हैं। हम अधिकतर सभी कार्य अपने लिए करते हैं, ‘पर’ के लिए सर्वस्व बलिदान करना ही सच्ची मानवता है। यही धर्म, यही पुण्य है। इसे ही परोपकार कहते हैं। प्रकृति हमें निरन्तर परोपकार का सन्देश देती है। नदी दूसरों के लिए बहती है। वृक्ष मनुष्यों को छाया तथा फल देने के लिए ही धूप, आँधी, वर्षा और तूफानों में अपना सब कुछ बलिदान कर देते हैं।
प्रश्न – (i) उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
(ii) सच्ची मानवता क्या है ?
(iii) वृक्ष हमें परोपकार का सन्देश कैसे देते हैं ?
(iv) उपर्युक्त गद्यांश का सारांश लिखिए।
उत्तर- (i) शीर्षक- परोपकार का महत्व
(ii) दूसरों के लिए अपना सर्वस्व बलिदान करना हो सच्ची मानवता है।
(iii) वृक्ष धूप, आँधी, वर्षा और तूफानों में डटकर खड़े रहते हैं और सब कुछ सहन करने के बावजूद मनुष्यों को अपनी शीतल छाया व रमदार फल प्रदान करके हमें परोपकार का सन्देश देते हैं।
(iv) सारांश- स्वार्थ एव परमार्थ प्रवृत्तियों वाले मनुष्य का धर्म परोपकार करना है। मानव का प्रकृति के समान अपना सब कुछ परहित में बलिदान कर देना श्रेयस्कर है।
(9)
आप हमेशा अच्छी जिन्दगी जीते आ रहे हैं। आप हमेशा बढ़िया कपड़े, बढ़िया जूते, बढ़िया घड़ी, बढ़िया मोबाइल जैसे दिखावों पर बहुत खर्च करते हैं मगर आप अपने शरीर पर कितना खर्च करते हैं ? इसका मूल्यांकन जरूरी है। यह शरीर अनमोल है। अगर शरीर स्वस्थ नहीं होगा तो आप ये सारे सामान किस पर टाँगेंगे ? अतः स्वयं का स्वस्थ रहना सबसे जरूरी है एवं स्वस्थ रहने में हमारे खान-पान का सबसे बड़ा योगदान है।
प्रश्न – (i) उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
(ii) अनमोल क्या है ?
(iii) शुद्ध व असली शब्दों के विलोम शब्द लिखिए।
उत्तर- (i) शीर्षक-पहला सुख निरोगी काया।
(ii) मानव शरीर अनमोल है।
(iii) शुद्ध अशुद्ध असली नकली।
2 अपठित पद्यांश
प्रश्न- निम्नलिखित अपठित पद्यांशों को पढ़कर उनके नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर दीजिए
(1)
नर हो, न निराश करो मन को,
कुछ काम करो, कुछ काम करो। जग में रहकर कुछ नाम करो ॥
समझो, जिससे यह व्यर्थ न हो ।
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो।
कुछ तो उपयुक्त करो मन को। नर हो न निराश करो मन को ॥
प्रश्न – (i) मनुष्य को क्या करना चाहिए ?
(ii) आदमी का जन्म किस उद्देश्य से हुआ है ?
(iii) इस पद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
उत्तर – (i) मनुष्य को आशा नहीं छोड़नी चाहिए। निराशा त्यागकर आदमी को किसी भी काम में लग जाना चाहिए।
(ii) आदमी का जन्म किसी विशेष कार्य के लिए हुआ है। इसे व्यर्थ न गँवाकर कुछ विशेष कार्य करके जाना है।
(iil) शीर्षक-नर हो न निराश करो मन को।
(2) तुम हो धरती के पुत्र न हिम्मत हारो, श्रम की पूँजी से अपना काज सँवारो। श्रम के मीपी में ही वैभव हुलता है, तब स्वाभिमान का दीप स्वयं जलता है। मिट जाता है दैन्य स्वयं ही क्षण में, छा जाती है नव दीप्ति धरा के कण में। जागो, जागो श्रम से नाता तुम जोड़ो, पथ चुनो कर्म का, अलस भाव तुम छोड़ो।
प्रश्न – (i) प्रस्तुत पद्यांश का भाव समझाइए।
(ii) हमें अपने कार्य किस पूँजी से सँवारने हैं ?
(iii) स्वाभिमान का दीप कब जलता है ? अथवा स्वाभिमान की भावना कब जागती है ?
(iv) पद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
उत्तर – (i) पद्यांश का भाव- मनुष्य को निराश न होकर साहस के साथ मेहनत से अपने कार्य सँभालने चाहिए। परिश्रम से सम्पन्नता एवं स्वाभिमान प्राप्त होता है। सारी हीनता मिट जाती है और नयी कान्ति आ जाती है। अत: आलस्य त्यागकर कर्म का मार्ग अपनाना चाहिए।
(ii) हमें अपने कार्य श्रम की पूँजी से सँवारने हैं।
(iii) श्रम के द्वारा सम्पन्नता होती है, तभी स्वाभिमान का दीप जलता है।
(iv) शीर्षक – श्रम की महत्ता
(3)
भाग्यवाद आवरण पाप का, और शस्त्र शोषण का, इससे रखता दवा एक जन भाग्य दूसरे जन का। पूछये किसी भाग्यवादी से यदि विधि अक प्रबल हैं, पदतर क्यों देती न स्वयं, वसुधा निज रत्न उगल है।
प्रश्न – (i) उपर्युक्त पद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ii) पाप का आवरण किसे कहा गया है ?
(iii) कर्मवाद’ का विलोम पद्यांश से चुनकर लिखिए।
(iv) उपर्युक्त पद्यांश का भावार्थ अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर- (i) शीर्षक- भाग्यवाद आवरण पाप का।
(ii) पाप का आवरण भाग्यवाद को कहा गया है।
(iii) ‘कर्मवाद’ का विलोम ‘भाग्यवाद’ है।
(iv) भावार्थ- भाग्यवाद दूसरों का शोषण करने का हथियार है। सफलता के लिए तो कर्म की आवश्यकता होती है।
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