काव्य खण्ड : परीक्षोपयोगी पद्यांशों का संदर्भ, प्रसंग एवं भावार्थ ncert 10th mp board

क्षितिज – भाग 2

अध्याय 2

काव्य खण्ड : परीक्षोपयोगी पद्यांशों का संदर्भ, प्रसंग एवं भावार्थ

 

1 पद

 

– सूरदास

 

 

(1) ऊधौ तुम हौ अति बड़भागी।

अपरस रहत सनेह तगा तैं, नाहिन मन अनुरागी।

पुरइनि पात रहत जल भीतर, ता रस देह न दागी ।

 ज्यौं जल माँह तेल की गागरि, बूँद न ताकौं लागी।

प्रीति नदी में पाउँ न बोरयौ, दृष्टि न रूप परागी।

‘सूरदास’ अबला हम भोरी, गुर चाँटी ज्यों पागी ॥

 

संदर्भ– यह पद्य हमारी पाठ्य पुस्तक के ‘पद’ पाठ से लिया गया है। इसके कवि सूरदास हैं।

प्रसंग-कृष्ण के द्वारा भेजे गए उद्धव से गोपियाँ कहती हैं कि तुम तो बहुत भाग्यवान हो जो कृष्ण के पास रहकर भी उनके प्रेम में बँध नहीं पाए हो।

भावार्थ-गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि तुम तो बड़े भाग्यशाली हो। जो कृष्ण के साथ रहकर भी उनके प्रेम बन्धन में नहीं बँधे हो। तुम उनके प्रेम से इसी प्रकार अछूते रह गए हो जिस प्रकार कमल के पत्ते पानी में तो रहते हैं पर उन पर पानी का दाग भी नहीं लग पाता है, तुम कृष्ण के प्रेम बंधन से उसी प्रकार मुक्त हो जिस प्रकार तेल की मटकी पानी में डूब जाने पर भी पानी से दूर रह रहती है। तुमने तो प्रेम की नदी में पैर भी नहीं डुबोया है। तुम्हारी दृष्टि प्रेम के आनन्द में पगी ही नहीं है। गोपियाँ कहती हैं कि हम तो भोली-भाली अबला नारी हैं इसीलिए गुड़ से चिपक जाने वाली चींटियों की तरह श्रीकृष्ण के प्रेम में लिप्त हो गई हैं।

काव्य सौन्दर्य – (1) प्रेम से अछूते उद्धव पर गोपियाँ व्यंग्यात्मक प्रहार कर रही हैं। (2) अनुप्रास, रूपक अलंकार तथा ब्रजभाषा

 

(2) हमारैं हरि हारिल की लकरी।

मन क्रम वचन नंद-नंदन उर, यह दृढ़ करि पकरी।

जागत सोवत स्वप्न दिवस-निसि कान्ह-कान्ह जक री।

सुनत जोग लागत है ऐसौ, ज्यौं करुई ककरी ।

 सुतौ ब्याधि हमको लौ आए, देखी सुनी न करी ।

 यह तो ‘सूर’ तिनहिं लै सौंपों, जिनके मन चकरी ॥

 

संदर्भ– पूर्ववत् ।

प्रसंग- अपनी प्रेम भावना को प्रकट करते हुए यहाँ गोपियों ने कहा है कि हम श्रीकृष्ण के प्रेम के बिना जीवित नहीं रह सकती हैं।

भावार्थ- गोपियाँ उद्धव को बताती हैं कि हमारे लिए श्रीकृष्ण हारिल पक्षी की लकड़ी की तरह हैं। हम श्रीकृष्ण के प्रेम के बिना क्षण भर भी नहीं रह सकती हैं। हमने अपने मन, कर्म और वाणी से नन्द के पुत्र श्रीकृष्ण को अपने हृदय में जकड़कर स्थिर कर रखा है। यही कारण है कि हम जागते हुए, सोते समय और स्वप्नावस्था में श्रीकृष्ण के नाम की रट लगाए रहती हैं। हम उन्हें एक क्षण के लिए भी नहीं भूल पाती हैं। गोपियों को उद्धव का योग का सन्देश कड़वी ककड़ी जैसा लगता है। वे योग को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। गोपियाँ कहती हैं कि उद्धव जो फेंकने योग्य योग का रोग है उसी को तुम हमारे लिए लेकर आ गए हो। यह योग हमने न तो कभी सुना है न कभी अपनाया है और न हमारे यहाँ किसी ने इसे स्वीकार किया है। इसलिए हम इसे नहीं अपना पायेंगी। सूरदास के शब्दों में गोपियों ने उद्धव से स्पष्ट कह दिया कि इसको तो तुम उनको जाकर दे दो जिनके मन चंचल, चलायमान हैं।

काव्य सौन्दर्य – (1) गोपियों का एकनिष्ठ प्रेम व्यक्त हुआ है। (2) गोपियाँ योग को फेंकने योग्य मानती हैं। (3) अनुप्रास, पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार तथा ब्रजभाषा का प्रयोग हुआ है।

 

2  राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद

 

-तुलसीदास

(1) नाथ संभुधनु भंजनिहारा ।

 होइहि केउ एक दास तुम्हारा ॥

आयेसु काह कहिअ किन मोही। सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही ॥

सेवकु सो जो करै सेवकाई। अरि करनी करि करिअ लराई ।l

सुनहु राम जेहि सिवधनु तोरा। सहसबाहु सम सो रिपु मोरा ॥

सो बिलगाउ बिहाइ समाजा। न त मारे जैहहिं सब राजा ॥

सुनि मुनि बचन लखन मुसुकाने। बोले परसु धरहि अवमाने ।l

 बहु धनुही तोरी लरिकाई। कबहुँ न असि रिस कीन्हि गोसाई ॥

 येहि धनु पर ममता केहि हेतू । सुनि रिसाइ कह भृगुकुलकेतू ॥

रे नृप बालक कालबस बोलत तोहि न सँभार।

धनुही सम त्रिपुरारि धनु विदित सकल संसार ।l

 

 

संदर्भ– यह पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के ‘राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद’ नामक पाठ से लिया गया है। इसके कवि तुलसीदास हैं।

प्रसंग-सीता के स्वयंवर के समय शिव धनुष के टूटने की सूचना पाते ही परशुराम क्रोध से भर उठे। उन्हें उग्र देखकर राम ने सादर निवेदन किया किन्तु लक्ष्मण ने व्यंग्य-प्रहार किया।

भावार्थ- परशुराम को क्रोधित देखकर राम बोले, हे नाथ! इस शिव धनुष को तोड़ने वाला आपका कोई सेवक ही है, आप आज्ञा दीजिए। यह सुनते ही क्रोधी परशुराम ने कहा कि जो सेवक होता है वह तो सेवा का कार्य करता है। यह तो शत्रु का कार्य किया है इसलिए लड़ने को तैयार हो जाओ। हे राम! जिसने इस शिव धनुष को तोड़ा है वह मेरा सहस्रबाहु की तरह शत्रु है। उसको इस समाज से चला जाना चाहिए नहीं तो उसके कारण ये सभी राजा मारे जायेंगे। मुनि परशुराम की यह बात सुनकर लक्ष्मण मुस्कराये और उन्हें अपमानित करते हुए बोले कि हमने बचपन में ऐसे अनेक छोटे-छोटे धनुष तोड़े हैं लेकिन हे स्वामी! आपने कभी ऐसा क्रोध नहीं किया। इस धनुष पर आपकी क्या ममता है, इसका कारण बताएँ। यह सुनते ही परशुराम और क्रोधित हो उठे और बोले हे राजपुत्र! तुम मृत्यु के वशीभूत हो इसलिए सँभलकर नहीं बोल रहे हो। सारी दुनिया जानती है कि शिवजी का यह धनुष कोई छोटा धनुष नहीं है।

काव्य सौन्दर्य- (1) क्रोधित परशुराम के प्रति राम का विनम्र उत्तर है किन्तु लक्ष्मण तीखे प्रहार करते हैं। (2) अनुप्रास, उपमा अलंकार तथा अवधी भाषा का प्रयोग हुआ है।

 

(2) लखन कहा हंसि हमरे जाना। सुनहु देव सब धनुष समाना ॥

 का छति लाभु जून धनु तोरे। देखा राम नयन के भोरें ॥

 छुअत टूट रघुपतिहु न दोसू। मुनि बिनु बाज करिअ कत रोसू ॥

बोले चितै परशु की ओरा। रे सठ सुनेहि सुभाउ न मोरा ॥

 बालकु बोलि बधौं नहिं तोही। केवल मुनि जड़ जानहि मोही ॥

बाल ब्रह्मचारी अति कोही । बिस्वविदित क्षत्रियकुल द्रोही ll

भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्हीं। बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्हीं ॥

सहस्रबाहु भुज छेदनिहारा। परसु बिलोकु महीपकुमारा ॥

मातु पितहिं जनि सोचबस करसि महीसकिसोर।

गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर ॥

 

संदर्भ– पूर्ववत् ।

प्रसंग– यहाँ लक्ष्मण के व्यंग्यों और परशुराम के क्रोधपूर्ण कथनों के क्रम में दोनों के संवाद प्रस्तुत हैं।

भावार्थ- लक्ष्मण ने परशुराम से मुस्कराते हुए कहा कि हे देव! हमारे लिए तो छोटे-बड़े सभी धनुष एक समान हैं। इस पुराने धनुष के टूटने से क्या लाभ-हानि है। श्रीराम ने इसे नया समझकर देखा था यह तो उनके छूते ही टूट गया। इसमें राम का कोई दोष नहीं है। आप बिना किसी कारण के क्यों क्रोधित हो रहे हैं। लक्ष्मण की इस बात को सुनकर फरसे की ओर देखते हुए परशुराम बोले, अरे! दुष्ट तुमने मेरे क्रोधी स्वभाव के बारे में नहीं सुना है। तुमको बालक जानकर मैं नहीं मार रहा हूँ। हे जड़ बुद्धि! तुम मुझे मुनि मात्र ही मत समझो। मैं बाल ब्रह्मचारी हूँ तथा अत्यधिक क्रोधी स्वभाव वाला हूँ। समस्त संसार जानता है कि मैं क्षत्रियों का विरोधी हूँ। मैंने अपनी भुजाओं के बल से समस्त पृथ्वी को अनेक बार राजाओं से रहित कर दिया है और कई बार इसको ब्राह्मणों को दे दिया है। सहस्रबाहु की भुजाओं को काटने वाला मैं ही हूँ। हे राजकुमार ! मेरे इस फरसे को ध्यानपूर्वक देख लो।

काव्य सौन्दर्य

(1) लक्ष्मण के कटु प्रहारों से आहत परशुराम की उग्र उक्तोतियाँ देखने योग्य हैं।

(2) अनुप्रास अलंकार तथा अवधी भाषा का सौन्दर्य दर्शनीय है।

 

(3) कहेउ लखन मुनि सीलु तुम्हारा। को नहि जान बिदित संसारा ॥

 माता पितहि उरिन भए नीकें। गुररिनु रहा सोचु बड़ जी कें ।l

सो जनु हमरेहि माथे काढ़ा। दिन चलि गये ब्याज बड़ बाढ़ा ॥

अब आनिअ ब्यवहरिआ बोली। तुरत देउँ मैं थैली खोली।l

सुनि कटु वचन कुठार सुधारा। हाय हाय सब सभा पुकारा।l

भृगुवर परसु देखाबहु मोही। बिप्र बिचारि बचौं नृपद्रोही ।।

मिले न कबहुँ सुभट रन गाढ़े। द्विजदेवता धरहि के बाढ़े॥

अनुचित कहि सबु लोगु पुकारे। रघुपति सयनहि लखनु नेवारे॥

लखन उतर आहुति सरिस भृगुवरकोपु कृसानु।

बढ़त देखि जल सम बचन बोले रघुकुलभानु॥

 

संदर्भ-पूर्ववत्।

प्रसंग-लक्ष्मण के व्यंग्य से क्रोधित परशुराम ने फरसा सँभाला तो समस्त सभा हाय-हाय कर उठी।

तब श्रीराम ने लक्ष्मण को संकेत से रोका।

भावार्थ-लक्ष्मण ने परशुराम से कहा कि मुनिवर आपके स्वभाव को कौन नहीं जानता है ? आप

माता-पिता के कर्ज से तो अच्छी तरह मुक्त हो गए हैं। अब आप पर गुरु का ऋण रह गया है। उसी की चिन्ता

आपको लगी है। वह मानो हमारे मत्थे ही लिखा था। बहुत दिन बीत गए हैं इसलिए ब्याज भी बहुत बढ़ गया

होगा। अब किसी व्यापारी को हिसाब के लिए बुला लीजिए, मैं थैली खोलकर उसका भुगतान कर दूंगा।

लक्ष्मण के कड़वे वचन सुनकर परशुराम ने अपना फरसा सँभाला। यह देखकर समस्त सभा हाय-हाय पुकारने

लगी। लक्ष्मण ने कहा कि हे भृगु श्रेष्ठ! आप मुझे फरसा दिखा रहे हैं। मैं आपको ब्राह्मण समझकर बचा रहा

हूँ। आपको युद्ध में कभी महायोद्धा नहीं मिले हैं। आप अपने घर में ही बढ़े हुए हैं। यह सुनकर सभी अनुचित

है, अनुचित हैं पुकारने लगे। तब राम ने संकेत से लक्ष्मण को रोक दिया और परशुराम के क्रोध को बढ़ता हुआ

देखकर जल के समान शीतल वचन कहे।

काव्य सौन्दर्य-(1) लक्ष्मण के व्यंग्य बाणों से परशुराम क्रोधित होकर फरसा सँभालते हैं। (2) राम

लक्ष्मण को शान्त करते हैं। (3) अनुप्रास, उपमा अलंकार तथा मुहावरे युक्त अवधी भाषा का प्रयोग हुआ है।

 

 

3 सवैया/कवित्त

-देव

 

विशेष-कोविड परिस्थितियों के चलते यह पाठ वार्षिक/बोर्ड परीक्षा 2022 के लिए बोर्ड द्वारा पाठ्यक्रम

में से हटा दिया गया है।

 

4 आत्मकथ्य

-जयशंकर प्रसाद

 

(1) मधुप गुन-गुना कर कह जाता कौन कहानी यह अपनी,

मुरझाकर गिर रहीं पत्तियाँ देखो कितनी आज घनी।

इस गंभीर अनंत-नीलिमा में असंख्य जीवन-इतिहास।

यह लो, करते ही रहते हैं अपना व्यंग्य-मलिन उपहास,

तब भी कहते हो-कह डालूँ दुर्बलता अपनी बीती।

तुम सुनकर सुख पाओगे, देखोगे-यह गागर रीती।

 

संदर्भ-प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक के ‘आत्मकथ्य’ पाठ से लिया गया है। इसके कवि जयशंकर प्रसाद हैं।

प्रसंग-इसमें बताया गया है कि इस संसार में अनेक दु:खी करने वाली घटनाएँ हुई हैं उन्हें आत्मकथा में लिखना उचित नहीं है।

भावार्थ-कवि प्रसाद कहते हैं कि भौरे गुंजार करके पता नहीं अपनी कौन-सी दुःखपूर्ण कथा सुनाना चाहते हैं। आज पता नहीं कितनी पत्तियाँ सूखकर डालियों से गिर रही हैं। इस असीमित नीले आसमान के नीचे कितने ही दुखद वृत्तान्त लिखे गए हैं, उन लिखने वालों का लोगों ने मजाक ही बनाया है। क्या तुम यह सब जानने पर भी मुझसे अपनी दुर्बलताओं का वर्णन आत्मकथा में करने को कहते हो। मेरी खाली गगरी जैसी जिन्दगी की आत्मकथा को पढ़कर क्या तुम सुखी होंगे।

काव्य सौन्दर्य-(1) नश्वर संसार दु:ख से ही परिपूर्ण है इसलिए आत्मकथा लिखना व्यर्थ है।

(2) अनुप्रास, रूपक अलंकार और शुद्ध खड़ी बोली का प्रयोग हुआ है।

 

(2) उज्ज्वल गाथा कैसे गाऊँ, मधुर चाँदनी रातों की।

अरे खिल-खिला कर हँसते होने वाली उन बातों की।

मिला कहाँ वह सुख जिसका मैं स्वप्न देखकर जाग गया।

आलिंगन में आते-आते मुसक्या कर जो भाग गया।

 

संदर्भ-पूर्ववत्।

प्रसंग-कवि जयशंकर प्रसाद की प्रेमपूर्ण मधुर जीवन जीने की इच्छा के पूर्ण न हो पाने की पीड़ा यहाँ पर अभिव्यक्त हुई है।

भावार्थ-कवि प्रसाद कहते हैं कि मैंने अपने प्रिय के साथ जो सुखद समय बिताया था। चाँदनी रातों में मीठी-मीठी बातें करते-करते वह खिलखिलाकर हँसती थी उस सबका वर्णन किस प्रकार करूँ। मुझे मिठास भरा जीवन मिल ही नहीं पाया। जिस सुखद जीवन का स्वप्न मैंने देखा था वह तो मुझे प्राप्त होते-होते मुझसे दूर भाग गया।

काव्य सौन्दर्य-(1) प्रेममय जीवन के इच्छुक कवि का स्वप्न पूर्ण नहीं हो सका।

(2) अनुप्रास अलंकार तथा साहित्यिक खड़ी बोली का प्रयोग हुआ है।

 

(3) छोटे से जीवन की कैसे बड़ी कथाएँ आज कहूँ ?

क्या यह अच्छा नहीं कि औरों की सुनता मैं मौन रहूँ?

सुनकर क्या तुम भला करोगे मेरी भोली आत्म-कथा ?

अभी समय भी नहीं, थकी सोई है मेरी मौन व्यथा।

 

संदर्भ-पूर्ववत्।

प्रसंग-सामान्य जीवन जीने वाले कवि प्रसाद जी कहते हैं कि मेरे जीवन की आत्मकथा लिखने की

आवश्यकता ही नहीं है।

भावार्थ-कवि कहते हैं कि मेरा जीवन बहुत साधारण है। इसलिए आत्मकथा में अपनी प्रशंसा मैं कैसे

करूँ। ऐसी स्थिति में यही उचित है कि मैं औरों की ही आत्मकथा सुनता रहूँ। मित्रो, मेरे भोले-भाले जीवन की सीधी-सादी आत्मकथा सुनकर तुम भला क्या करोगे? अभी आत्मकथा लिखने का समय भी नहीं है। क्योंकि

मेरे अन्तर की जो पीड़ा थी, थककर चुप हो गई है।

काव्य सौन्दर्य-(1) सामान्य जीवन जीने वाले प्रसाद जी अपने बारे में बढ़ा-चढ़ाकर लिखने में असमर्थ हैं। (2) अनुप्रास अलंकार तथा साहित्यिक खड़ी बोली का प्रयोग हुआ है।

 

5 उत्साह/अट नहीं रही है

-सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’

 

उत्साह

 

(1) बादल, गरजो!

घेर घेर घोर गगन, धराधर ओ?

ललित ललित, काले घुघराले,

बाल कल्पना के-से पाले,

विद्युत-छाँव उर में, कवि नवजीवन वाले,

वज छिपा, नूतन कविता

फिर भर दो –

बादल, गरजो।

 

संदर्भ– यह पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक की उत्साह’ कविता से लिया गया है। इसके कवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ हैं।

प्रसंग- यहाँ कवि बादलों से गर्ज-तर्ज कर घनघोर वर्षा करने के लिए कह रहे हैं।

 भावार्थ- कवि कहते हैं कि हे बादलो ! तुम घनघोर गर्जना से समस्त आकाश को भर दो और सघन रूप में चारों ओर छा जाओ। तुम बच्चे की कल्पना की तरह विस्तृत बन जाओ और बिजली की सी सुन्दरता अपने हृदय में भरकर नवीन जीवन का संचार करने वाले बन जाओ। तुम अपने कठोर रूप को छिपा लो और नवीन कविता का वातावरण सभी ओर बना दो।

काव्य सौन्दर्य- (1) कवि बादलों से वर्षा करने का आग्रह करते हैं जिससे नए जीवन का संचार हो ।

(2) अनुप्रास, पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार और शुद्ध साहित्यिक खड़ी बोली का प्रयोग हुआ है।

 

(2) विकल विकल, उन्मन थे उन्मन

 विश्व के निदाघ के सकल जन,

आए अज्ञात दिशा से अनंत के घन ?

 तप्त धरा, जल से फिर

शीतल कर दो –

बादल, गरजो।

 

संदर्भ– पूर्ववत् ।

प्रसंग– यहाँ कवि ने गर्मी से व्याकुल संसार को शीतलता प्रदान करने का आग्रह किया है।

भावार्थ– तीव्र गर्मी के कारण संसार के सभी प्राणी बहुत बैचेन तथा परेशान हैं। ऐसी हालत में बादल आ जाओ और तेज ताप से तपती हुई धरती को ठण्डी कर दो। तुम घनघोर गर्जना करते हुए तेज वर्षा करो।

काव्य सौन्दर्य – (1) भीषण ताप से व्याकुल संसार को शीतल करने के लिए बादलों से बरसने का आग्रह किया गया है।

(2) अनुप्रास, पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार और शुद्ध खड़ी बोली का प्रयोग हुआ है।

                      अट नहीं रही है

 

 

(1) कहीं साँस लेते हो,

 घर-घर भर देते हो,

उड़ने को नभ में तुम

पर-पर कर देते हो,

आँख हटाता हूँ तो

 हट नहीं रही है।

 

संदर्भ- यह पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक की ‘अट नहीं रही है’ कविता से लिया गया है। इसके कवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला हैं।

प्रसंग– इस पद्यांश में फाल्गुन के सुगन्ध भरे मनमोहक वातावरण का आकर्षक चित्रण हुआ है।

 भावार्थ– कवि फाल्गुन से कहते हैं कि तुम जहाँ भी साँस लेते हो वहाँ प्रत्येक घर को सुगन्ध से भर

देते हो। इस मदमस्त वातावरण में सभी का मन होता है कि उनके पंख लग जाएँ और वे आकाश में विचरण करें। फाल्गुन में प्रकृति की सुन्दरता से आँख हटती ही नहीं है।

काव्य सौन्दर्य – (1) आनन्द और सुगन्ध से मदमाते फाल्गुन मास का सुन्दर चित्रण हुआ है।

(2) अनुप्रास तथा पुनरुक्तिप्रकाश अलंकारों और साहित्यिक खड़ी बोली का प्रयोग किया गया है।

 

6 यह दंतुरित मुसकान / फसल  

-नागार्जुन

विशेष- कोविड परिस्थितियों के चलते यह पाठ वार्षिक बोर्ड परीक्षा 2022 के लिए बोर्ड द्वारा पाठ्यक्रम में से हटा दिया गया है।

 

7  छाया मत छूना

 

गिरिजाकुमार माथुर

 

(1) छाया मत छूना

मन, होगा दुख दूना।

 जीवन में हैं सुरंग सुधियाँ सुहावनी

छवियों की चित्र-गंध फैली मनभावनी;

तन-सुगंध शेष रही, बीत गई यामिनी,

 कुंतल के फूलों की याद बनी चाँदनी ।

 भूली-सी एक छुअन बनता हर जीवित क्षण-

छाया मत छूना

मन, होगा दुख दूना ।

 

संदर्भ- यह पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक में संकलित ‘छाया मत छूना’ कविता से लिया गया है। इसके कवि गिरिजाकुमार माथुर हैं।

प्रसंग– यहाँ कवि पुरानी यादों में पड़ने के लिए मना कर रहे हैं क्योंकि ये यादें अच्छी तो लगती हैं परन्तु इनके कारण वर्तमान का दुःख और गहरा हो जाता है। भावार्थ– कवि कहते हैं कि बीते समय की सुखद यादों की दुविधा में मत पड़ना, नहीं तो इन सुख देने वाली यादों से वर्तमान दुःख दोगुना हो जाएगा। अतीत में जिनके साथ पल बिताए थे उनके शरीर की सुगन्ध का अनुभव होगा। जिस चाँदनी रात में प्रिय से मिलन हुआ था वह तो समाप्त हो गई, अब मात्र उसकी स्मृति की गन्ध है। उस समय चाँदनी रात में चन्द्रमा बालों में जो फूल लगे थे उनकी याद दिला रहा है। हमारे जीवन का वर्तमान समय जैसे-जैसे बीतता जाता है वह पुरानी यादें बनता जाता है। इसको याद करने से दुःख ही महसूस होता है। इसकी याद से वर्तमान का दुख और ज्यादा हो जायेगा।

काव्य सौन्दर्य- (1) पुरानी यादें वर्तमान दुख को बढ़ाती हैं इसलिए इन्हें भूल जाना चाहिए। (2) अनुप्रास अलंकार तथा साहित्यिक खड़ी बोली का प्रयोग हुआ है।

 

(2) यश है न वैभव है, मान है न सरमाया;

 जितना ही दौड़ा तू उतना ही भरमाया ।

प्रभुता का शरण-बिंब केवल मृगतृष्णा है,

हर चंद्रिका में छिपी एक रात कृष्णा है। जो है यथार्थ कठिन उसका तू कर पूजन-

 छाया मत छूना

 मन, होगा दुःख दूना ।

 

संदर्भ– पूर्ववत् ।

प्रसंग– यहाँ बताया गया है कि सांसारिक ख्याति, धन-दौलत, मान प्रतिष्ठा आदि भ्रम मात्र हैं इसलिए इनके पीछे दौड़ना व्यर्थ है।

भावार्थ– प्रसिद्धि, सम्पन्नता, सम्मान, धन-दौलत आदि के पीछे व्यक्ति जितना अधिक दौड़ता है वह उतना ही भ्रमित होता है। इस संसार में बड़प्पन का अहसास भी एक भ्रम है क्योंकि प्रत्येक चाँदनी रात के बाद काली रात्रि आती है। इसलिए जो कठोर वास्तविकता है उसे स्वीकार कर लेना चाहिए। अतीत की सुखद यादों के भ्रम में पड़ना ठीक नहीं है।

काव्य सौन्दर्य-(1) सांसारिक यश, वैभव, मान, प्रतिष्ठा आदि व्यर्थ हैं। इनके लिए परेशान होना

ठीक नहीं है। क्योंकि सुख-दु:ख तो आते-जाते रहते हैं। (2) अनुप्रास अलंकार एवं साहित्यिक भाषा का प्रयोग

हुआ है।

8 कन्यादान

-ऋतुराज

  1. कितना प्रामाणिक था उसका दुख

लड़की को दान में देते वक्त

जैसे वही उसकी अंतिम पूँजी हो।

 

संदर्भ-यह पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक में संकलित ‘कन्यादान’ कविता से अवतरित है। इसके रचनाकार ऋतुराज है।

प्रसंग-इसमें भावुकता के साथ ही माँ के जीवन के अनुभवों का दर्द भी व्यक्त किया गया है। यहाँ माँ की मानसिक स्थिति का चित्रण हुआ है।

भावार्थ-लड़की का कन्यादान करते समय उसकी माँ की पीड़ा प्रामाणिक थी। वह लड़की ही उसके जीवन की अन्तिम पूँजी है। माँ के सुख-दुःख की सर्वाधिक निकट की साथी बेटी ही होती है इसीलिए वह उसकी अन्तिम पूँजी है।

काव्य सौन्दर्य-(1) कन्यादान के समय माँ की मन:स्थिति का स्वाभाविक अंकन हुआ है।

(2) सहज, स्वाभाविक शैली तथा साहित्यिक भाषा का प्रयोग हुआ है।

 

(2) माँ ने कहा पानी में झाँककर

अपने चेहरे पर मत रीझना

आग रोटियाँ सेंकने के लिए है

जलने के लिए नहीं

वस्त्र और आभूषण शाब्दिक भ्रमों की तरह

बंधन हैं स्त्री जीवन के।

 

संदर्भ-पूर्ववत्।

प्रसंग-इसमें कन्यादान के समय माँ अपनी बेटी को समझाती है। इस शिक्षा में परम्परागत आदर्श न

होकर यथार्थ सत्य उजागर किया गया है।

भावार्थ-कन्यादान के समय माँ अपनी बेटी को समझाती है कि तुम अपनी सुन्दरता पर मुग्ध मत

होना। सौन्दर्य अस्थायी है, तुम कोमल तथा नाजुक मत बनना क्योंकि स्त्री के जीवन में मजबूती आवश्यक

है। वह बताती है कि आग रोटियाँ सेंकने के लिए होती शरीर जलाने के लिए नहीं। तुम्हें जलाने का प्रयास

किया जाए तो डटकर विरोध करना। माँ बेटी को सावधान करती है कि तुम वस्त्रों और गहनों के आकर्षण में मत बँधना। ये स्त्री जीवन के बन्धन हैं।

काव्य सौन्दर्य-(1) माँ अपनी बेटी को जीवन के कटु सत्य से परिचित करा रही है। (2) सरल, सुबोध भाषा का प्रयोग हुआ है।

 

9 संगतकार

-मंगलेश डबराल

विशेष-कोविड परिस्थितियों के चलते यह पाठ वार्षिक/बोर्ड परीक्षा 2022 के लिए बोर्ड द्वारा पाठ्यक्रम

में से हटा दिया गया है।

Be the first to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published.


*