गद्य खण्ड : परीक्षोपयोगी गद्यांशों की संदर्भ, प्रसंग सहित व्याख्याएँ ncert class 10th hindi imp questions

क्षितिज – भाग 2

अध्याय 6 गद्य खण्ड: परीक्षोपयोगी गद्यांशों की संदर्भ, प्रसंग सहित व्याख्याएँ

 

10 नेताजी का चश्मा

– स्वयं प्रकाश

 

(1) मूर्ति संगमरमर की थी। टोपी की नोंक से कोट के दूसरे बटन तक कोई दो फुट ऊँची । जिसे कहते हैं बस्ट और सुन्दर थी। नेताजी सुंदर लग रहे थे। कुछ-कुछ मासूम और कमसिन । फौजी वर्दी थी। मूर्ति को देखते ही ‘दिल्ली चलो’ और ‘तुम मुझे खून दो …….’ वगैरह याद आने लगते थे। इस दृष्टि से यह सफल और सराहनीय प्रयास था।

संदर्भ– यह गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के ‘नेताजी का चश्मा’ पाठ से लिया गया है। इसके लेखक स्वयं प्रकाश है। प्रसंग- यहाँ पर कस्बे के मुख्य चौराहे पर लगाई गई नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की प्रतिमा के बारे में बताया गया है।

व्याख्या-सुभाषचन्द्र बोस की जो मूर्ति चौराहे पर लगाई गई थी वह संगमरमर की थी, उनके सिर पर जो टोपी थी उसकी ऊपर की नोंक से लेकर पहने हुए कोट की दूसरे बटन तक की ऊँचाई लगभग दो फुट थी। इसको बस्ट कहा जाता है। जो मूर्ति लगवाई गई थी वह बहुत अच्छी लग रही थी। उसमें नेताजी सुभाषचन्द्र बोस बहुत सुन्दर लग रहे थे। मूर्ति में वे बड़े भोले-भाले तथा नाजुक प्रतीत हो रहे थे। उन्होंने फौज की वर्दी पहन रखी थी। मूर्ति को देखते ही लगता था कि वे कह रहे हों- ‘दिल्ली चलो’ या ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें

आजादी दूंगा।’ इसी तरह नेताजी के नारे याद आ जाते थे। इस तरह इस मूर्ति को चौराहे पर लगवाने का कार्य बहुत ही प्रशंसा के योग्य था।

विशेष– (1) नेताजी के स्वतन्त्रता आन्दोलन में किए गए कार्यों की झलक मूर्ति से प्रकट हो रही थी।

(2) चित्रात्मक शैली तथा सरल भाषा का प्रयोग हुआ है।

 

(2) जीप कस्बा छोड़कर आगे बढ़ गई तब भी हालदार साहब इस मूर्ति के बारे में ही सोचते रहे और अन्त में इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि कुल मिलाकर कस्बे के नागरिकों का यह प्रयास सराहनीय ही कहा जाना चाहिए। महत्व मूर्ति के रंग-रूप या कद का नहीं, उस भावना का है वरना तो देश भक्ति भी आजकल मजाक की चीज होती जा रही है।

संदर्भ- पूर्ववत् ।

प्रसंग- देश-प्रेम के भाव को महत्व देने वाले हालदार साहब को देशभक्त सुभाषचन्द्र बोस की मूर्ति लगवाया जाना उचित लगता है।

व्याख्या- नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की मूर्ति पर वास्तविक चश्मा देखकर हालदार साहब हँस दिए। उनकी जीप उस कस्बे को छोड़ चुकी थी पर वे उसी मूर्ति के बारे में सोच रहे थे। सोच-विचार के बाद वे इस नतीजे पर पहुँचे कि सुभाषचन्द्र बोस की मूर्ति लगवाने का विचार कस्बे के निवासियों का अच्छा प्रयत्न है। उनकी दृष्टि में मूर्ति के रंग, आकार, प्रकार या ऊँचाई का विशेष महत्व नहीं। उन्हें तो इस बात की प्रसन्नता है कि एक देशभक्त की मूर्ति लगवाना देशप्रेम का परिचायक है। नहीं तो वर्तमान समय में देश भक्ति मजाक का विषय बन रही है। लोग देशभक्तों की हँसी उड़ाते हैं।

विशेष- (1) मूर्ति के लगने से देशभक्त सुभाष के कार्यों की याद से चेतना जागती है।

(2) विचारात्मक शैली तथा सरल भाषा का प्रयोग हुआ है।

 

 

(3) बार-बार सोचते, क्या होगा उस कौम का जो अपने देश की खातिर घर-गृहस्थी- जवानी – जिंदगी सब कुछ होम देने वालों पर भी हँसती है और अपने लिए बिकने के मौके ढूँढ़ती है। दुःखी हो गए।

संदर्भ- पूर्ववत् ।

प्रसंग- इसमें हालदार साहब की देशवासियों की स्वार्थी प्रवृत्ति तथा देश प्रेम के अभाव पर चिन्ता व्यक्त हुई है।

व्याख्या- देश-प्रेम से भरे हालदार साहब पुनः पुनः विचार करते हैं कि इस देश में निवास करने वाली स्वार्थी जातियों के कार्यों का क्या परिणाम होगा। ये लोग देश के लिए अपने घर परिवार, यौवन, जीवन आदि को न्यौछावर कर देने वालों का मजाक बनाते हैं। दूसरी ओर ये अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए अपने ईमान को बेचने के अवसरों की खोज में रहते हैं। इस स्वार्थी समाज की करतूतों के प्रति चिन्तित होते हुए हालदार साहब अत्यन्त दुःखी हो उठे।

विशेष- (1) देश-प्रेम के अभाव के प्रति चिन्ता प्रकट हुई है।

(2) भावात्मक शैली तथा सरस भाषा का प्रयोग हुआ है।

 

11 बालगोबिन भगत

– रामवृक्ष बेनीपुरी

 

(1) खेतीबारी करते, परिवार रखते भी, बालगोबिन भगत साधु थे-साधु की सब परिभाषाओं में खरे उतरने वाले। कबीर को ‘साहब’ मानते थे, उन्हीं के गीतों को गाते, उन्हीं के आदेशों पर चलते। कभी झूठ नहीं बोलते, खरा व्यवहार रखते। किसी से भी दो टूक बात करने में संकोच नहीं करते, न किसी से खामखाह झगड़ा मोल लेते। किसी की चीज नहीं छूते, न बिना पूछे व्यवहार में लाते।

संदर्भ- यह गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के ‘बालगोबिन भगत’ पाठ से लिया गया है। इसके लेखक  रामवृक्ष बेनीपुरी हैं।

प्रसंग- इस गद्यांश में बालगोबिन भगत के स्वभाव तथा आचरण का परिचय दिया गया है।

व्याख्या- लेखक के अनुसार बालगोबिन भगत सामान्य व्यक्तियों की तरह खेती करते थे, उनका परिवार भी था फिर भी वे साधु स्वभाव के थे। गृहस्थ आदि रखते हुए भी वे साधु की जो पहचान होती है उस पर पूर्णत: सटीक बैठते थे। बालगोबिन की कबीर में आस्था थी उन्हें वे ‘साहब’ मानते थे। उनके पदों को ही वे गाते थे। जीवन में भी वे कबीर के निर्देशों का ही पालन करते थे। वे सदैव सत्य बोलते थे। उनका व्यवहार सदा खरा, स्पष्ट होता था। वे स्पष्ट बात करते थे। वे न तो किसी से अनावश्यक झगड़ा करते थे और न किसी दूसरे की चीज को हाथ लगाते थे। यदि किसी की चीज काम में लाते थे तो पहले उसके मालिक से पूछ लेते थे।

विशेष – (1) बालगोबिन भगत के सच्चे, सरल आचरण का स्वाभाविक चित्रण हुआ है।

(2) वर्णनात्मक शैली तथा सरल भाषा का प्रयोग किया गया है।

 

(2) बालगोबिन भगत की संगीत साधना का चरम उत्कर्ष उस दिन देखा गया जिस दिन उनका बेटा मरा इकलौता बेटा था वह कुछ सुस्त और बोदा-सा था, किन्तु इसी कारण बालगोबिन भगत उसे और भी मानते। उनकी समझ से ऐसे आदमियों पर ही ज्यादा नजर रखनी चाहिए या प्यार करना चाहिए; क्योंकि ये निगरानी और मुहब्बत के ज्यादा हकदार होते हैं।

संदर्भ- पूर्ववत् ।

प्रसंग- इसमें बालगोबिन भगत के मानवीय रूप का अंकन किया है।

व्याख्या- संगीत के प्रति गहरा लगाव रखने वाले बालगोबिन भगत की संगीत साधना का सबसे उत्कृष्ट रूप उस दिन देखने को मिला जिस दिन उनके पुत्र की मृत्यु हुई। वह उनका अकेला बेटा था। वह दिमाग से कमजोर तथा निर्बल था। बालगोबिन भगत मानते थे कि इस तरह के लोगों का विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए। ऐसे लोग अधिक देखभाल तथा सहायता के अधिकारी होते हैं। ये अपनी देखभाल नहीं कर पाते हैं इसलिए दूसरों को इनकी हिफाजत का ध्यान रखना जरूरी होता है।

विशेष- (1) बालगोबिन भगत के चरित्र का महत्वपूर्ण पक्ष उजागर हुआ है।

(2) वर्णनात्मक शैली तथा व्यावहारिक भाषा का प्रयोग किया गया है।

 

(3) बालगोबिन भगत गाए जा रहे हैं। हाँ, गाते-गाते कभी-कभी पतोहू के नजदीक भी जाते और उसे रोने के बदले उत्सव मनाने को कहते। आत्मा परमात्मा के पास चली गई, विरहिणी अपने प्रेमी से जा मिली, भला इससे बढ़कर आनंद की कौन बात ? मैं, कभी-कभी सोचता यह पागल तो नहीं हो गए। किन्तु नहीं, वह जो कुछ कह रहे थे उसमें उनका विश्वास बोल रहा था वह चरम विश्वास जो हमेशा ही मृत्यु पर विजयी होता आया है।

संदर्भ- पूर्ववत् ।

प्रसंग- यहाँ बालगोबिन भगत की मान्यताओं में पक्का विश्वास प्रकट हुआ है।

व्याख्या- बालगोबिन भगत अपने बेटे के शव के पास आसन जमाकर बैठे हैं और कबीर के पद तन्मय होकर गाए जा रहे हैं। गाते-गाते वे अपनी पुत्र-वधू के पास भी पहुँच जाते हैं और उसे समझाते हैं कि यह रोने का समय नहीं है। इस समय तो उत्सव मनाना चाहिए क्योंकि परमात्मा के वियोग में दुःखी रहने वाली जीवात्मा अपने प्रेमी परमात्मा से जा मिली है। इस मिलन से अधिक प्रसन्नता का अवसर और क्या हो सकता है। लेखक कहते हैं कि बेटे की मृत्यु के समय उनकी ऐसी बातें सुनकर मेरे मन में आता है कि कहीं इनका दिमाग खराब तो नहीं हो गया है, ये पागल तो नहीं हो गए हैं जो ऐसी बातें कह रहे हैं। परन्तु जिस विश्वास के साथ वे ये बातें कह रहे हैं उसमें उनकी आस्था प्रकट हो रही है। यह वह आस्था है जिसने सदैव मृत्यु को पराजित किया है। इससे स्पष्ट है कि वे जो कह रहे हैं, वह सत्य है।

विशेष- (1) कबीर की जीवात्मा परमात्मा के प्रेम की मान्यता के प्रति बालगोबिन भगत का दृढ़ विश्वास व्यक्त है।

(2) विचारात्मक शैली तथा सरल भाषा को अपनाया है।

 

12 लखनवी अन्दाज

– यशपाल

 

विशेष- कोविड परिस्थितियों के चलते यह पाठ वार्षिक/बोर्ड परीक्षा 2022 के लिए बोर्ड द्वारा पाठ्यक्रम में से हटा दिया गया है।

 

  1. मानवीय करुणा की दिव्य चमक

– सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

 

(1) फादर को जहरबाद से नहीं मरना चाहिए था। जिसकी रगों में दूसरों के लिए मिठास भरे अमृत के अतिरिक्त कुछ नहीं था उसके लिए इस जहर का विधान क्यों हो ? यह सवाल किस ईश्वर से पूछें ? प्रभु की आस्था ही जिसका अस्तित्व था। वह देह की इस यातना की परीक्षा उम्र की आखिरी देहरी पर क्यों दे ?

संदर्भ- यह गद्य खण्ड हमारी पाठ्य पुस्तक के ‘मानवीय करुणा की दिव्य चमक’ पाठ से अवतरित है। इसके लेखक सर्वेश्वर दयाल सक्सेना हैं।

प्रसंग- यहाँ फादर कामिल बुल्के की जहरबाद से हुई मृत्यु पर दुःख प्रकट किया गया है। धार्मिक जीवन जीने वाले व्यक्ति का इस प्रकार निधन होना पीड़ाकारक है।

व्याख्या- लेखक दुःखी मन से कहते हैं कि पूरी तरह पवित्र व्यक्तित्व के धनी फादर कामिल का जहरबाद (गैंग्रीन) से निधन नहीं होना चाहिए था। फादर की नस-नस में दूसरों के लिए माधुर्य से भरी अमरता की भावना थी। वे किसी के प्रति बुरे भाव नहीं रखते थे। सभी के प्रति मधुर व्यवहार रखने वाले उस महामानव के लिए इस पीड़ादायक मृत्यु का विधान उचित नहीं है। लेखक प्रश्न करते हैं कि इसका उत्तर किस भगवान के पास है। फादर तो ईश्वर में गहरा विश्वास रखते थे उन्हें जीवन के अन्तिम समय में इस तरह की यातनापूर्ण परीक्षा क्यों देनी पड़ी, यह आश्चर्यजनक है। उन्हें इस कठिन परीक्षा से नहीं गुजरना चाहिए था।

विशेष- (1) ईश्वर के प्रति आस्थावान एक धार्मिक व्यक्ति की गैंग्रीन जैसे कष्ट से मृत्यु बहुत पीड़ादायक है।

(2) भावात्मक शैली तथा साहित्यिक भाषा का प्रयोग हुआ है।

 

(2) फादर को याद करना एक उदास शांत संगीत को सुनने जैसा है। उनको देखना करुणा के निर्मल जल में स्नान करने जैसा था और उनसे बात करना कर्म के संकल्प से भरना था।

संदर्भ- पूर्ववत् ।

प्रसंग- इस गद्य खण्ड में फादर कामिल बुल्के के शान्त गम्भीर, करुणापूर्ण कर्मठ व्यक्तित्व का वर्णन किया गया है।

व्याख्या- लेखक कहते हैं कि फादर कामिल बुल्के को याद करना ठीक वैसा ही शान्त और गम्भीर है। जैसे किसी गम्भीर और शान्त भाव भरे संगीत को सुनना होता है। उनके उदार व्यक्तित्व का दर्शन करना करुणा के पवित्र जल में नहाने जैसा था। उनको देखते ही करुणा का स्रोत प्रवाहित हो उठता था। वे जब बातचीत करते थे तो उनके काम करने की प्रेरणा का स्वर भरा होता था। उनसे बात करके कर्मठ बनने का भाव पैदा होता था।

विशेष- (1) यहाँ पर फादर कामिल बुल्के के प्रेरणा देने वाले व्यक्तित्व का वर्णन हुआ है।

(2) विचारात्मक शैली तथा साहित्यिक भाषा का प्रयोग हुआ है।

 

(3) उनकी चिंता हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में देखने की थी। हर मंच से इसकी तकलीफ बयान करते, इसके लिए अकाट्य तर्क देते। बस इसी एक सवाल पर उन्हें झुंझलाते देखा है और हिन्दी वालों द्वारा ही हिन्दी की उपेक्षा पर दुख करते उन्हें पाया है।

संदर्भ- पूर्ववत्

प्रसंग- इस गद्यांश में फादर कामिल बुल्के का हिन्दी के प्रति लगाव का भाव प्रकट हुआ है।

व्याख्या – हिन्दी को हृदय से चाहने वाले फादर कामिल बुल्के उसे भारत की राष्ट्रभाषा देखना चाहते थे। हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाए जाने की बात वे प्रत्येक अवसर पर कहते थे। राष्ट्रभाषा बनाने की बात को वे बड़े सशक्त ढंग से रखते थे। इसकी पुष्टि में वे जो तर्क देते थे उन्हें काट पाना सम्भव न था मात्र हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के प्रश्न पर ही झुंझला उठते थे। उन्हें हिन्दी वालों से शिकायत थी कि वे ही हिन्दी की अवहेलना करते हैं। उसके प्रति निष्ठावान नहीं हैं। हिन्दी वालों द्वारा हिन्दी का अनादर किए जाने पर वे बहुत दुःखी रहते थे। हिन्दी से जुड़े लोगों की उदासीनता से वे खिन्न रहते थे।

विशेष- (1) यहाँ पर फादर कामिल बुल्के के हिन्दी प्रेम को व्यक्त किया गया है।

(2) भावात्मक शैली और सरल भाषा का प्रयोग हुआ है।

 

 

14 एक कहानी यह भी

– मन्नू भंडारी

 

(1) ) नवाबी आदतें, अधूरी महत्वाकांक्षाएँ, हमेशा शीर्ष पर रहने के बाद हाशिए पर सरकते जाने की यातना क्रोध बनकर हमेशा माँ को कंपाती थरथराती रहती थी। अपनों के हाथों विश्वासघात की जाने कैसी गहरी चोटें होंगी वे जिन्होंने आँख मूँदकर सबका विश्वास करने वाले पिता को बाद के दिनों में इतना शक्की बना दिया था कि जब-तब हम लोग भी उसकी चपेट में आते ही रहते।

संदर्भ- यह गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के ‘एक कहानी यह भी’ पाठ से लिया गया है। इसकी लेखिका मन्नू भंडारी हैं।

प्रसंग- इस अंश में लेखिका मन्नू भण्डारी ने अपने पिता के बारे में बताया है कि अपने ही लोगों से धोखा खाने के बाद वे शक्की स्वभाव के हो गए थे।

व्याख्या – लेखिका मन्नू भण्डारी बताती हैं कि उनके पिताजी कभी बहुत उदार, सम्पन्न तथा प्रतिष्ठा वाले थे। किन्तु अब उनकी स्थिति वैसी नहीं रह गई थी। उनकी आदतें नवाबों जैसी थी, जिन इच्छाओं को वे पूरी करना चाहते थे वे अधूरी ही रह गई थीं। वे सबसे ऊपर रहते आए थे किन्तु अब उनकी वह हालत न थी, अब वे किनारे होते जा रहे थे। इससे वे बहुत दुःखी रहते थे। उनमें क्रोध की भावना बहुत हो गई थी, जो माँ पर उतरता था। वे उनके क्रोध के कारण हर समय कंपकंपाती तथा थरथराती रहती थीं। उन्होंने अपने निजी लोगों के विश्वासघात को झेला था, उसकी अत्यन्त गहरी चोटें उनके हृदय में पीड़ा जगाती थीं। स्थिति यह हो गई थी कि जो पिताजी सभी पर आँख बन्द करके विश्वास किया करते थे अब धोखा खाने के बाद इतने शंकालु हो गए थे कि अपने बच्चों पर भी शंका करने लगे थे। उन्हें भी जब तब उसकी पीड़ा सहन करनी पड़ती थी।

विशेष—(1) लेखिका में अपने खास लोगों से धोखा खाए अपने पिता के शंकालु तथा क्रोधी स्वभाव का चित्रण किया है।

(2) विचारात्मक शैली तथा सरल भाषा का प्रयोग हुआ है।

(2) केवल बाहरी भिन्नता के आधार पर अपनी परंपरा और पीढ़ियों को नकारने वालों को क्या सचमुच इस बात का बिल्कुल अहसास नहीं होता कि उनका आसन्न अतीत किस कदर उनके भीतर जड़ जमाए बैठा रहता है। समय का प्रवाह भले ही हमें दूसरी दिशाओं में बहाकर ले जाए • स्थितियों का दबाव भले ही हमारा रूप बदल दे, हमें पूरी तरह उससे मुक्त तो नहीं कर सकता।

संदर्भ- पूर्ववत् ।

प्रसंग- यहाँ बताया गया है कि पुरानी परम्पराएँ और पीढ़ियाँ मनुष्य को किसी-न-किसी रूप में अवश्य प्रभावित करती हैं।

व्याख्या – लेखिका बताती हैं कि बाहर के अलगाव मात्र के कारण पुरानी परम्पराओं और पीढ़ियों को नकारा नहीं जा सकता है। इस तरह नकारने वालों को क्या वास्तव में यह अनुभव नहीं होता है कि उनके भीतर पुराने समय की परम्पराएँ तथा पीढ़ियों की मान्यताएँ स्थिर रूप में विद्यमान रहती हैं। समय के परिवर्तन के कारण व्यक्ति अन्य प्रकार का जीवन जी सकता है अथवा परिस्थितियों के कारण हमारे काम का रूप भले ही परिवर्तित हो सकता है। फिर भी पुरानी परम्पराओं और पीढ़ियों के प्रभाव किसी न किसी रूप में रहते ही हैं, उनसे पूरी तरह छुटकारा मिलना सम्भव नहीं है।

विशेष – (1) इसमें बताया गया है कि पुरानी परम्पराओं का प्रभाव निश्चित रूप से पड़ता है।

(2) विचारात्मक शैली तथा शुद्ध भाषा का प्रयोग हुआ है।

 

(3) एक बवंडर शहर में मचा हुआ था और एक घर में पिताजी की आजादी की सीमा यहीं तक थी कि उनकी उपस्थिति में घर में आए लोगों के बीच उढूँ-बैठूं, जानू-समझँ। हाथ उठा-उठाकर नारे लगाती, हड़तालें करवाती, लड़कों के साथ शहर की सड़कें नापती लड़की को अपनी सारी आधुनिकता के बावजूद बर्दाश्त करना उनके लिए मुश्किल हो रहा था तो किसी की दी हुई आजादी के दायरे में चलना मेरे लिए। जब रगों में लहू की जगह लावा बहता हो तो सारे निषेध, सारी वर्जनाएँ और सारा भय कैसे ध्वस्त हो जाता है, यह भी जाना और अपने क्रोध से सबको थरथरा देने वाले पिताजी से टक्कर लेने का जो सिलसिला तब शुरू हुआ था, राजेन्द्र से शादी की, तब तक यह चलता ही रहा।

संदर्भ- पूर्ववत् ।

प्रसंग- यहाँ लेखिका ने भारत के स्वाधीनता आन्दोलन के समय की परिस्थितियों में अपनी सक्रिय भागीदारी के बारे में बताया है।

व्याख्या लेखिका कहती हैं कि स्वतन्त्रता आन्दोलन के कारण शहर भर में प्रभात फेरियों, हड़तालों, जुलूसों का बवंडर मचा हुआ था। चारों ओर शोर-शराबा था। दूसरी ओर उनकी आन्दोलन में सक्रिय भागीदारी के कारण घर में उग्र स्थितियाँ थीं। पिता मुझे इतनी ही आजादी देने के पक्ष में थे कि मैं घर पर आने वाले लोगों के साथ बातचीत करूँ उनके विचार जानूँ और अपने विचार व्यक्त करूँ। आधुनिक विचारों वाले होते हुए भी उन्हें यह स्वीकार नहीं था कि मैं हाथ उठाकर नारे लगाऊँ। गली-गली, मुहल्ले मुहल्ले में घूमती फिरूँ, विद्यालयों, कारखानों में हड़ताल कराती फिरूँ या फिर लड़कों के साथ शहर भर की सड़कों पर घूमती फिरूँ । दूसरी ओर, मेरे हृदय में आजादी का जो जज्बा जाग गया था वह सीमाएँ मानने को तैयार नहीं था। फलत: दोनों में टकराव स्वाभाविक था। लेखिका कहती हैं कि उनकी नसों में रक्त की जगह ज्वालामुखी दहकता था इसलिए मैं कोई पाबन्दी, कोई विरोध, कोई डर मानने को तैयार न थी। उनको तभी अनुभव हुआ कि अपने गुस्से से सभी को कंपकंपा देने वाले पिताजी से कैसे टक्कर ली जा सकती है। टकराव का यह क्रम तब से प्रारम्भ होकर उनकी राजेन्द्र के साथ शादी होने तक चलता ही रहा।

विशेष-(1) स्वाधीनता आन्दोलन के समय की लेखिका उग्र गतिविधियों से खिन्न पिता से उनका टकराव होने लगा था (2) भावात्मक शैली तथा साहित्यिक भाषा का प्रयोग हुआ है।

 

15 स्त्री – शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खण्डन

-महावीरप्रसाद द्विवेदी

 

(1) नाटकों में स्त्रियों का प्राकृत बोलना उनके अपढ़ होने का प्रमाण नहीं। अधिक-से-अधिक इतना ही कहा जा सकता है कि वे संस्कृत न बोल सकती थीं। संस्कृत न बोल सकना न अपढ़ होने का सबूत है और न गँवार होने का अच्छा तो उत्तररामचरित में ऋषियों की वेदांतवादिनी पत्नियाँ कौन-सी भाषा बोलती थीं ? उनकी संस्कृत क्या कोई गँवारी संस्कृत थी। भवभूति और कालिदास आदि के नाटक जिस जमाने के हैं उस जमाने में शिक्षितों का समस्त समुदाय संस्कृत ही बोलता था, इसका प्रमाण पहले कोई दे ले तब प्राकृत बोलने वाली स्त्रियों को अपढ़ बताने का साहस करे।

 

संदर्भ- यह गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के ‘स्त्री शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खण्डन’ पाठ से लिया गया है। इसके लेखक महावीरप्रसाद द्विवेदी हैं।

प्रसंग- लेखक ने तर्क देते हुए बताने का प्रयास किया है कि प्राकृत बोलना अपढ़ होने का प्रमाण नहीं होता है।

व्याख्या- इसमें बताया गया है कि प्राकृत बोलने वाले अपढ़ हों यह आवश्यक नहीं है। संस्कृत नाटकों में स्त्री पात्र प्राकृत बोलते हैं इससे यह तो कहा जा सकता है कि वे संस्कृत नहीं बोल पाती थीं। संस्कृत भाषा में बात न कर पाना बिना पढ़े-लिखे होने का प्रमाण नहीं कहा जा सकता है। संस्कृत न बोल पाने वालों को गँवार भी नहीं माना जा सकता है। साथ ही, यह भी ध्यान देने की बात है कि कई स्त्रियाँ संस्कृत बोलने वाली भी हैं। उत्तररामचरित में कई ऋषियों की पत्नियाँ ऐसी हैं जो वेदान्त पर बोलती थीं। वे भी तो स्त्री ही थीं। वे संस्कृत में ही बोलती थीं। उनकी संस्कृत को मूर्खों की संस्कृत नहीं मान सकते हैं ? वे तो विदुषी थीं। उन्हें संस्कृत भाषा का पूर्ण ज्ञान था। यह भी विचारणीय है कि जिस समय भवभूति और कालिदास इत्यादि ने नाटकों की रचना की थी उस समय क्या सभी शिक्षित लोग संस्कृत बोलते थे। क्या इसका कोई प्रमाण दिया जा सकता है ? यदि इसका सबूत नहीं है तो संस्कृत में बात न करने वाली स्त्रियों को बिना पढ़ी कहना गलत है। प्राकृत बोलना बिना पढ़ी होने का प्रमाण नहीं हो सकता है।

विशेष-(1) यहाँ यह स्पष्ट किया गया है कि संस्कृत न बोल पाना बिना पढ़े होने का प्रमाण नहीं माना जा सकता है। (2) तर्कपूर्ण शैली तथा साहित्यिक भाषा अपनाई गई है।

 

 

(2) जिस समय आचार्यों ने नाट्यशास्त्र सम्बन्धी नियम बनाए थे उस समय सर्वसाधारण की भाषा संस्कृत न थी। चुने हुए लोग ही संस्कृत बोलते या बोल सकते थे। इसी से उन्होंने उनकी भाषा संस्कृत और दूसरे लोगों तथा स्त्रियों की भाषा प्राकृत रखने का नियम कर दिया।

 

संदर्भ- पूर्ववत् ।

प्रसंग- इस गद्यांश में बताया गया है कि नाट्यशास्त्र के नियम समाज द्वारा बोली जाने वाली भाषाओं के आधार पर बनाए गए थे।

व्याख्या- लेखक कहते हैं कि जब आचार्यों ने नाट्यशास्त्र सम्बन्ध में नियमों को बनाया उस जमाने में सभी लोग संस्कृत नहीं बोलते थे। जो शिक्षित तथा उच्च समाज के लोग थे वे संस्कृत बोलते थे। शेष लोग उस समय प्रचलित भाषा प्राकृत बोलते थे। इसी वजह से उन्होंने चुने हुए पात्रों की भाषा संस्कृत रखी। बाकी जो स्त्री-पुरुष पात्र थे उनकी भाषा प्राकृत रखने का नियम बना दिया गया।

विशेष- (1) नाट्यशास्त्र के नियम बनाते समय समाज में विभिन्न वर्गों द्वारा बोली जाने वाली भाषाओं को ध्यान में रखकर विभिन्न पात्रों की भाषाओं का निर्धारण कर दिया गया

(2) विचारात्मक शैली तथा साहित्यिक भाषा का प्रयोग हुआ है।

 

(3) पढ़ने-लिखने में स्वयं कोई बात ऐसी नहीं जिससे अनर्थ हो सके। अनर्थ का बीज उसमें हरगिज नहीं। अनर्थ पुरुषों से भी होते हैं। अपढ़ों और पढ़े-लिखे दोनों से। अनर्थ, दुराचार और पापाचार के कारण और ही होते हैं और वे व्यक्ति विशेष का चाल-चलन देखकर जाने भी जा सकते हैं। अतएव स्त्रियों को अवश्य पढ़ाना चाहिए।

संदर्भ- पूर्ववत् ।

प्रसंग- यहाँ बताया गया है कि पढ़ने-लिखने में किसी तरह का अनर्थ, पाप आदि नहीं है। अतः स्त्रियों को पढ़ाना उचित है।

व्याख्या- लेखक समझाते हैं कि पढ़ाई-लिखाई अनुचित कार्य करने की प्रेरणा नहीं देती है। इससे अहित होने की सम्भावना नहीं है। पढ़ने के कारण गलत काम करने का स्वभाव नहीं होता है। बुरे काम, अनुचित आचरण तथा पापकर्म करने की प्रवृत्ति बनाने वाले अन्य बहुत-से कारण हो सकते हैं। किसी व्यक्ति के आचरण व्यवहार से उन कारणों का पता लगाया जा सकता है। इसलिए हमें स्त्रियों को अवश्य शिक्षित करना चाहिए। स्त्री शिक्षा से समाज के गौरव में बढ़ोत्तरी होगी।

विशेष-(1) यहाँ स्पष्ट किया गया है कि स्त्री शिक्षा से न कोई अनर्थ होता है और न पाप।

(2) विचारात्मक शैली तथा सरल भाषा को अपनाया गया है।

 

16 नौबतखाने में इबादत

– यतीन्द्र मिश्र

 

विशेष- कोविड परिस्थितियों के चलते यह पाठ वार्षिक / बोर्ड परीक्षा 2022 के लिए बोर्ड द्वारा पाठ्यक्रम में से हटा दिया गया है।

 

17 संस्कृति

– भदंत आनंद कौसल्यायन

 

(1) जिस योग्यता, प्रवृत्ति अथवा प्रेरणा के बल पर आग या सुई-धागे का आविष्कार हुआ, वह है व्यक्ति विशेष की संस्कृति, और उस संस्कृति द्वारा जो आविष्कार हुआ, जो चीज उसने अपने तथा दूसरों के लिए आविष्कृत की,उसका नाम है सभ्यता।

संदर्भ- यह गद्य खण्ड हमारी पाठ्य पुस्तक के ‘संस्कृति ‘पाठ से लिया है। इसके लेखक भदंत आनंद कौसल्यायन हैं।

प्रसंग- इसमें संस्कृति और सभ्यता के बारे में बताया गया है।

व्याख्या- कोई भी आविष्कार तब होता है जब उसकी कोई आवश्यकता अनुभव की जाती है। आग तथा सुई-धागे के आविष्कार जिस योग्यता, प्रवृत्ति तथा प्रेरणा की शक्ति के द्वारा हो सके वह उस व्यक्ति विशेष की संस्कृति है। इस संस्कृति ने ही उससे आविष्कार कराया। उस संस्कृति के द्वारा जो आविष्कार किया गया और जिस चीज की खोज की गई उसका नाम सभ्यता है।

विशेष – (1) संस्कृति तथा सभ्यता को स्पष्ट किया गया है।

(2) विचारात्मक शैली तथा शुद्ध साहित्यिक भाषा का प्रयोग हुआ है।

 

(2) एक संस्कृत व्यक्ति किसी नयी चीज की खोज करता है, किन्तु उसकी संतान को वह अपने पूर्वज से अनायास ही प्राप्त हो जाती है। जिस व्यक्ति की बुद्धि ने अथवा उसके विवेक ने किसी भी नए तथ्य का दर्शन किया, वह व्यक्ति ही वास्तविक संस्कृत व्यक्ति है और उसकी संतान जिसे अपने पूर्वज से यह वस्तु अनायास प्राप्त हो गई है वह अपने पूर्वज की भाँति सभ्य भले ही बन जाए, संस्कृत नहीं कहला सकता।

संदर्भ- पूर्ववत् ।

प्रसंग- यहाँ बताया गया है कि कौन व्यक्ति संस्कृत होगा और कौन सभ्य

व्याख्या- लेखक स्पष्ट करते हैं कि अपनी बुद्धि या विवेक द्वारा किसी नये तथ्य का दर्शन करने वाला तथा नया आविष्कार करने वाला व्यक्ति ही संस्कृत व्यक्ति होता है। जिस सन्तान को बिना किसी प्रयत्न के जो चीज खोज करने वाले से मिल गई है वह संस्कृत नहीं कहा जा सकता है। सन्तान को पूर्वज की तरह सभ्य तो कह सकते हैं किन्तु उसे संस्कृत नहीं कहा जा सकता है।

विशेष- (1) जो आविष्कार करता है संस्कृत होता है जबकि उसकी सन्तान सभ्य होती है।

(2) विचारात्मक शैली तथा साहित्यिक भाषा को अपनाया है।

 

 

(3) संस्कृति के नाम से जिस कूड़े-करकट के ढेर का बोध होता है, वह न संस्कृति है न रक्षणीय वस्तु । क्षण-क्षण परिवर्तन होने वाले संसार में किसी भी चीज को पकड़कर बैठा नहीं जा सकता। मानव ने जब-जब प्रज्ञा और मैत्री भाव से किसी नए तथ्य का दर्शन किया है तो उसने कोई वस्तु नहीं देखी, जिसकी रक्षा के लिए दलबंदियों की जरूरत है। मानव संस्कृति एक अविभाज्य वस्तु है और उसमें जितना अंश कल्याण का है, वह अकल्याणकर की अपेक्षा श्रेष्ठ ही नहीं स्थायी भी है।

संदर्भ- पूर्ववत् ।

प्रसंग- यहाँ बताया गया है कि पल-पल बदलते इस संसार में संस्कृति का कल्याणकारी रूप ही श्रेष्ठ तथा स्थिर है।

व्याख्या – निरन्तर बदलते इस संसार में संस्कृति भी बदलती रहती है। कभी-कभी विकृत रूप भी संस्कृति कहलाने लगते हैं। यह स्थिति समाज के लिए हितकारी नहीं है। इससे मानव समाज का अहित होता है। हर पल बदलने वाले संसार में किसी भी चीज को स्थायी रूप से पकड़ा नहीं जा सकता है। संस्कृति भी बदलती रहती है। बुद्धिमान व्यक्ति जब ज्ञान और मित्र भाव से प्रेरित हो नये आविष्कार करते हैं तब वे किसी प्रकार की खेमेबाजी का सहारा नहीं लेते हैं। नवीन आविष्कार तो सबके लिए हितकारी होता है क्योंकि मनुष्यों की संस्कृति को विभाजित नहीं किया जा सकता है। इसलिए परिवर्तनशील जगत् में संस्कृति का कल्याणकारी रूप ही उत्तम होता है और यह ही स्थायी होता है। जो अंश कल्याणकारी नहीं होते हैं वे स्वतः ही निकल जाते हैं, समाज उन्हें अपनाता ही नहीं है।

विशेष- (1) इसमें बताया गया है कि कल्याणकारी संस्कृति ही स्थिर होती है।

(2) विचारात्मक शैली और साहित्यिक भाषा का प्रयोग हुआ है।

 

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