अध्याय 16 निबन्ध लेखन
- दहेज प्रथा एक सामाजिक समस्या
रूपरेखा– (1) प्रस्तावना (2) प्राचीनकाल में दहेज का स्वरूप, (3) मध्यकाल में नारी की दयनीय स्थिति(4) आधुनिक काल में दहेज का स्वरूप (5) निराकरण के उपाय (6) उपसहार।।
प्रस्तावना- आज भारतीय समाज में दहेज एक अभिशाप के रूप में व्याप्त है। दहेज के अभाव में निर्धन माता-पिता अपनी बेटों के हाथ पील करने में स्वयं को असमर्थ पा रहे हैं। दहेज उन्मूलन के जितने प्रयास किये जाते हैं. इतना ही वह सुरसा के मुँह की तरह बढ़ता जा रहा है।
प्राचीन काल में दहेज-प्राचीन काल में कन्या को ही सबसे बड़ा दान समझा जाता था। माता-पिता वर पक्ष को अपनी सामर्थ्य के अनुसार जो कुछ देते थे, उसे वे सहर्ष स्वीकार कर लेते थे और जो धन कन्या को दिया जाता था वह स्त्री धन समझा जाता था।
मध्यकाल में नारी की स्थिति मध्य काल में नारी के प्राचीन आदर्श यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते’ को झुठलाकर उसे भोग एवं विलासिता का साधन बना दिया गया। उसका स्वयं का अस्तित्व घर की चारदीवारी में सन्तानोत्पत्ति करने में ही सिमट कर रह गया। इस समय पुरुष समाज द्वारा उसे धन के समान भोग्य वस्तु समझा जाता था। उसके धन को और माता-पिता द्वारा दिये गये धन को वह अपनी वस्तु समझने लगा।
आधुनिक काल में दहेज-आधुनिक काल में दहेज अपने सबसे विकृत स्वरूप में सामने है। अब तो ऐसा लगता है कि मानो दहेज लेना वर पक्ष का जन्मसिद्ध अधिकार हो। दहेज के बिना सद्गुणी कन्या का विवाह होना भी एक जटिल समस्या बन गया है। इस दहेज की बलिवेदी पर न जाने कितनी कन्याएँ आत्महत्या करने के लिए विवश हो रही है और कितनी ही दहेज के लालची लोगों के द्वारा जला अथवा मार दी जाती हैं। इतने पर भी दहेज लोभियों का हृदय तनिक भी द्रवीभूत नहीं होता।
निराकरण के उपाय-वैसे तो यह बीमारी वर्तमान भारतीय समाज की जड़ों तक पहुँच चुकी है। मगर अब भी यदि हम निम्नलिखित उपायों को अपनाएँ तो इस समस्या को नेस्तनाबूत किया जा सकता है (1) युवक और युवतियाँ दहेज रहित विवाह के लिए कृत संकल्प हों। (2) अन्तर्जातीय विवाह को प्रोत्साहन दिया जाये (3) दहेज लोलुपों का सामाजिक बहिष्कार हो। (4) सरकार को इस विषय में सक्रिय एवं कठोर कदम उठाने चाहिए। (5) सामूहिक विवाहों का प्रचलन हो। (6) दहेज रहित विवाह करने वालों को सामाजिक संगठनों द्वारा पुरस्कृत किया जाय।
उपसंहार- दहेज का उन्मूलन अकेले सरकार के द्वारा नहीं किया जा सकता। इसके लिए देश के कर्णधारों, मनीषियों एवं समाज सुधारकों को भगीरथ प्रयास करना होगा। प्राचीन भारतीय आदर्शों की पुनः प्रतिष्ठा करनी होगी जिसमें नारी को गृहस्थी रूपी रथ का एक पहिया समझा जाता था। वह गृहलक्ष्मी की गरिमा से मंडित थी उसको छाया में घर-घर स्वर्ग बना हुआ था तथा घर-आँगन फुलवारी के रूप में सुवासित था और यदि हम ऐसा कर पायें तो वास्तव में नारी को गोद से बड़ा स्वर्ग पृथ्वी पर दूसरा नहीं होगा।
- विद्यार्थी और अनुशासन
अथवा
अनुशासन का महत्व
[ रूपरेखा (1) प्रस्तावना, (2) अनुशासित जीवन (3) अनुशासन का महत्त्व (4) अनुशासन के प्रकार, (5) अनुशासन का तात्पर्य (6) विद्यार्थी एवं अनुशासन (7) उपसंहार ।।
प्रस्तावना- समस्त सृष्टि नियमबद्ध तरीके से संचालित हो रही है। सूर्य एवं चन्द्र नियमित रूप से उदय होकर दुनिया को प्रकाशित करते हैं। जिस प्रकार प्रकृति के नियम हैं उसी भाँति समाज, देश तथा धर्म की भी कुछ मर्यादाएँ होती है। कुछ नियम होते हैं, कुछ आदर्श निधारित होते हैं। इन आदर्शों के अनुरूप जीवन ढालना अनुशासन की परिधि में आता है।
अनुशासित जीवन- वास्तव में अनुशासित जीवन बहुत ही मनोहर तथा आकर्षक होता है। इससे जीवन दिन-प्रतिदिन प्रगति के मार्ग पर अग्रसर होता है। अनुशासन के पालन से जीवन में मान-मर्यादा मिलती है। जो जीवन अनुशासित नहीं होता, वह धिक्कार तथा तिरस्कार का पात्र बनता है।
अनुशासन का महत्त्व अनुशासन का जीवन से गहरा लगाव है। जो समाज अथवा राष्ट्र अनुशासन में बँधा होता है, उसकी उन्नति अवश्यम्भावी है। दुनिया की कोई भी ताकत उसे बढ़ने से रोक नहीं पाती। यदि अनुशासन का उल्लंघन किया जाय तो राष्ट्र तथा समाज पतन की दिशा में बढ़ता चला जाता है।
अनुशासन के प्रकार अनुशासन के अनेक प्रकार है। नैतिक अनुशासन, सामाजिक अनुशासन तथा धार्मिक अनुशासन अनुशासन बाह्य तथा आन्तरिक दो प्रकार का होता है। जब भय तथा डंडे के बल पर अनुशासन स्थापित किया जाता है, तो इस प्रकार के अनुशासन को बाहरी अनुशासन कहकर पुकारा जाता है। जब व्यक्ति अथवा बालक स्वेच्छा से प्रसन्न मन से नियमों का पालन करता है तो इस प्रकार का अनुशासन आन्तरिक अनुशासन की श्रेणी में आता है। अनुशासन का तात्पर्य अनुशासन शब्द दो शब्दों के मेल से बना है। पहला अनु’ जिसका अर्थ है पीछे, दूसरा ‘शासन’ अर्थात् शासन के पीछे अनुगमन करना।
विद्यार्थी एवं अनुशासन-वैसे हर मानव के लिए अनुशासन का पालन करना आवश्यक है, लेकिन छात्रों के लिए तो अनुशासन में रहना अमृत तुल्य है। छात्र जीवन मानव जीवन की आधारशिला है। आज छात्रों द्वारा परीक्षा का बहिष्कार सार्वजनिक स्थानों में तोड़-फोड़ तथा पुलिस के साथ संघर्ष एक आम बात हो गई है। समाचार पत्र छात्रों की अनुशासनहीनता तथा हिंसक घटनाओं की खबर नित्य प्रति प्रकाशित करते रहते हैं। हम इन्हें पढ़कर मात्र इतना कह देते हैं कि यह बहुत बुरी बात है, लेकिन हमारे इतनाकहने मात्र से इसका निराकरण नहीं होता क्या कभी हमने शान्त मन से यह सोचा है कि यदि यह बीमारी बढ़ती गई तो इसका निराकरण करना हमारे वश की बात नहीं रहेगी। छात्र एवं अनुशासन एक सिक्के के दो पहलू है। प्राचीन काल में छात्रों को आश्रमों तथा गुरुकुलों में गुरु के समीप रहकर शिक्षा प्राप्त करनी पड़ती थी। उनको अनुशासन के कठोर नियमों में बँधकर जीवनयापन करना पड़ता था। वर्तमान समय के छात्रों को भी यह ध्यान रखना चाहिए कि वे आज अनुशासनहीनता के जिस पथ पर अग्रसर हो रहे हैं वह उनके भविष्य के लिए घातक तथा अमगलकारी है। इसके निराकरण के लिए नियमित रूप से नैतिक शिक्षा, धार्मिक उपदेश तथा जीवनोपयोगी चर्चाएँ. प्रार्थना स्थल तथा कक्षाओं में होनी चाहिए जिससे छात्र सदमाग के अनुगामी बन सकें। अभिभावकों, शिक्षाविदों तथा अध्यापकों को भी स्वयं के आदर्श प्रस्तुत करके छात्रों को देश का उत्तम नागरिक बनाने में यथाशक्ति सहयोग देना चाहिए।
उपसंहार- छात्र देश के भाग्य विधाता है, शक्ति के पुंज हैं। देश उनकी ओर आशा भरी दृष्टि से निहार रहा है। यदि वे सुधरे तो देश सुधरेगा उनके न सुधरने पर देश रसातलगामी बनेगा।
- विज्ञान वरदान या अभिशाप
अथवा
विज्ञान की देन
अथवा
विज्ञान और मानव
अथवा
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी अथवा विज्ञान का जीवन पर प्रभाव अथवा
विज्ञान के बढ़ते चरण
[ रूपरेखा (1) प्रस्तावना (2) विज्ञान वरदान के रूप में, (3) विज्ञान अभिशाप के रूप में, (4) उपसहार।।
प्रस्तावना आज हम विज्ञान के युग में साँस ले रहे है। आज विज्ञान ने मानव जीवन के प्रत्येक पहलू को प्रभावित किया है। यदि हमारे पूर्वज अपनी कब्रों से उठकर आज की दुनिया को देखें तो उन्हें अपनी आँखों
पर यह विश्वास नहीं होगा कि हम कभी इस दुनिया में निवास करते थे। विज्ञान वरदान के रूप में विज्ञान ने मनुष्य का जीवन सुख वैभव तथा समृद्धि से सम्पन्न बना दिया है। आज विज्ञान ने अनेक क्षेत्रों में आशातीत उन्नति की है, जैसे
(1) खाद्यान्न के क्षेत्र में खाद्यान्न के क्षेत्र में विज्ञान ने क्रान्ति मचा दी है। वर्तमान युग में किसान वर्षा ऋतु पर आश्रित नहीं रहता अपितु ट्यूबवैलों से खेतों को सींच रहा है। बैलों की जगह ट्रैक्टर के माध्यम से खेत की जुताई की जाती है। रासायनिक खादों का प्रयोग किया जाता है तथा कीटनाशक दवाओं के द्वारा फसलों की सुरक्षा की जाती है।
(2) उद्योग एवं विज्ञान-मशीनों के द्वारा आज आद्योगिक क्षमता का विकास तीव्र गति से हो रहा है। जो कार्य पहले सौ व्यक्तियों द्वारा पूरा होता था आज मशीनों के द्वारा कम समय में एक ही व्यक्ति पूरा कर लेता है।
(3) शिक्षा के क्षेत्र में वर्तमान समय में टी वी रेडियो तथा कम्प्यूटरों के माध्यम से शिक्षा दी जा रही है। चित्रपट पर प्रदर्शित राजनीतिक वार्ता, प्राकृतिक दृश्य तथा शैक्षिक कार्यक्रम शिक्षा के क्षेत्र में उपयोगी सिद्ध हो रहे हैं।
(4) आवागमन के क्षेत्र में प्राचीन समय में यात्रा करना बहुत ही कष्टप्रद तथा भययुक्त होता था, लेकिन वैज्ञानिक आविष्कार के द्वारा आज रेल मोटर तथा वायुयानों के माध्यम से मानव सम्पूर्ण विश्व की यात्रा कुछ घण्टों में ही पूरा कर लेता है।
(5) चिकित्सा के क्षेत्र में आज विज्ञान के माध्यम से अनेक घातक बीमारियों का एक्स-रे द्वारा आन्तरिक फोटो लेकर सरलता से पता लगा लिया जाता है। कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी का इलाज भी सम्भव हो गया है। ऑपरेशन के द्वारा न जाने कितने इंसानों को नया जीवन मिलता है।
( 6 ) संचार के क्षेत्र में संचार के क्षेत्र में भी विज्ञान ने अभूतपूर्व उन्नति की है। टेलीफोन, टेलीग्राम तथा टेलीविजन के द्वारा हम घर बैठे ही सम्पूर्ण देश के लोगों का हाल जान सकते हैं।
(7) वस्त्र निर्माण के क्षेत्र में आज वस्त्र निर्माण के लिए आधुनिक तकनीकों से युक्त नयी-नयी मिलें स्थापित हो गयी हैं। सिलाई के लिए नयी-नयी मशीने आविष्कृत हैं।
विज्ञान अभिशाप के रूप में विज्ञान ने जहाँ मनुष्य को सुख-सुविधा एवं स्वास्थ्य दिया है वहीं दूसरी ओर वह एक विशालकाय दानव की तरह भयानक मुँह खोले हुए उसे मृत्यु की नींद सुलाने को बेचैन है। हाइड्रोजन बम और जहरीली गैसें उसके लिए मृत्यु से भी भयंकर साबित हो रही हैं। विज्ञान द्वारा प्रदत्त भौतिक साधनों से मनुष्य आलसो हो गया है और शरीर से कमजोर हो गया है। विज्ञान ने वातावरण को अति दूषित कर दिया है और प्रकृति की सरचना से खिलवाड़ किया है।
उपसंहार- विज्ञान स्वयं में शक्ति नहीं है। वह मनुष्यों के हाथों में आकर ही शक्तिशाली बना है। उसका शुभ और अशुभ प्रयोग मनुष्य के हाथ में ही है। ईश्वर मनुष्य को ऐसी बुद्धि दे कि वह मनुष्य के संहार के लिए इसका प्रयोग न करे।
- वृक्षारोपण
अथवा
वन संरक्षण
[ रूपरेखा – (1) प्रस्तावना (2) भारतीय संस्कृति और वृक्ष (3) वनों से लाभ, (4) वृक्षों के कटने से हानियाँ (5) वृक्षारोपण कार्यक्रम (6) उपसंहार
प्रस्तावना- भारत की संस्कृति एवं सभ्यता वनों में ही पल्लवित तथा विकसित हुई है। वृक्ष मानव का एक तरह से जीवन सहचर हैं। वृक्षों के अभाव में न तो सरोवर जल से आपूरित रहते हैं और न सरिताएँ ही कल-कल ध्वनि से प्रवाहित होती हैं। वृक्षों की जड़ों से वर्षा ऋतु का जल धरती के अंक में पहुँचता है। यहीं जल अक्षय स्त्रोतों में गमन करके अपार जलराशि प्रदान करता है।
भारतीय संस्कृति और वृक्ष- भारत की सभ्यता वनों की गोद से ही विकासमान हुई है। हमारे ऋषि तथा मुनियों ने वृक्षों की छाया में बैठकर ही ज्ञान के भण्डार को मानव को सौंपा है। वनों को गोद मे ही गुरुकुलों की स्थापना की गयी थी। इन गुरुकुलों में अर्थशास्त्री, शासक, दार्शनिक तथा राष्ट्र निर्माता शिक्षा ग्रहण करते थे। इन्हीं वनों में आचार्य तथा ऋषि मानव के हित साधन के लिए अनेक सूत्रों को खोज करते थे। वनों की हरीतिमा पक्षियों का कलरव पुष्पों से आच्छादित लताएँ, भ्रमरों की गुंजार तथा तितलियों की अठखेलियाँ मानव-मन को सहज ही अपनी ओर आकर्षित कर लेती हैं।
वनों से लाभ-वनों से हमें भवन निर्माण की सामग्री मिलती है। औषधियाँ जड़ी-बूटियाँ, गोंद, वास तथा जानवरों का चारा वनों से ही प्राप्त होता है। वृक्ष वर्षा में भी सहायक हैं। रंग तथा कागज का स्रोत भी वन हैं। वन तापमान को सामान्य बनाने में सहायक हैं। ये मिट्टी के कटाव पर अंकुश लगाते हैं। दूषित वायु को ग्रहण करके शुद्ध एवं जीवनदायक वायु हमें प्रदान करते हैं। मानव की जिन्दगी के लिए जितनी वायु तथा जल
अपरिहार्य हैं, उतने वृक्ष भी आवश्यक हैं। तुलसी, पीपल तथा वटवृक्ष कोटि-कोटि मानवों के श्रद्धा पात्र हैं। वृक्षों के कटने से हानियाँ- आज मानव भौतिक प्रगति हेतु आतुर है। वह वृक्षों को अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए निष्ठुरता से काट रहा है। औद्योगिक प्रतिस्पर्धा तथा जनसंख्या वृद्धि के फलस्वरूप वनों का क्षेत्रफल दिन-प्रतिदिन घटता चला जा रहा है। वृक्षों पर चहचहाने वाले पक्षियों का कलरव समाप्त सा हो चला है। पक्षी प्राकृतिक सन्तुलन स्थिर रखने के प्रमुख कारक हैं।
वृक्षारोपण कार्यक्रम वृक्षारोपण के महत्व को भूतपूर्व केन्द्रीय खाद्य मन्त्री श्री कन्हैयालाल माणिकलाल मुशी ने स्वीकारा था। इसके पश्चात् इस कार्यक्रम को दिन-प्रतिदिन विस्तृत किया जाता रहा है।
उपसंहार- आज हमारे देशवासी वन तथा वृक्षों की महत्ता को एक स्वर में स्वीकार कर रहे हैं। वन महोत्सव हमारे राष्ट्र को अनिवार्य आवश्यकता है। देश को समृद्धि में वृक्षों का अपूर्व योगदान है। ये आर्थिक उन्नति के साधन हैं। इसलिए राष्ट्र के हर नागरिक का यह कर्त्तव्य बनता है कि वह वृक्षों को लगाकर धरती को हरा-भरा बनाये।
- साहित्य और समाज
[ रूपरेखा (1) प्रस्तावना (2) साहित्य एवं समाज का सम्बन्ध (3) साहित्य में अद्वितीय क्षमता,(4) साहित्य का उद्देश्य (5) उपसंहार ।।
प्रस्तावना – साहित्य के कलेवर में मनुष्य की भावनाओं एवं विचारों का अंकन समाहित होता है। महावीरप्रसाद द्विवेदी के शब्दों में ज्ञान राशि का कोप का नाम साहित्य है। साहित्य एवं समाज का सम्बन्ध समाज एवं साहित्य में अटूट सम्बन्ध है। साहित्य का आधार मानव जीवन है महान साहित्यकारों ने भी इसी के प्रकाश में साहित्य के कलेवर को समृद्ध किया है। लेखक सृजन की प्रेरणा भी समाज से ग्रहण करता है। युग की तथा समाज की परिस्थितियों के अनुकूल साहित्य में परिवर्तन के स्वर ध्वनित होते हैं। दगीन समस्या पर्व का निराकरण करके साहित्य समाज को परिष्कृत करता है। साहित्य में अद्वितीय क्षमता-साहित्य की क्षमता के समक्ष तोप-तलवार एवं बम की शक्ति भी बाँनी प्रतीत होती है। साहित्य समाज का दर्पण है। साहित्य समाज के लेखा-जोखा का चित्रण है, समाज का सच्चा प्रारूप है। साहित्य का उद्देश्य-आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने मानव को ही साहित्य का उद्देश्य ठहराया है। उपसंहार- निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि साहित्य एवं समाज का अटूट सम्बन्ध है। जब-जब समाज दिग्भ्रमित होता है तब साहित्यकार समाज को एक गति तथा राह दिखाता है। बुराइयों का उन्मूलन करके अच्छे संस्कारों एवं भावों को पल्लवित करता है। साहित्य के अभाव में उन्नत समाज की कल्पना करना निराशामात्र है। साहित्य वर्तमान का प्रारूप है। मानव के सनातन मूल्यों की प्रतिष्ठा करने वाला है, भविष्य का मार्गदर्शक है तथा अतीत का प्रेरक व्याख्याता है।
- जीवन में खेलों का महत्त्व
अथवा
जीवन और खेल “जीवन की नीरसता में रस भर देते।
[ रूपरेखा (1) प्रस्तावना (2) व्यस्त जीवन एवं खेल (3) खेलों का महत्व (4) उपसंहार।।
प्रस्तावना मानव प्रातः से सायंकाल तक कार्य में जुटा रहता है। निरन्तर कार्य के बोझ से वह घुटन एवं बेचैनी का अनुभव करता है। उसकी इच्छा होती है कि वह कुछ समय अवकाश के क्षणों में ऐसा साधन अपनाये जिसके माध्यम से उसके मन मस्तिष्क को शान्ति मिले तथा उल्लास से हृदयतन्त्री के तार झंकृत हो उठे। इसका सर्वोत्तम साधन खेलों को ठहराया गया है। व्यस्त जीवन एवं खेल-आज मानव का जीवन इतना व्यस्त है कि वह प्रातः से लेकर शाम तक किसी न किसी कार्य में व्यस्त रहता है। रोजी-रोटी की समस्या के कारण दिन-प्रतिदिन चिन्तित रहता है। चिन्ता तथा आवश्यकता से अधिक श्रम उसे कमजोर बना देता है। ऐसी स्थिति में पुनः शक्ति प्राप्त करने के लिए किसी-न-किसी प्रकार का खेल अथवा व्यायाम अपेक्षित है। खेल का मन तथा मस्तिष्क से घनिष्ठ सम्बन्ध है। खेल के मैदान में उतरने पर मन प्रसन्नता से भर उठता है। खेलों का महत्त्व-खेल से मन बहलाव के साथ-साथ हमारे समय का भी अच्छा उपयोग होता है। खेल से मानव में नयी स्फूर्ति तथा शक्ति का संचार होता है। खेल आपस के बैर भाव को भुलाकर ऐसी एकता का प्रदर्शन करते हैं जो देखते ही बनती है। खेल हमें अनुशासन का पाठ पढ़ाते हैं। संगठन तथा एकता का विकास भी खेलों के माध्यम से होता है। खिलाड़ी हमारे देश का नाम रोशन करते हैं। खेल इंसान को रोजी-रोटी में सहायक हैं। खिलाड़ी प्रतिपल चुस्ती तथा स्फूर्ति का अनुभव करता है। वह प्रत्येक कार्य को चाहे वह शरीर से सम्बन्धित हो अथवा मस्तिष्क से उसे तुरन्त पूरा कर लेता है।
उपसंहार- निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि जीवन में खेलों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसमें जरा भी शंका की गुंजाइश नहीं है। कुछ लोगों की यह धारणा गलत है कि खेलों में समय नष्ट होता है अत: खेलों का शिक्षा के साथ तालमेल उपयुक्त नहीं है। खेल बालक के शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक उत्थान के प्रमुख स्रोत हैं।
- जल ही जीवन है
अथवा
बिन पानी सब सून
[ रूपरेखा (1) प्रस्तावना, (2) जल के विभिन्न कार्य (3) जल के प्रमुख स्रोत (4) उपसंहार ।। प्रस्तावना- जल मानव जीवन के लिए अनिवार्य तत्त्व है। जल के अभाव में प्राणियों की कल्पना तक नहीं की जा सकती। कविवर रहीम ने ठीक ही कहाहै “रहिमन पानी राखिए बिनु पानी सब सून पानी गए न ऊबरे मोती मानुष चून ॥
जल के विभिन्न कार्य-जल से धरती पर खेती लहलहाती हुई दिखाई देती है। नदी, तालाब एवं नहरें जल का ही वरदान हैं। यदि समय पर वर्षा न हो तो धरती का आँचल सूख जायेगा, वृक्ष मुरझा जायेंगे। जीव-जन्तु असमय ही अपने प्राणों का त्याग कर देंगे। कल्पना कीजिए उस समय की, जब जल का अभाव हो जाता है एवं सूखे की स्थिति उत्पन्न हो जाती है तो न जाने कितने प्राणी असमय ही काल के गाल में समा जाते हैं। प्राणी अन्न के अभाव में तो कुछ दिन जीवित रह सकता है, लेकिन जल के बिना उसकी वही दशा हो जाती है जैसी कि पानी के बिना मछली की।
जल के प्रमुख स्रोत-तालाब, कुएँ, नहरें एवं झरने जल के प्रमुख स्रोत हैं। आज वैज्ञानिकों ने जल प्राप्त करने के अनेक कृत्रिम स्रोतों का भी आविष्कार किया है। उपसंहार- निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि जल ही जीवन है। हमारे प्राणों का आधार है। धरती को हरा-भरा एवं फलता-फूलता रखने का प्रमुख साधन जल ही है। भगवान इन्द्र देव प्रसन्न होकर सबको यथोचित जल प्रदान करें तभी सृष्टि हरी-भरी होगी।
- समाचार पत्र
अथवा
समाचार पत्रों का महत्त्व / की उपयोगिता
[ रूपरेखा (1) प्रस्तावना (2) जन्म तथा विकास (3) समाचार पत्रों के प्रकार (4) समाचार पत्रों की आवश्यकता (5) समाचार पत्रों का दायित्व (6) समाचार पत्रों की शक्ति (7) उपसंहार ।
। प्रस्तावना वर्तमान समय में समाचार पत्रों का महत्त्व निर्विवाद है। समाचार पत्र ही वह सबसे प्रबल साधन है जिसके द्वारा हम विश्व की गतिविधियों का ब्यौरा अपने घर पर ही बैठकर आसानी से प्राप्त कर लेते हैं। जन्म तथा विकास- समाचार पत्रों का जन्म सर्वप्रथम इंग्लैण्ड में सत्रहवीं शताब्दी में ठहराया गया है। भारत में सबसे पहला समाचार पत्र ‘इण्डिया गजट’ के नाम से प्रकाशित हुआ। ईसाइयों ने अपने धर्म के प्रचार के लिए समाचार पत्र छापने शुरू किये। मुद्रण कला के आविष्कार के साथ ही समाचार पत्रों का विस्तार होता गया। आज समाचार पत्र देश-विदेश में होने वाली घटनाओं से जनसामान्य को प्रवुद्ध तथा जागरूक बना रहे हैं। समाचार पत्रों के प्रकार- समाचार पत्र के कई प्रकार होते हैं, जैसे- दैनिक साप्ताहिक तथा मासिक । सभी समाचार पत्र विश्व में होने वाली घटनाओं की अधिकाधिक जानकारियाँ देते हैं। समाचार पत्रों की आवश्यकता मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। इस कारण वह समाज में होने वाली दिन-प्रतिदिन की घटनाओं को जानने के लिए उत्सुक रहता है। इन सबके बारे में समाचार पत्र ही एक ऐसा सशक्त साधन है जिसके द्वारा जानकारी हासिल की जा सकती है। सरकार तथा जनता के मध्य की कड़ी समाचार पत्र ही होते हैं। सरकार की नीति तथा विचारों को हम समाचार पत्र के माध्यम से ही जान सकते हैं। जनता के आक्रोश को सरकार तक पहुँचाने का माध्यम समाचार पत्र ही हैं। समाचार पत्रों का दायित्व- समाचार पत्रों का सबसे बड़ा उत्तरदायित्व शक्तिसम्पन्न होने पर भी सन्तुलित एवं मर्यादित होना चाहिए। समाचार पत्रों को जनसामान्य का भली प्रकार दिशा निर्देश करना चाहिए। समाचार पत्रों की शक्ति- समाचार पत्र किसी भी समस्या को लेकर जनता को प्रबुद्ध तथा जागरूक बनाकर सरकार से उसकी बात को स्वीकार करने के लिए विवश कर सकते हैं। उपसंहार आज मानव की जिज्ञासा प्रवृत्ति प्रतिपल नूतन दिशा की ओर अग्रसर है। मानव के लिए इस दिशा में समाचार पत्रों का महत्त्वपूर्ण योगदान है। कष्टप्रद स्थिति तब सामने आती है जब समाचार पत्र अपने स्तर से गिरकर लोभ के वशीभूत होकर गलत समाचारों का प्रकाशन कर देते हैं। इस ओर विशेष ध्यान केन्द्रित करने की आवश्यकता है। ये उन्नति के सन्देशवाहक हैं।
- पर्यावरण प्रदूषण
अथवा
प्रदूषण की समस्या
“अपनी हालत का कुछ अहसास नहीं मुझको। मैंने औरों को सुना है कि परेशाँ हूँ मैं।”
[ रूपरेखा (1) प्रस्तावना, (2) प्रदूषण का अभिप्राय (3) प्रदूषण के प्रकार, (4) प्रदूषण की रोकथाम, (5) उपसंहार ।।
प्रस्तावना – पर्यावरण प्रदूषण आज समस्त विश्व के लिए चुनौती बन रहा है। इस समस्या का अविलम्ब निराकरण होना परमावश्यक है। आज आकाश विषाक्त हो गया है। धरती, वायु तथा जल दूषित हो गये हैं। अपनी सुख-सुविधाओं की सनक में आज का मानव प्राकृतिक सम्पदाओं का निरन्तर दोहन करता जा रहा है। वृक्ष काटे जा रहे हैं। यही कारण है कि आज का इंसान स्वच्छ वायु में साँस लेने के लिए भी तरस गया है। प्रदूषण का अभिप्राय- प्रदूषण से हमारा अभिप्राय है-वायु, जल एवं धरती की भौतिक, रासायनिक एवं जैविक विशेषताओं में अवांछनीय परिवर्तन द्वारा दोष पैदा होना। प्रदूषण के प्रकार प्रदूषण अनेक प्रकार से होता है, यथा
(1) वायु प्रदूषण- आजकल फैक्ट्री तथा कारखानों की चिमनियाँ रात दिन काला धुआँ उगल रही हैं। सड़क पर दौड़ते वाहन वातावरण में जहर घोल रहे हैं। सड़क पर चलना तथा घर पर रहना दूभर हो गया है। इंसान स्वयं की साँस में वायु से ऑक्सीजन ग्रहण करता है तथा कार्बन डाइ ऑक्साइड नामक गैस को छोड़ता है। पृथ्वी पर पौधे तथा वृक्ष इसे सोख लेते हैं।
(2) जल प्रदूषण आज फैक्ट्री तथा कारखानों द्वारा छोड़ा गया रासायनिक पदार्थ जल को दूषित बना रहा है। आज का जल । विषाक्त हो गया है जो मानव को बीमारियों तथा मौत की ओर अग्रसर कर रहा है।
(3) रेडियोधर्मी प्रदूषण-विस्फोटों के ढेर के रूप में रेडियोधर्मी कणों का विस्तार हो रहा है। इससे स्थान विशेष की वायु दूषित हो जाती है।
(4) ध्वनि प्रदूषण- आज मशीनों तथा वाहनों के कर्णभेदी शोर के मध्य में जैसे-तैसे हमको जीना पड़ रहा है। इससे स्नायुमण्डल पर विशेष प्रभाव पड़ रहा है। मानव प्रत्येक क्षण तनाव में जीता है। शान्ति उससे कोसों दूर है।
(5) रासायनिक प्रदूषण- आज रासायनिक खादों के प्रयोग से अन्न दूषित तथा स्वाद रहित हो गया है। यह मानव के स्वास्थ्य को भी चौपट किय डाल रहा है।
प्रदूषण की रोकथाम प्रदूषण पर नियन्त्रण लगाने की महतो आवश्यकता है। इसके लिए संगठित होकर प्रयास करना चाहिए। वृक्षों की रक्षा करके और नये वृक्ष लगाकर इस सकट से छुटकारा पाया जा सकता है। ये पर्यावरण को शुद्ध करते हैं। यातायात के द्वारा फैले प्रदूषण को बिजली से चलने वाले यन्त्र बनाकर रोक सकते हैं। नदियों के प्रदूषण को भी मनुष्य प्रयास करके रोक सकता है।
उपसंहार- पर्यावरण की सुरक्षा और उचित सन्तुलन के लिए हमें जागरूक होना पड़ेगा। वायु, जल, ध्वनि तथा पृथ्वी के प्रदूषण को नियन्त्रित कर धीरे-धीरे समाप्त करना चाहिए।
- राष्ट्रीय एकता और अखण्डता
[ रूपरेखा (1) प्रस्तावना (2) राष्ट्रीय एकता की कसौटी, (3) राष्ट्रीय एकता को खतरा, (4) एकता भंग करने के कारण (5) राष्ट्रीय एकता की आवश्यकता (6) उपसंहार।।
प्रस्तावना – राष्ट्र का निर्माण करने वाले तत्व-भूमि उस पर निवास करने वाले मनुष्य एवं उनकी संस्कृति हैं। भूमि के कण-कण से वहाँ के निवासियों को इतना प्यार होता है कि वे उसके लिए अपना सब कुछ बलिदान कर देते हैं। यह आवश्यक नहीं है कि राष्ट्र के निवासी समान धर्म, जाति तथा संस्कारों वाले हों। उनकी संस्कृति में भी थोड़ा बहुत अन्तर हो सकता है, किन्तु आवश्यकता इस बात की है कि वे अपने राष्ट्र के लिए मिलकर कार्य करें। आर्थिक एवं सांस्कृतिक विकास करते हुए उसकी शक्ति को बढ़ायें भिन्नताओं के मध्य एकता स्थापित करके राष्ट्रीय धारा का अंग बनें। राष्ट्रीय एकता की कसौटी-राष्ट्रीय एकता की परख नित्यप्रति के व्यवहारों से होती है। व्यक्तिगत स्वार्थ सम्मान आदि से प्रेरित होकर हम राष्ट्र को तोड़ते हैं या कमजोर बनाने वाले कार्य करना ही राष्ट्र-द्रोह है तथा समाजहित को ध्यान में रखकर राष्ट्र को जोड़ने तथा शक्तिशाली बनाने वाले कार्य राष्ट्रभक्ति कहलायेंगे। सच्चा राष्ट्रभक्त अपने देश पर सर्वस्व वलिदान कर देने को सदैव तैयार रहता है। राष्ट्रीय एकता को खतरा आज भारत में राष्ट्रीय एकता को खतरा हो गया है। यहाँ धर्म, जाति, सम्प्रदाय भाषा आदि के नाम पर बिखराव के स्वर सुनायी पड़ने लगे हैं। इनका प्रारम्भ अंग्रेजों की कूटनीति से हुआ। उन्होंने भारत को आजादी देने से पूर्व हिन्दू मुस्लिम द्वेष के बीज बो दिये। इसी के परिणामस्वरूप पाकिस्तान बना साम्प्रदायिक विद्रोह हुए तथा अपार जन-धन की हानि हुई। एकता भंग करने के कारण-धर्म के दुरुपयोग से भी राष्ट्रीय एकता प्रभावित हुई है। धर्मान्ध, स्वार्थी मौलवियों, पण्डो-पुजारियों का भी इस दिशा में असहयोगी व्यवहार रहा है। वोट की राजनीति ने राष्ट्रीय एकता को नष्ट किया है। जाति, भाषा, क्षेत्र आदि के आधार पर वोट प्राप्त करने के प्रचार के फलस्वरूप वर्षों से प्रेमपूर्वक रहने वालों में कलह फैल गयी है। राष्ट्रीय एकता की आवश्यकता भारत की सुरक्षा तथा प्रगति के सुसंचालन हेतु राष्ट्रीय एकता की बहुत आवश्यकता है। भारत को स्वतन्त्र बनाने वाले शहीदों ने । स्वप्न संजोया था उसको साकार करने के लिए क्षेत्र, भाषा, धर्म, जाति, वर्ग आदि को संकुचित सीमाओं से मुक्त होकर समस्त राष्ट्र के उत्थान के कार्य करने होंगे। व्यक्तिगत स्वार्थों को त्यागकर समाज हित का ध्यान रखना होगा। राष्ट्र को कमजोर बनाने वाली विद्रोही शक्तियों को मुँहतोड़ जवाब देने के लिए कमर कसनी होगी। उपसंहार- संघे शक्तिः कलौयुगे अथात् कलियुग में संघ में शक्ति है। इसी को हम कह सकते हैं-‘एकता में बल’। यह एकता राष्ट्र के निवासियों के आन्तरिक सद्भाव से ही सम्भव है। व्यक्ति को स्वयं की चिन्ता त्यागकर राष्ट्र की चिन्ता होगी। भारत के समस्त भू-भाग को हृदय से प्यार करना होगा। समाज में धार्मिक कटुता तथा वैमनस्यता के स्थान पर सामंजस्यता तथा सहनशीलता का संचार हो राष्ट्रध्वज, राष्ट्रगान, राष्ट्रीय संविधान, राष्ट्रभूमि तथा राष्ट्राध्यक्ष के प्रति आदर एवं समर्थन का भाव होना चाहिए। जननायकों को वोट का स्त्रार्थ त्याग देना चाहिए। किसान, व्यापारी, मजदूर कर्मचारी, शिक्षक, प्रशासक नेता आदि सभी को धर्म, सम्प्रदाय आदि की सीमाओं से ऊपर उठकर देश के प्रति अपने अशदान के बारे में सोचना होगा और प्राण पण से भारतवर्ष की उन्नति में अपनी सक्रिय भूमिका निभानी होगी।
- नारी शिक्षा का महत्त्व
[ रूपरेखा (1) प्रस्तावना (2) नारी शिक्षा का महत्व (3) नारी एवं शिक्षा-दीक्षा (4) शिक्षा पर ध्यान देना अपेक्षित (5) उपसंहार]
प्रस्तावना – शिक्षा का मानव जीवन से अटूट सम्बन्ध है। इसके अभाव में मानव जीवन की कहानी ही अधूरी है। आधुनिक युग में नारी की शिक्षा उतनी ही अपेक्षित है जिनती की पुरुष को शिक्षित नारी ही प्रगति की मंजिल पर चरण बढ़ा सकती है। नारी शिक्षा का महत्व – आज के व्यस्त एव संघर्षशील युग में नारी शिक्षा को अत्यन्त आवश्यकता है। शिक्षित नारी अपनी सन्तानों को सुसंस्कारों से सम्पन्न कर सकती है। बच्चों की पढ़ाई-लिखाई में समुचित योगदान करने में सहायक हो सकती है। घर-गृहस्थी के आय-व्यय को भली प्रकार सन्तुलित करके आर्थिक बोझ को बहुत सीमा तक सन्तुलित कर सकती है। शिक्षित नारी विपत्ति के बादल मँडराने पर नौकरी करके परिवार को संकट से उबार सकती है।बच्चों के लिए घर ही नागरिक बनने की प्रथम पाठशाला होता है। माता ही इस पाठशाला की शिक्षिका होता है। लोरी, पहली तथा गाना गुनगुनाते हुए माँ बच्चे को शिक्षा प्रदान करती है। उसका प्रभाव अमिट तथा स्थायी होता है। नारी एवं शिक्षा-दीक्षा-वर्तमान में देखें तो नारी के लिए हर प्रकार की शिक्षा अपेक्षित है। नारी के लिए सबसे प्रथम गृह विज्ञान की शिक्षा देना परमावश्यक है। नारी का कार्य क्षेत्र घर होता है। उसे परिवारके कार्यों को सम्पन्न करने के साथ ही बच्चों को भी देखना तथा सँभालना पड़ता है। गृह विज्ञान की शिक्षा इस दिशा में बहुत ही लाभदायक सिद्ध होगी। आज नारी घर की सीमा से बाहर निकल कर पुरुष के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर जीवन संग्राम में आगे कदम बढ़ा रही है। वह सामाजिक तथा राजनीतिक क्षेत्र में भी पुरुष के साथ सक्रिय भाग ले रही है। शिक्षा विज्ञान, चिकित्सा तथा सांस्कृतिक क्रिया-कलापों में भी उसके चरण निरन्तर गतिमान हैं। जीवन का ऐसा कोई भी क्षेत्र अछूता नहीं है जिसमें आधुनिक शिक्षित नारी सहभागिनी न हो। शिक्षा पर ध्यान देना अपेक्षित-दुर्भाग्य का विषय यह है कि आज भी नारी की शिक्षा का अनुपात उतना नहीं है जितना कि अपक्षित है। भारत की जनसंख्या निरन्तर सुरसा के मुख को तरह बढ़ता जा रही है। उसकी तुलना में भारत में शिक्षित नारियों को संख्या बहुत ही सीमित है। ग्रामीण अंचलों में आज भी अशिक्षित नारी जीवन के अभिशाप को विवशता की चट्टान के तले हाँफ-हाँफ कर जी रही है। दकियानूसी तथा रूढ़िवादी लोग इस और से आँखें बन्द किए हुए है। उन्हें जाग्रत करना आवश्यक है। उपसंहार-हर्ष का विषय है कि आज हमारे देश में नारी शिक्षा के महत्व को लोग समझ गए हैं। सरकार इस संदर्भ में आवश्यक कदम भी उठा रही है। सरकार के साथ-साथ जन-सहयोग होना भी समय की माँग है।
- विद्यार्थी जीवन अथवा आदर्श विद्यार्थी
[ रूपरेखा (1) प्रस्तावना (2) विद्यार्थी जीवन (3) आदर्श विद्यार्थी (4) आधुनिक विद्यार्थी, (5) सुधार अपेक्षित (6) उपसंहार
प्रस्तावना जीवन में प्रतिपल ही सीखने की प्रक्रिया चलती रहती है। विद्यार्जन के लिए उम्र का बन्धन बाधा नहीं पहुँचाता। परन्तु विद्यार्थी जीवन वह काल है जिसमें विद्यार्थी विद्यालय में रहकर विद्यार्जन करता है। इस विद्यार्जन की प्रक्रिया में एक क्रम होता है। जितनी अवधि तक विद्यार्थी विद्यार्जन करता है, उसका वह जीवन विद्यार्थी जीवन कहलाता है।विद्यार्थी जीवन-विद्यार्थी जीवन जिन्दगी का स्वर्णिम काल होता है। इसी जीवन में विद्यार्थी अपने भविष्य के जीवन की आधारशिला रखता है। यहीं से सुन्दर और दृढ जीवन की पड़ी आधारशिला (नीव) पर उस विद्यार्थी के भविष्य का भवन खड़ा हो पाता है जो बहुत ही आकर्षक होगा। विद्यार्थी जीवन में ही एक छात्र अपने शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक गुणों को विकास की एक दिशा प्रदान करता है। इन गुणों के विकसित होने पर ही वह विद्यार्थी एक ठोस व्यक्तित्व का धनी होता है। आदर्श विद्यार्थी-विद्यार्थी का जीवन किसी तपस्वी के जीवन से कम कठोर नहीं होता। माँ सरस्वती की कृपा प्राप्त करना बहुत ही कठिन है। विद्या कभी भी आराम से सुख से प्राप्त नहीं हो सकती। जीवन में संयम और नियमों के अनुसार चलना पड़ता है। विद्यार्थी के लक्षण “काक चेष्टा, बको ध्यानम् श्वान निद्रा तथैव च गृहत्यागी, अल्पाहारी, विद्यार्थी पंचलक्षणम्।।” उपर्युक्त पद्याश में बताए गए लक्षणों वाला विद्यार्थी अपने जीवन में सदैव सफल होता है। यह जीवन साधना और सदाचार का है। इनका पालन करने वाला ही आदर्श विद्यार्थी होता है। आधुनिक विद्यार्थी- आज हमारे देश की समाज व्यवस्था लड़खड़ा रही है। विद्यार्थी ने अपने जीवन
की गरिमा को भुला दिया है। विद्यार्थी के लिए स्कूल मौज-मस्ती का स्थल रह गया है। वह अब विद्यादेवी की आराधना का मन्दिर नहीं रह गया है। वह तो उसके मनोरंजन तथा समय काटने का स्थल भर रह गया है। विद्यार्थी में उद्दण्डता और असत्यता घर बनाए बैठी है। परिश्रम करने से अब वह पीछे हट रहा है। उसका लक्ष्य केवल अंक प्राप्त करना, धोखा देना और चालपट्टी रह गया है। वह अनुशासनहीन होकर ही अपना कल्याण करना चाहता है। उसने विनय, सदाचार और संयम को पूर्णतः भुला दिया है। विद्यार्थी ने स्वयं को कलंकित बना लिया है।
सुधार अपेक्षित – अनुशासनहीनता को दूर करने के लिए माता-पिता को बच्चों पर ध्यान देना चाहिए। विद्यालयों के वातावरण को सही बनाना चाहिए। अध्यापकों को विशेष रूप से विद्यार्थियों की प्रत्येक प्रक्रिया पर सख्त नजर रखनी होगी। उनके समक्ष अपने सद् आचरण का प्रभाव प्रस्तुत करना होगा।
उपसंहार- आज के विद्यार्थी कल के राष्ट्र के कर्णधार है। अतः इन्हें अपने अन्दर ऊँचे वैज्ञानिक के, ऊँचे विचारक के, ऊँचे चिन्तनकर्ता के महान् गुणों को अपने में विकसित करते हुए अपने अभिलषित लक्ष्य की ओर अग्रसर होना चाहिए। ज्ञानपिपासा श्रम विनय, संयम, आज्ञाकारिता सेवा सहयोग सह-अस्तित्व के गुणों को अपने अन्दर विकसित कर लेना चाहिए। विद्यार्थी एक आदर्श नागरिक बन कर राष्ट्र की सेवा करते हुए राष्ट्र धर्म का पालन कर सकने में समर्थ होते हैं।
- आधुनिक भारत में नारी अथवा भारतीय समाज में नारी का स्थान
[ रूपरेखा – (1) प्रस्तावना (2) प्राचीन काल में नारी (3) मध्य युग में नारी (4) आधुनिक युग में नारी (5) पाश्चात्य सभ्यता (6) उपसंहार ||
प्रस्तावना – नारी के बिना मानवता की कल्पना तक करना असम्भव है। वह माता, बेटी, पत्नी, देवी एवं प्रेयसी आदि रूपों से विभूषित है। नारी के बिना मानव अपूर्ण है। मानव पर उसका अमूल्य उपकार है। वह पुरुषों की सहभागिनी है, जीवनसंगिनी है।प्राचीन काल में नारी- वैदिक काल में नारी का महत्वपूर्ण स्थान था आध्यात्मिक एवं धार्मिक क्षेत्र में भी नारी की भूमिका अग्रणी थी सीता, अनसूया. गार्गी एवं सावित्री इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। इनके नाम इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखे हुए हैं। मध्य युग में नारी-मध्ययुग में नारी के गौरव का ह्रास हुआ। कबीर, तुलसी आदि सन्तों ने भी नार को विकार एवं ताड़ना का पात्र ठहराया। मुसलमानों के अत्याचारों के फलस्वरूप उसे मकान की चारदीवारी
में कैद कर दिया गया। आधुनिक युग में नारी- राष्ट्रीय एवं सामाजिक चेतना जाग्रत होने के कारण वर्तमान में नारी की दशा में आशातीत सुधार हुआ है। राजा राममोहन राय एवं दयानन्द सरस्वती ने भारतीय नारी को पुरुष के समकक्ष
होने के अधिकार से सम्पन्न कराया। उसके लिए शिक्षा के द्वार खोले। आज की नारी उन्मुक्त होकर पुरुष के साथ कदम से कदम मिलाकर प्रतिपल उन्नति की मंजिल की ओर अग्रसर है। इन्दिरा गांधी, कमला नेहरू, सरोजिनी नायडू महादेवी वर्मा एवं कल्पना चावला इसके ज्वलन्त उदाहरण हैं।
पाश्चात्य सभ्यता- पाश्चात्य सभ्यता के फलस्वरूप आज भारतीय नारी अपने प्राचीन आदर्शों और मान्यताओं को तिलांजलि दे रही है। भोग-विलास, मौज मस्ती एवं ‘खाओ पिओ मौज उड़ाओ’ के कुपथ का अनुगमन कर रही है। करुणा, ममता, कोमलता एवं स्नेह को त्यागकर अपनी छवि को धूमिल कर रही है। आर्थिक दृष्टि से स्वतन्त्र होने की वजह से नारी आज विलासिता की ओर उन्मुख है। उपसंहार अतः आज इस बात की परम आवश्यकता है कि भारतीय नारी को वर्तमान परिप्रेक्ष्य में पाश्चात्य सभ्यता का अंधानुकरण न करके प्राचीन उत्तम आदर्शों एवं मान्यताओं को स्वीकार करना चाहिए। ऐसा होने पर वह ऐसा स्थान प्राप्त कर सकेगी जो देवों के लिए भी दुर्लभ है।
- किसी खेल का आँखों देखा वर्णन- क्रिकेट मैच
अथवा
एक आकर्षक मैच
रूपरेखा (1) प्रस्तावना (2) मैच का अर्थ (3) मैच खेलने का निश्चय (4) क्रीड़ा स्थल पर, (5) मैच का शुरू होना, (6) हार-जीत की होड़, (7) खेल का समापन (8) उपसंहार]
प्रस्तावना छात्र तथा छात्राओं के मन-मानस में खेल के प्रति उत्कंठा तथा ललक एक स्वाभाविक प्रक्रिया है।
मैच का अर्थ- खेल व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक है। इसी हेतु विभिन्न प्रकार के खेलों का अस्तित्व मानव के समक्ष प्रकट हुआ। खेलों के माध्यम से खिलाड़ियों को एक उत्साह मिलता है। इसी बात को दृष्टिपथ में रखकर प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जाता है। खेल की प्रतियोगिता को ही मैच के नाम से सम्बोधित किया जाता है।
मैच खेलने का निश्चय – विगत वर्ष जनवरी के प्रथम सप्ताह में प्रिंसिपल महोदय ने क्रीड़ाध्यक्ष के
माध्यम से यह आदेश प्रसारित किया कि 20 जनवरी को हमारे कॉलेज की टीम स्थानीय विक्टोरिया इण्टर कॉलेज की टीम से मैच खेलेगी। क्रीड़ा-स्थल पर- 20 जनवरी को करीब 9 बजे मैं क्रीड़ा-स्थल पर जा पहुँचा। मैच शुरू होने में अभी एक घण्टा शेष था इसी अन्तराल में दो निर्णायक क्रीड़ा-स्थल पर पधारे। इसी मध्य दोनों कॉलेजों की टीमें अपनी साज-सज्जा के साथ उपस्थित हुई। मैच का शुरू होना- दोनों टीमों के कप्तान तथा मैच निर्णायक मैदान के मध्य में स्थित खेल पट्टी के पास खड़े होकर ‘टॉम’ करने लगे। हमारे विद्यालय के कप्तान ने ‘टॉस’ जीता और पहले बल्लेबाजी करने का निर्णय लिया। हमारे दल के प्रारम्भिक बल्लेबाज अपने खेल का प्रदर्शन करने के लिए तैयार थे।
हार-जीत की होड़-क्रिकेट खेल का तो रोमांच ही निराला है। गेंद-बल्ले के इस खेल के सभी आयु वर्ग के लोग दीवाने होते हैं। हमारे बल्लेबाजों ने शुरू से ही तेज गति से रन बनाने प्रारम्भ कर दिये। दोनों ने मिलकर बिना आउट हुए 10 ओवरों में 60 रन कूट डाले, लेकिन विपक्षी दल के गेंदबाज राकेश ने घातक गेंदबाजी करते हुए अपने दो लगातार ओवरों में हमारे तीन बल्लेबाजों को आउट कर दिया। अब हमारा स्कोर हो गया 72 रन पर तीन विकेट अब खेलने के लिए हमारे दल का कप्तान मैदान में आया और आते हो पहली गेंद पर उसने शानदार छक्का जड़ा। धीरे-धीरे मैच के रोमांच के साथ-साथ हमारे विद्यालय की पारी भी आगे बढ़ने लगी। कुल मिलाकर हमारे विद्यालय के दल ने अपने कोटे के 30 ओवरों में 150 रन बनाये और विपक्षी दल को जीत के लिए 151 रन बनाने की चुनौती दी।
दर्शक बहुत ही आनन्द का अनुभव कर रहे थे। आधा घण्टे के विश्राम एवं अल्पाहार के पश्चात् विक्टोरिया इण्टर कॉलेज की टीम खेलने आयी। उन्होंने खेल का प्रारम्भ बहुत ही अच्छे तरीके से किया प्रथम 9 ओवरों में उनके 40 रन बने।यद्यपि हमारी टीम के गेंदबाज बहुत हो चतुर तथा जाने-माने थे, लेकिन इस समय वह लाचार से दृष्टिगोचर हो रहे थे। अब हमारे स्पिनरों ने गेंदबाजी के गुरुतर भार को उठाया। उन्होंने तेजी से विपक्ष के तोन खिलाड़ी जल्दी-जल्दी आउट कर डाले। वे अब तक मात्र 96 रन बना पाये थे। चौथे तथा पाँचवें खिलाड़ी भी स्पिनर अजय ने आउट कर दिये। विपक्षी हताश हो गये और मात्र 25 ओवरों में ही उनकी टीम कुल 117 रन बनाकर आउट हो गयी।खेल का समापन- खेल समाप्ति के पश्चात् पुरस्कार वितरण का आयोजन किया गया। हमारे कॉलेज के खिलाड़ी क्रम से उत्साहित होकर पुरस्कार ग्रहण करने के लिए जा रहे थे। हमारे दल के कप्तान ने कार्यक्रम के मुख्य अतिथि जिला विद्यालय निरीक्षक से हाथ मिलाकर चल बैजयन्ती ग्रहण की समस्त खिलाड़ियों तथा उपस्थित जन समूह ने ताली बजाकर प्रसन्नता व्यक्त की उत्साहवर्धन के लिए विपक्ष के खिलाड़ियों को भी सान्त्वना पुरस्कार प्रदत्त किये गये।उपसंहार- खेल का महत्व इसलिए भी है कि इससे खेल की भावना का विकास होता है। यह भावना हमें खुशी के साथ जीने का सम्बल देगी। सहयोग, मैत्री तथा सद्भाव का पाठ इन खेलों के माध्यम से ही प्राप्त होगा। यह आज के युग की महती आवश्यकता है।
- नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति
[ रूपरेखा (1) प्रस्तावना (2) नवीन शैक्षिक ढाँचा तथा पाठ्यक्रम (3) पूर्व प्राथमिक वर्ग, (4) प्राथमिक वर्ग, (5) माध्यमिक वर्ग, (6) सेकण्डरी वर्ग, (7) उच्च शिक्षा (8) उल्लेखनीय विन्दु, (9) उपसंहार ।।
प्रस्तावना- किसी देश की उन्नति का आधार उस देश की शिक्षा नीति होती है। भारत में चाँतीस वर्ष बाद नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति घोषित हो गई है। नवीन शैक्षिक ढाँचा तथा पाठ्यक्रम-नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में वर्ष 5-3-3-4 के तहत शैक्षिक ढाँचे तथा पाठ्यक्रम को बाँटा गया है। पूर्व प्राथमिक वर्ग- इसमें तीन वर्ष से आठ वर्ष तक के बच्चे शामिल होंगे, जिन्हें बुनियादी शिक्षा दी जाएगी। नर्संरी, के. जी. तथा यू. के. जी. में ऐसा पाठ्यक्रम रहेगा कि बच्चे खेल-खेल में पढ़ना सीख जाएँ। इसके बाद कक्षा एक और कक्षा दो की पढ़ाई कराई जाएगी।
प्राथमिक वर्ग-इस वर्ग में आठ से ग्यारह वर्ष के बालक तीसरी, चौथी तथा पाँचवों की पढ़ाई करेंगे। इसमें प्रयोगों के द्वारा गणित, विज्ञान और कला की शिक्षा दी जाएगी।
माध्यमिक वर्ग-इसमें ग्यारह से चौदह वर्ष के बालक छठी सातवीं तथा आठवीं कक्षाओं में अध्ययन के साथ ही कौशल विकास तथा स्थानीय दस्तकला का ज्ञान प्राप्त करेंगे। सेकण्डरी वर्ग-इसमें कक्षा नौ से बारहवीं तक की पढ़ाई कराई जाएगी जिसमें विद्यार्थियों को अपनी इच्छा के अनुसार विषय चुनने की आजादी होगी। रटने से बचकर ज्ञान प्राप्ति पर बल दिया जाएगा। विद्यार्थी को बहुविषयक जानकारी दी जाएगी। उच्च शिक्षा-स्नातक स्तर चार वर्ष का होगा। तकनीकी शिक्षण के साथ कला तथा मानविकी की पढ़ाई भी कर सकेंगे। चिकित्सा, इंजीनियरिंग, विधि आदि की शिक्षा आवश्यकताओं के अनुरूप व्यवस्थित ढंग से दी जाएगी। तीन वर्ष के बाद भी डिग्री दे दी जाएगी। शोध आदि को आवश्यकताओं के अनुसार बढ़ावा दिया जाएगा। उल्लेखनीय बिन्दु – (1) पाँचवीं तक मातृभाषा में शिक्षा दी जाएगी। (2) कक्षा छ: से ही कौशल विकास तथा व्यावसायिक शिक्षा प्रारम्भ कर दी जाएगी। (3) प्रतिभाशाली विद्यार्थियों के लिए विशेष प्रावधान होंगे। (4) बुनियादी शिक्षा पर जोर रहेगा। (5) विद्यार्थियों को दबाव से छुटकारा दिलाया जाएगा (6) सरकारी तथा निजी विद्यालयों में समान नियम, शुल्क आदि होंगे। (7) बच्चों को विषय चुनने को आजादी होगी। (8) अध्यापकों को पढ़ाने के अतिरिक्त अन्य कार्य नहीं दिए जाएँगे। (9) त्रिभाषा में राज्य ही भाषा का चयन करेंगे। उपसंहार-यह शिक्षा नीति सुविचारित शिक्षा व्यवस्था की दृष्टि से प्रारम्भ की जा रही है। विश्वास है
इसके परिणाम लाभकारी तथा देशहित में होंगे।कुछ निबन्धों की विस्तृत रूपरेखा
- इक्कीसवीं सदी का भारत
( 1 ) प्रस्तावना – 21वीं सदी का भारत विश्व का अग्रणी राष्ट्र होगा। उसमें सर्वत्र सुख-समृद्धि का साम्राज्य होगा। आन्तरिक एवं बाह्य दोनों प्रकार से सुदृढ़ एवं सुरक्षित शक्ति सम्पन्न राष्ट्र होगा।
(2) अग्रणी विकासशील देश-भारत संसार के विकासशील देशों में अग्रणी होगा।
(3) सुदृढ़ व्यवस्था सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक दृष्टि से भारत सुदृढ़ राष्ट्र होगा।
(4) समुन्नत शिक्षा-दीक्षा शिक्षा, तकनीक आदि दृष्टियों से भारत समुन्नत राष्ट्र होगा।
(5) सम्पन्न राष्ट्र – 21वीं सदी में भारत संसार का सबसे सम्पन्न राष्ट्र होगा।
(6) उपसंहार- 21 वीं सदी का भारत सही अर्थों में भारतीय आदर्शों के अनुरूप होगा, इसमें अपने देश, भाषा, संस्कृति आदि होंगे। ऊँच-नीच, छुआछूत आदि का वहाँ नाम भी न होगा। हर हाथ को काम होगा तथा हर चेहरे पर मुस्कान होगी। यहाँ के निवासी मन, वचन, कर्म की एकरूपता से प्रेरित सद्गुणों को अपनाने वाले होंगे। मेरे सपनों का भारत महान देश होगा।
- भारतीय किसान
( 1 ) प्रस्तावना – कृषि प्रधान भारत के किसान का परिचय और उसका जीवन स्तर
(2) कड़ी मेहनत तथा सीमित साधन-दिन-रात एक करके परिवार के सभी सदस्य खेती में अन्न पैदा करते हैं।
(3) किसान जीवन की समस्याएँ-गरीबी, पानी की कमी, साधनों की कमी, औजारों की कमी का उल्लेख पैदावार की उचित कीमत नहीं मिलती।
(4) शासकीय सहायता का अभाव-निर्धन किसान को खेती के उपकरणों, बीज, खाद आदि के लिए सहायता नहीं मिलती. यदि मिलती है तो बहुत कठिनाई के बाद।
(5) किसान समस्याओं का समाधान- (1) किसानों को कृषि उपकरणों, बीज, खाद आदि के लिए ऋण सुलभ किया जाए,
(2) खेती लागत के अनुसार पैदावार का मूल्य निर्धारित किया जाए।
(3) पैदावार को खरीदने के लिए क्रय केन्द्र पर्याप्त मात्रा में चलाए जाएँ।
( 6 ) उपसंहार- कृषि प्रधान देश की रोड़ किसान हैं। किसान दुःखी तो देश दुःखी। इसलिए किसान को सभी सुविधाएँ सुलभ कराई जाएँ।
- मनोरंजन के साधन
(1) प्रस्तावना – मनोरंजन की आवश्यकता एवं महत्व।
(2) मनोरंजन के साधन- खेल-कूद, सिनेमा, सर्कस, रेडियो, जादूगर, नाटक, संगीत, नृत्य आदि।
(3) यात्रा, भ्रमण मेले सास्कृतिक, धार्मिक यात्रा. रमणीक स्थलों का भ्रमण तथा समय-समय पर लगने वाले मेलों में पहुँचकर आनन्द लेना।
(4) आधुनिक साधन-मोबाइल, कम्प्यूटर इण्टरनेट आदि।
(5) मनोरंजन के लाभ-मानसिक तथा शारीरिक आनन्द मिलता है। थकान दूर होती है तथा कार्य करने की क्षमता बढ़ती है।
(6) उपसंहार- मनोरंजन जीवन में खुशियों का संचार करता है तथा तन-मन को स्वस्थ बनाता है।
- किसी यात्रा का वर्णन
(1) प्रस्तावना – यात्रा की आवश्यकता तथा यात्रा के स्थान का चुनाव (2) यात्रा की तैयारियाँ-स्थान तथा मौसम के हिसाब से यात्रा के सामान वस्त्र आदि की तैयारी ! यात्रा की तिथियाँ निश्चित करना।
(3) यात्रा के साधन- यात्रा के हिसाब से साधन का चुनाव करना यदि जहाज, रेलगाड़ी आदि से जाना हो तो आरक्षण कराना।
(4) यात्रा का प्रारम्भ-यात्रा के निकलने का वर्णन, साधन आदि का उल्लेख
(5) मार्ग दृश्य आदि का आनन्दमाग में जाते समय पड़ने वाले स्थानों, दृश्यों, पेड़-पौधों, नदियों पर्वत, वन आदि के रोचक दृश्यों का वर्णन।
(6) यात्रा के स्थान का वर्णन-जहाँ की यात्रा पर गए वहाँ सौन्दर्य, स्थिति दृश्य आदि का उल्लेख । ( 7 ) वापसी का वर्णन- लौटते समय के मार्ग दृश्यों घटनाओं आदि का उल्लेख
(8) उपसंहार-स्मरणीय यात्रा के अनुभवों का उल्लेख
- वसंत ऋतु
(1) प्रस्तावना – विभिन्न ऋतुओं वसंत ऋतु के महत्व का उल्लेख।
(2) वसंत ऋतु का प्राकृतिक वैभव- हरियाली, रंग-बिरंगे फूल, फल, वृक्षों की शोभा, मुगन्धित हवा तथा मनोरम
वातावरण का वर्णन।
(3) उल्लास तथा आनन्द – वसंत के मदमाते मौसम में हृदय में उमड़ने वाले हर्ष उल्लास का वर्णन।
(4) स्वास्थ्यप्रद ऋतु – सदी न गर्मी समशीतोष्ण मौसम वाली वसंत ऋतु स्वास्थ्यवर्द्धक होती है।
(5) सभी ऋतुओं में श्रेष्ठ भारत की सर्दी, गर्मी वर्षा, शरद एवं हेमन्त ऋतुओं में से वसंत ऋतु सुखद, आनन्ददायक तथा मनोरम होती है।
(6) उपसंहार – वसंत ऋतु की महिमा का वर्णन |
- गंगा की आत्मकथा
(1) प्रस्तावना विभिन्न नदियों में गंगा की महिमा का उल्लेख ।
(2) गंगा का अवतरण-ब्रह्मा जी के कमण्डल से शिवजी की जटाओं में होकर हिमालय के शिखरों से पृथ्वी पर प्रकट हुई।
(3) गंगा सम्बन्धी लोक मान्यताएँ- धार्मिक, सांस्कृतिक तथा सामाजिक
(4) गंगा के जल की महिमा-गंगा स्नान का महात्म्य आदि।
(5) गंगा प्रदूषण प्रदूषित तत्वों के गंगा में गिरने से गंगा के प्रदूषण का वर्णन।
(6) प्रदूषण मुक्त करने की आवश्यकता- शासकीय, सामाजिक तथा अन्य प्रयासों का उल्लेख । (7) गंगा का महत्व – धार्मिक एवं कृषि आदि के संदर्भ में
(8) उपसंहार- गंगा भारत की सांस्कृतिक तथा प्राकृतिक धरोहर
- विद्यालय का वार्षिकोत्सव
(1) प्रस्तावना विद्यालय का परिचय महत्व तथा उसके उत्सवों में वार्षिक उत्सव व महत्व।
(2) वार्षिकोत्सव की तैयारियाँ-तिथि का निश्चय व्यवस्था, स्वागत, भोजन, खेल-कूद, सांस्कृतिक कार्यक्रम आदि की समितियों का गठन।
(3) खेल-कूद-विद्यालय खेल के मैदान पर वॉलीबाल, हॉकी, क्रिकेट, कबड्डी, दौड़ आदि खेलों की प्रतियोगिताएँ ।
(4) सांस्कृतिक कार्यक्रम- कविता पाठ, गायन, नृत्य, नाटक आदि की प्रतियोगिताएँ।
(5) मुख्य आयोजन- अन्तिम दिन मुख्य आयोजन जिसमें विजयी विद्यार्थियों को पुरस्कार वितरण, मुख्य अतिथि का भाषण, प्राचार्य का व्याख्यान तथा विशिष्ट अंकों से परीक्षाएँ उत्तीर्ण करने वाले छात्रों को पुरस्कार।
(6) उपसंहार आयोजन की सफलता तथा महत्व का उल्लेख
- किसी मेले का वर्णन
(1) प्रस्तावना-मेले का परिचय,
(2) यात्रा का वर्णन मेले में जाने पर मार्ग की घटनाओं, दृश्यों का उल्लेख
, (3) मेला दर्शन- मैले के विविध दृश्य कार्यक्रम आदि का वर्णन,
(4) मेले की भीड़- दुर्घटना, खान-पान आदि का वर्णन,
(5) मेले की व्यवस्था का वर्णन,
(6) मेलों का महत्व जीवन में मेलों की क्या महत्ता है ?
(7) उपसंहार
- मेरी प्रिय पुस्तक
(1) प्रस्तावना, (2) प्रिय पुस्तक का परिचय (3) अन्य पुस्तकों की तुलना में अच्छाइयाँ (4) पुस्तक की विशेषताएँ (5) जीवन में पुस्तक की उपयोगिता (6) उपसंहार में
- दूरदर्शन और छात्र
(1) प्रस्तावना – दूरदर्शन का महत्त्व (2) उद्भव और विकास (3) भारत में दूरदर्शन का विस्तार,
(4) दूरदर्शन से लाभ, (5) दूरदर्शन का दोष (6) छात्र दूरदर्शन के कौन-से कार्यक्रम देखें (7) उपसंहार
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