अध्याय 7
सन्धि प्रकरणम्
व्याकरण के संदर्भ में ‘सन्धि’ शब्द का अर्थ है वर्ण विकार। यह वर्ण विधि है। दो पदों या एक ही पद में दो वर्णों के परस्पर व्यवधानरहित सामीप्य अर्थात् संहिता में जो वर्ण विकार (परिवर्तन) होता है, उसे सन्धि कहते हैं, यथा—विद्या + आलय = विद्यालय: । यहाँ पर विद्य+ आ + आ + लय में आ + आ की अत्यन्त समीपता के कारण दो दीर्घ वर्णों के स्थान पर एक ‘आ’ वर्ण रूप दीर्घ एकादेश हो गया है। सन्धि के मुख्यतया तीन भेद होते हैं
1. स्वर सन्धि ( अच् सन्धि), 2. व्यंजन सन्धि ( हल् सन्धि ) एवं
3. विसर्ग सन्धि ।
1. स्वर सन्धि
दो स्वर वर्णों की अत्यंत समीपता के कारण यथाप्राप्त वर्ण विकार को स्वर सन्धि कहते हैं। इसके निम्नलिखित भेद हैं
1. दीर्घ संधि (अक: सवर्णे दीर्घः) यदि ह्रस्व या दीर्घ अ, इ, उ तथा ॠ’ स्वरों के पश्चात् अ, इ, उ या ऋ स्वर आए तो दोनों मिलकर क्रमश: आ, ई, ऊ तथा ॠ हो जाते हैं।
अआ+आ/अ=आउ/ऊ+ऊ/ठउदाहरणपुस्तक=ऊइ/ई+ई/इ=ईपुस्तकालयःदेव+आलयः=+आशीष=+अपिदैत्य+अरि=दैत्यारिःविद्याअर्थीविद्यार्थीगिरि+इन्द्रच=कपिईश:कपीशः+नदी+ईश:नदीशःलक्ष्मी+ईश:देवाशीष:=चापि=गिरीन्द्रः=महीशः+ईश्वर:लक्ष्मीश्वरः=भानूदयःसु+उक्ति+ऋणम्भानु+उदयःपितृणम्।=
2. गुण* संधि (आद् गुणः )- यदि ‘अ’ या ‘आ’ के बाद ‘इ’ या ‘ई’ आए तो दोनों के स्थान पर ‘ए’ एकादेश हो जाता है। इसी तरह यदि ‘अ’ या ‘आ’ के बाद ‘उ’ या ‘ऊ’ आए तो दोनों के स्थान पर ओ’ एकादेश हो जाते हैं। इसी तरह ‘अ’ या ‘आ’ के बाद यदि ‘ऋ’ आए तो दोनों के स्थान पर ‘अर्’ एकादेश हो जाता है।
उदाहरण
अआइईउपगणनरमहायथामहा+=उपेन्द्र:गणेश:देवमहा+ईश:ईश:=नरेशःसुर++उत्सवः+उचितम्+ऊरु=महोत्सव:=यथोचितम्=महोरु:•अ,एएवंओवर्णोंको’गुण’वर्णकहाजाताहै।गंगागंगानव+इन्द्रः+ईशः+ईश==देवेन्द्र:महेश:सुरेश+उदकम्गंगोदकम्+ऊर्मिःगंगोर्मि:=हस्वया +ऋतुःग्रीष्मर्तुः+ॠ/ऋ=अर्अ/आदेव+ऋषिदेवर्षिवर्षा+ऋतुवर्षर्तुः।ग्रीष्म
3. वृद्धि संधि (वृद्धिरेचि)– यदि ‘अ’ या ‘आ’ के बाद ‘ए’ या ‘ऐ’ आए तो दोनों के स्थान पर ‘ऐ’ एकादेश हो जाता है। इसी तरह ‘अ’ या ‘आ’ के बाद ‘ओ’ या ‘औ’ आए तो दोनों के स्थान पर ‘औ’ एकादेश हो जाता है। उदाहरण
4. यण् संधि (इको यणचि) – इक् (इ, उ, ऋ, ऌ) के स्थान पर यण् (य्, व, र, ल्) हो जाता है। जब इ, ई, उ, ऊ, ऋ, तथा लू के बाद कोई असमान स्वर आए तो ‘इ’ को यू, उ को व्, ऋ, को ‘र’ तथा ‘लृ’ को ‘ल् आदेश हो जाता है। उदाहरण
यदि + अपि = यद्यपि इति + आदि
अति
+
आचार:
अत्याचार:
इति
+ अवदत्
=
इत्यादि
इत्यवदत्
नदी + आवेग नद्यावेगः सखी + ऐश्वर्यम् सख्यैश्वर्यम्
=
+ सु अनु + आगतम् = स्वागतम् अनु + एषणम् अन्वेषणम् मधु अयः
=
=
अन्वयः
+ अरिः = मध्यरिः
+ उपदेश पित्र्युपदेशः = मात्राज्ञा लु + आकृति: लाकृति: ।
वधू + आगमनम् = वध्वागमनम्
मातृ
+
आज्ञा
पितृ + आदेश: पित्रादेशः =
5. अयादि संधि (एचोऽयवायातः ) – जब ए ऐ ओ तथा औ के बाद कोई स्वर आए तो ‘ए’ को अयू, ‘ऐ’ को आयू, ‘ओ’ को अव् तथा ‘औ’ को आव् आदेश हो जाते हैं। इसे अयादिचतुष्टय के नाम से जाना जाता
है। उदाहरण
ने + अनम् = नयनम् शे + अनम् = शयनम्
नै भानो + + अक: ए = नायकः + अनम् = भवनम्
अक: + उक: = पावकः = भावुक: । नौ इक: नाविकः भौ
=
+
6. पूर्वरूप संधि (एङ: पदान्तादति ) – पूर्वरूप सन्धि को अयादि सन्धि का अपवाद कहा जा सकता है। पद के अन्त में स्थित ए, ओ के बाद यदि हस्व ‘अ’ आए तो ‘ए+ अ’ दोनों के स्थान पर पूर्वरूप सन्धि ‘ए’ एकादेश तथा ‘ओ + अ’ दोनों के स्थान पर ‘ओ’ एकादेश हो जाता है। अर्थात् ए ओ के पश्चात् आने वाला ‘अ’ अपना रूप ए ओ में ही (विलीन कर) छुपा देता है। उस विलीन ‘अ’ का रूप लिपि में अवग्रह चिन्ह (5) द्वारा • आ, ऐ एवं औ वर्णों को ‘वृद्धि’ वर्ण कहते हैं।
पितृ
अंकित किया जाता है, जैसे—हरे + अत्र में हरयत्र होना चाहिए था परन्तु ‘अ’, ‘ए’ में समा गया और रूप बना हरेऽत्र । यहाँ उच्चारण के समय ‘हरेत्र’ ही कहा जाता है (अवग्रह का उच्चारण नहीं होता ) उदाहरण—
ते + अपि वृक्षे + अपि = तेऽपि हरे = वृक्षेऽपि जले
गोपालो
(गोपालः)
+ अहम्
2. व्यंजन सन्धि ( हल सन्धि )
व्यञ्जन के पश्चात् स्वर या दो व्यञ्जन वर्णों के परस्पर व्यवधानरहित सामीप्य की
+ अव
+ अस्ति
+ अव
=
हरेऽव
= जलेऽस्ति
विष्णोऽव।
स्थिति में जो व्यञ्जन
या हल् वर्ण का परिवर्तन हो जाता है, वह व्यञ्जन सन्धि कही जाती है। 1. श्चुत्व ( स्तो: श्चुना श्युः ) – ‘स्’ या ‘त’ वर्ग (तू, थ, द्, धू, न्) का ‘श्’ या ‘च’ वर्ग (च, छ, ज, झ, ञ) के साथ (आगे या पीछे) योग होने पर ‘स्’ का ‘शू’ तथा ‘त’ वर्ग का ‘च’ वर्ग में परिवर्तन हो जाता है।
उदाहरण
मनस्
रामस्
+ चलति (स् + चश्च्) + शेते (स् + श्श्श् )
मनस् + चञ्चलम् (स् च् श्च्) + शेते (स् + श्श्श् ) = मनश्चञ्चलम् हरिश्शेते।
हरिस्
‘त’ वर्ग का ‘च’ वर्ग
सत् सत् + चित् (त् + च् = च्च् ) + चरित्रम् (त् + च् = च्च् )
उत् + चारणम् (त् + च् च्च्) + जन: (त् (द्) + ज्ज्ज्)
सत्
सच्चरित्रम्
उच्चारणम्
सज्जनः
=
उत् + ज्वलम् (त् (द्) + ज्ज्ज्) उज्ज्वलम् + जननी (त् (द्) + ज्=ज्जू) जगज्जननी।
=
जगत्
2. ष्टुत्व ( ष्टुना ष्टुः ) – यदि ‘स्’ या ‘त’ वर्ग का ‘घ’ या ‘ट’ वर्ग (ट, ठ, ड, ढ तथा ण) के साथ (आगे या पीछे) योग हो तो ‘स्’ का ‘घ्’ और ‘त’ वर्ग के स्थान पर ‘ट’ वर्ग हो जाता है। उदाहरण ‘स’ वर्ग का ‘घ’ वर्ग
रामस् रामष्यष्ठ:
ह + टीकते (स्ट=ष्ट) = हरिष्टीकते
‘त’ वर्ग का ‘ट’ वर्ग
तत् + टीका (त् + ट्= टूट)
यत् + टीका (त् + ट्= टूट)
=
उत् + डयनम् (त्(द्) + ड्=ड्ड) उड्डयनम्
आकृष् + तः (प् + तू ष्ट)
आकृष्टः । 3. जश्त्व (झलां जशोऽन्ते ) पद के अंत में स्थित झल् के स्थान पर जश् हो जाता है। झलों में वर्ग का प्रथम, द्वितीय, तृतीय तथा चतुर्थ वर्ण तथा श, ष, स् ह्कुल 24 वर्ण आते हैं। इस तरह झलू के स्थान पर जश् (ज, ब, ग, ड, द) होता है। वर्ग के प्रथम, द्वितीय, तृतीय अथवा चतुर्थ वर्ण के स्थान पर उसी वर्ग का तृतीय वर्ण हो जाता है। ष, श्, स्, ह में ष् के स्थान पर ‘इ’ आता है। अन्य का उदाहरण प्रायः नहीं मिलता है। उदाहरण
=
वाक् + ईश (क् + स्वर तृतीय वर्ण ग् + स्वर)
जगत्
वागीश:
+ ईश (त् + स्वर तृतीय वर्ण द् + स्वर) जगदीश: =
सन्धि प्रकरणम् | 109
सुप् अन्तः (प् + स्वर तृतीय वर्ण ब् + स्वर ) सुबन्तः + अच् अन्तः (च् + स्वर = तृतीय वर्ण ज् + स्वर )
=
+
अजन्तः
दिक् अम्बर: (क् + स्वर तृतीय वर्ण ग् + स्वर) दिगम्बर
+
दिकू + गजः (क्+ग्=ग्ग्)
सत् + धर्म (त् + धूड)
अप् + जम्: (प्+ज्= ब्ज्)
चित् + रूपम् (त् + र्द्र)
=
दिग्गज:
= सद्धर्म:
=
अब्जम्
= चिद्रूपम् ।
4. चव ( खरिच ) – यदि वर्गों ( क वर्ग, च वर्ग, ट वर्ग, त वर्ग तथा प वर्ग) के द्वितीय, तृतीय या चतुर्थ
वर्ण के बाद वर्ग का प्रथम या द्वितीय वर्ण या शू, ष, स् आए तो पहले आने वाला वर्ण अपने ही वर्ग का प्रथम वर्ण
हो जाता है। उदाहरण
+ कार: (द् + क् = त्व)
लभ् + स्यते (भ् + स्=प्स्) दिग् पाल: (ग्+प्= क्यू) +
=
सत्कार:
लप्स्यते
दिक्पालः । 5. अनुस्वार ( मोऽनुस्वारः) – यदि किसी पद के अन्त में ‘म्’ हो तथा उसके बाद कोई व्यञ्जन आए तो
‘म्’ का अनुस्वार () हो जाता है। उदाहरण हरिम् + वन्दे = हरिं वन्दे
अहम् + गच्छामि अहं गच्छामि। 6. परसवर्ण ( अनुस्वारस्य यथि परसवर्णः )- अनुस्वार के बाद कोई भी वर्गीय व्यञ्जन आए तो अनुस्वार के स्थान पर आगे वाले वर्ण के वर्ग का पञ्चम वर्ण हो जाता है। यह नियम पदान्त में कभी नहीं लगता
है। उदाहरण
पदान्त में संस्कृत पठति ।
संस्कृतपठति
अं + कित: ( + क् = ङ्क) अङ्कित: =
+ कल्प: (. + क् = ङ्क) सङ्कल्प: = कुं + ठित: (+ठ ण्ठ) कुण्ठितः
=
अं + चित: (+ च्=ञ्च)
अञ्चितः
7. लत्व (तोर्लि) – यदि ‘त’ वर्ग के बाद ‘लू’ आए तो ‘त’ वर्ग के वर्णों का ‘ल्’ हो जाता है। किन्तु ‘न्’ के बाद ‘ल्’ के आने पर अनुनासिक ‘ल’ होता है। ‘लँ’ का आनुनासिक्य चिन्ह पूर्व वर्ण पर पड़ता है।
उदाहरण
उत् + लङ्घनम् (त् + ल्ल्लू) उल्लङ्घनम्
=
तत् + लीन (त् + ल् = ल्लू) = तल्लीनः
उत् + लिखितम् (त् + ल् = ल्ल्) उल्लिखितम्
=
उत् + लेख (त् + ल्ल्ल्)
=
उल्लेख:
महान् + लाभ (न+ल् = ल्लू) •महाँल्लाभ: विद्वान् + लिखति (न् + ल् = ल्लू) विद्वाल्लिखति।
8. छत्व (शश्छोऽटि) यदि ‘श्’ के पूर्व पदान्त में किसी वर्ग का प्रथम, द्वितीय, तृतीय अथवा चतुर्थ
वर्ण हो या र्, ल्, व् अथवा ह् हो तो श् के स्थान पर ‘छ’ हो जाता है। उदाहरण
एतत् + शोभनम् (त् + श्= च्छ) एतच्छोभनम् =
तत्
+ श्रुत्वा (त् + श्= च्छ्)
तच्छ्रुत्वा
9. ‘च’ का आगम (छे च ) – यदि ह्रस्व स्वर के पश्चात् ‘छ्’ आए तो ‘छ्’ के पूर्व ‘च्’ का आगम
होता है। उदाहरण
तरु
अनु
+ छाया (उ+छ+च् छ् )
+ छेदः (उ + छ् = उ + च् + छ्)
परि + छेदः (इ + छ् = इ + च् + छ् )
तरुच्छाया
अनुच्छेद: परिच्छेदः ।
‘र’ के बाद ‘र्’ हो तो पहले ‘इ’ का
=
=
10. ‘र’ का लोप तथा पूर्व स्वर का दीर्घ होना (रो रि) यदि लोप हो जाता है तथा उसका पूर्ववर्ती स्वर दीर्घ हो जाता है। उदाहरण
स्वर् + राज्यम् (र् + र् आर्)
निर् + रोग (र् + ईर् )
निर् + रसः (र्+र्ई+)
=
स्वाराज्यम्
नीरोगः
नीरसः ।
=
=
11. न् का ण् होना – यदि एक ही पद में ऋ र् या ष् के पश्चात् ‘न्’ आए तो ‘न्’ का ‘ण्’ हो जाता है। उदाहरण- कृष्ण, विष्णु स्वर्ण, वर्ण इत्यादि। अट् अर्थात् अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऌ, ए, ओ, ऐ, औ, ह, य, व, कवर्ग, पवर्ग, आङ् तथा नुम् इन वर्णों
के व्यवधान में भी यह णत्व विधि प्रवृत्त हो जाती है। उदाहरण
नरा
+ नाम्
+ नाम्
= नराणाम् ऋषीणाम्।
3. विसर्ग सन्धिः
विसर्ग (:) के पश्चात् स्वर या व्यञ्जन वर्ण के आने पर विसर्ग के स्थान पर होने वाले परिवर्तन को विसर्ग
सन्धि कहते हैं।
1. सत्व ( विसर्जनीयस्य सः ) – यदि विसर्ग (:) के बाद खर् प्रत्याहार के वर्ण (अर्थात् प्रत्येक वर्ग के
प्रथम, द्वितीय वर्ण तथा श्, ष, स्) हो तो विसर्ग का ‘स्’ हो जाता है। परन्तु यदि विसर्ग (:) के बाद श् हो तो विसर्ग (:) के स्थान पर श् आयेगा तथा यदि टू या ठ् हो तो विसर्ग (:) का ‘ष’ हो जाता है। उदाहरण
नमः
बालकः
इत:
शिरः
+
+
+
+
+
ते
तरति
ततः
चल:
छेदः
+ टङ्कारः =
= (: + ते = स्ते) नमस्ते
= (: +त= स्त)
=
=
बालकस्तरति
(: + तस्त) इतस्तत:
(: + च =श्च) निश्चल
(: + छे = श्छे) शिरश्छेदः
(: +ट=ष्ट ) धनुष्टङ्कारः ।
धनु: 2. षत्व – यदि विसर्ग () के पूर्व ‘इ’ या ‘उ’ हो तथा बाद में क, ख् या प्, फ् में से कोई वर्ण हो तो
विसर्ग (:) के स्थान पर ‘ष’ हो जाता है। उदाहरण + कपट: (: + क = ष्क) निष्कपट:
(: +फ = ष्फ) निष्फल:
निः + + फल: कर्म = = (: + क = ष्क)
दुष्कर्म ।
यदि नमः और पुरः के बाद क्, ख् या प्, फ् आए तो विसर्ग () का स् हो जाता है।
नमः
+
कार:
(:+क= स्का)
नमस्कारः
पुरः + कार: = (: + क = स्का) पुरस्कारः।
3. विसर्ग का रुत्व उत्व, गुण तथा पूर्वरूप ( अतो रोरप्लुतादप्लुते ) – यदि विसर्ग (:) से पहले ह्रस्व ‘अ’ हो तथा उसके पश्चात् भी ह्रस्व ‘अ’ हो तो विसर्ग को ‘रु’ आदेश, ‘रु’ के स्थान पर ‘उ’ आदेश, उसके बाद
=
सन्धि प्रकरणम् | 111
अ + उ के स्थान पर गुण ‘ओ’ तथा ओ + अ के स्थान पर पूर्वरूप एकादेश करने पर ‘ओ’ ही रहता है। ‘ओ’ के बाद ‘अ’ की स्थिति अवग्रह के चिन्ह (5) के द्वारा दिखाई जाती है। उदाहरण
बालः + अयम्
विसर्ग को उ आदेश – बालू + अ + + अयम् = बाल्
अ+उ+ अयम्
अ + उ को ओ आदेश – बाल् + अ + उ + अयम्
बाल् + ओ + अयम् ओ + अ को 5 परिवर्तित रूप बालो + अयम्= बालोऽयम्
उदाहरण
स
+
अवदत् सोऽवदत्
नृपः प्रथमः अवदत् अध्याय: नृपोऽवदत् प्रथमोऽध्यायः । + =
+
=
( हशि च ) – यदि विसर्ग (:) से पहले अ हो तथा बाद में वर्गों के तृतीय, चतुर्थ एवं पञ्चम वर्ण अथवा यू, र्, ल्, व् या ह्, हो तो विसर्ग के स्थान पर र, पुनः र् आदेश का उ, तदनन्तर अ + उ को गुण होकर ‘ओ’ हो
जाता है। उदाहरण तपः
मनः
बाल:
+
वनम्
=
तप् + अ + (:) + वनम्
= तप् + अ + र् + वनम्
=
तप् + अ + उ + वनम् ( र् के स्थान पर उ)
= तप् + ओ + वनम् (अ+उ ओ)
तपोवनम् मनोरथः ।
बालो गच्छति।
+
+
गच्छति
4. रुत्व ( = र् ) – यदि विसर्ग से पहले अ, आ को छोड़कर कोई अन्य स्वर हो तथा बाद में कोई स्वर घोष व्यञ्जन हो तो विसर्ग (:) के स्थान पर र् हो जाता है। उदाहरण
मुनिः
हरिः + आगच्छति
प्रथमः
+
जयति
+
अयम्
=
=
मुन् + इ + + अयम्
मुन् + इ + र् + अयम्
= मुनिरयम्
=
हरिरागच्छति गुरुर्जयति।
अभ्यास प्रश्ना:
प्रश्न 1. अधोलिखितेषु समुचितं सन्धिपदं चित्वा लिखत —
यथा – चन्द्र + उदयः = चन्द्रोदयः / चन्द्रौदयः / चन्द्रुदयः 1. मातृ ऋणम् मातर्णम् / मातॄणम् / मातृणम्
+
=
2. यदि + अपि यद्यपि / यदपि / यदापि ऐक्यम् मतेक्यम् / मतैक्यम् / मत्येकम्
3.
मत
+
4. भानु + उदय: = भान्वुदयः / भानुदयः / भानूदय:
5. भौ 6. विष्णो + + उक: इह भावक: / भाविक: / भावुक विष्णविह / विष्णवेह / विष्णोह =
या
चन्द्रोदय:
7. सर्वे
8. गङ्गा
+ गङ्गैव / गङ्गोव/ गङ्गेव
अत्र
इव
+
सर्वे अत्र / सर्वेऽत्र / सर्व अत्र
=
प्रश्न 2. अधोलिखितेषु सन्धिविच्छेदं रूपं पूरयित्वा सन्धेः नाम अपि लिखत —
यथा- अन्वेषणम्
1. तवैव
2. नदीव
अनु
एषणम्
= नदी
=
3. अति
अत्याचार: 5. शयनम्
4.
6. यथोचितम् यथा + प्रश्न 3. समुचितं सन्धिविच्छेदरूपं पूरयत
1. दिगम्बर: 2 मच्छिर:
3. जगदीशः
4.
अयं गच्छति
5. नीरोग:
यण सन्धि + एव
अपि
अनम्
(दिक्/ दिग्)
= (छिरः / शिर: )
अम्बर:
ईश: + गच्छति (अयं/अयम्)
(जगत् /जगद्)
+ रोग (निर्/ नीर्)
6. तल्लीन + (लिन /
तत् प्रश्न 4. समुचितं सन्धिपदं चित्वा लिखत –
सज्जनः / सत्जनः
1. 2 सत् तत् + + जन: = तश्रुत्वा / तच्छ्रुत्वा
=
3.
विद्वान् + लिखति विद्वांल्लिखति / विद्वॉल्लिखति
=
4. सम् + कल्पः सम्कल्पः / सङ्कल्प
5. उत्
+
लेख:
उल्लेख: / उच्लेख:
प्रश्न 5. स्थूलपदेषु सन्धियुक्तपदं दत्तेभ्यः विकल्पेभ्यः शुद्धं चित्त्वा उत्तरपुस्तिकायां लिखत
1. हे प्रभो ! मह्यं सत् + मतिं देहि (ख) सन्मतिं
(क) सम्मति
2. आगच्छतु + अत्र मोहन !
(ग) सद्मतिं
(क) आगच्छत्वत्र (ख) आगच्छत्वात्र (ग) आगच्छतुत्र
3. रामः + च लक्ष्मणश्च वनं गतौ
(क) रामस्व (ख) रामश्च
4. उभौ + एव तत्र आगमिष्यत: (क) उभावैव (ख) उभौवेव
5. सन्तोषः एव सत् + निधानम् (क) सन्निधानम् (ख) सनिधानम्
6. आश्रमे उभौ+ अपि अतिथी तिष्ठतः। (क) उभवपि (ख) उभवापि
7. वने मृगाः + चरन्ति (क) मृगास्वरन्ति (ख) मृगाष्चरन्ति
8. त्वं नर्तनात् + अन्यत् किं जानासि (क) नर्तनातन्यत्) (ख) नर्तनादन्यत्
9. का नु हानिः + ततः अधिका (क) हानिर्तत: (ख) हानिश्तत:
(ग) रामः च
(ग) उभावेव
(ग) सनिधानम्
(ग) उभावपि
(ग) मृगाश्चरन्ति
(ग) नर्तनादोन्यत्
(ग) हानिः ततः
(घ) सण्मतिं ।
(घ) आगच्छतु अत्र ।
(घ) रामञ्च |
(घ) उभौवैव।
(घ) सलिधानम्।
(घ) उभौअपि ।
(घ) मृगाः चरन्ति ।
(घ) नर्तनदन्यत्
(घ) हानिस्ततः ।
लीनः)
मत्
सन्धि प्रकरणम् | 113
10. यः इच्छति + आत्मनः श्रेयः
(क) इच्छत्यत्मनः
11. सतां सम् + गः करणीयः
(क) सजा:
(ख) इच्छत्यात्मनः
(ख) संग:
(ग) इच्छतिआत्मनः
(ग) सम्ग:
12. यद्यपि सः पाठं पठति तथा अपि स्मरणं न भवति
(क) तथपि
(ख) तथाऽपि
13. हित + उपदेशः नारायणपण्डितस्य कृतिः – (क) हितोपदेशः (ख) हितापदेश:
14. पर्वतीयं वातावरणं स्व छं भवति –
(क) स्वच्छं
(ख) स्वछं
(ग) तथापि
(ग) हितपोदेश:
15. याचक: अभि + इच्छितानि वस्तूनि प्राप्य सन्तुष्टः अभवत् –
(क) अभीच्छतानि 16. सा एव कीर्तिं धनम्
(क) धनश्च 17. मेघः + गर्जति इतस्तत:
(ख) अभीच्छितानि
च प्राप्नोति
(ख) धनर्च
(क) मेघगर्जति 18. अनच्छिन् अपि अयं पुरुषः पापम् चरति
(ख) मेघो गर्जति
(क) अनिच्छनापि (ख) अनिच्छन्नापि स्वपत्नीम्
19. तस्मिन् + एव काले (क) तस्मिन्नेव
20. तत् + श्रुत्वा यूथपति:
(क) तत्श्रुत्वा
21. माम् अयं शोकः
(क) अग्निरिव
उवाच –
(ख) तास्मिननेव सगद्गदम् उक्तवान्–
(ख) तश्रुत्वा अग्निः + इव दहति
(ख) अग्नि: इव
22. अभि + इष्टानि वस्तूनि प्राप्य सन्तुष्टः अभवत् –
(ग) स्वच्छं
(ग) अभिच्छतानि
(ग) धनष्व
(ग) मेघर्गर्जति
(ग) अनिच्छानपि
(ग) तस्मिश्नेव
(ग) तच्छ्रुत्वा
(ग) अग्निव
(ख) अभिष्टानि उत्तरम् – 1. 1. मातॄणम् 2. यद्यपि, 3. मतैक्यम्, 4. भानूदयः,
(क) अभीष्टानि
8. गङ्गेव।
=
2. 1. तवैव
2. नदीव
3. केऽपि
(ग) अभ्यिष्टानि
तव नदी + ईव
+ एव
के + अपि
4. अत्याचार: अति
=
+ आचार:
+ अनम् 6. यथोचितम् यथा + उचितम्
5. शयनम्
= शे
=
3. 1. दिक्, 2. शिरः, 3. जगत्, 4. अयम्, 5. निर्, 6. लीनः ।
(घ) इच्छत्यात्मानः
(घ) सङ्गः ।
(घ) तथाअपि ।
(घ) हितुपदेशः ।
(घ) स्वच्छं।
(घ) अभिच्छितानि ।
(घ) धनञ्च
(घ) मेघ गर्जति ।
(घ) अनिच्छन्नपि ।
(घ) तस्मिश्चेव |
(घ) तद्छ्रुत्वा ।
(घ) अग्नीव
(घ) अभ्युष्टानि
5. भावुकः, 6. विष्णोह, 7. सर्वेऽत्र,
वृद्धि संधि
दीर्घ संधि
पूर्वरूप संधि
यण संधि
अयादि संधि
गुण संधि
4. 1. सज्जन 2. तच्छ्रुत्वा 3. विद्वाल्लिखति, 4. सङ्कल्पः, 5. उल्लेखः ।
5. 1 (क), 2. (क), 3. (ख), 4. (ग), 5. (क), 6. (ग), 7. (ग), 8. (ख), 9. (घ), 10. ( ख), 11. (घ), 12. (ग), 13 (क), 14 (ग), 15. (ख), 16 (घ), 17 (ख), 18 (घ),
19. ( क), 20. (ग), 21. (क), 22. (क)
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