अध्याय 2
राजा, किसान और नगर-आरम्भिक राज्य
और अर्थव्यवस्थाएँ
वस्तुनिष्ठ प्रश्न
. बहु-विकल्पीय प्रश्न
- सबसे प्राचीन अभिलेख किस शासक के प्राप्त हुए हैं ?
(अ) बिंबिसार,
(ब) अजातशत्रु,
(स) अशोक,
(द) कनिष्क।
- सम्राट अशोक के अधिकतर अभिलेख किस लिपि में
उत्कीर्ण किए गए थे ?
(अ) अरामाइक लिपि,
(ब) यूनानी लिपि,
(स) खरोष्ठी लिपि,
(द) ब्राह्मी लिपि।
- ब्राह्मी लिपि को सबसे पहले पढ़ने में सफलता किस व्यक्ति को प्राप्त हुई थी?
(अ) जेम्स प्रिंसेप,
(ब) अलेक्जेंडर कनिंघम,
(स) डी. सी. सरकार,
(द) आर. ई. एम. व्हीलर।
- भारत के सबसे प्राचीन सिक्के किस नाम से जाने जाते हैं ?
(अ) मुहर,
(ब) निष्क,
(स) आहत,
(द) इनमें से कोई नहीं।
- सोने के सिक्कों का सर्वप्रथम प्रचलन किन शासकों द्वारा किया गया था ?
(अ) मौर्य शासकों,
(ब) शुंग शासकों,
(स) गुप्त शासकों,
(द) कुषाण शासकों।
- ‘अंग’ जनपद की राजधानी कौन-सी थी?
(अ) वैशाली,
(स) चंपा,
(ब) कुशीनगर,
(द) इन्द्रप्रस्थ।
- निम्नांकित में से कौन-सा जनपद आठ राज्यों का संघ था ?
(अ) अंग,
(ब) काशी,
(द)वज्जि।
(स) कुरू,
- ‘शूरसेन महाजनपद की राजधानी कौन-सी थी?
(ब) वाराणसी,
(अ) मथुरा,
(स) अहिच्छत्र,
(द) इन्द्रप्रस्थ।
- मौर्य साम्राज्य का संस्थापक कौन था?
(अ) महापद्मनन्द,
(ब) चन्द्रगुप्त मौर्य,
(स) बिन्दुसार,
(द) अशोक।
- चन्द्रगुप्त मौर्य के राजदरबार में आने वाले यूनानी राजदूत का नाम क्या था?
(अ) सेल्यूकस,
(ब) यूडेमस,
(स) मेगस्थनीज,
(द) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर-1. (स), 2. (द),3. (अ),4. (स),5. (द),6. (स),7.(द), 8. (अ), 9.(ब), 10. (स)।
. रिक्त स्थानों की पूर्ति
- अभिलेखों के अध्ययन को …………कहा जाता है।
- जेम्स प्रिंसेप ने वर्ष………… …में ब्राह्मी लिपि को पढ़ने में सफलता प्राप्त की थी।
- मुद्राओं के अध्ययन को …………कहा जाता है।
- प्राचीनकाल में काशी जनपद की राजधानी………… थी।
- …………महाजनपद की राजधानी तक्षशिला थी।
- पाटलिपुत्र को वर्तमान में …………के नाम से जाना जाता है।
- चौथी शताब्दी ई. पू. में मगध के शासकों ने………… को अपनी राजधानी बनाया था।
- ‘इण्डिका’ नामक पुस्तक की रचना………… ने की थी।
- चन्द्रगुप्त मौर्य का सिंहासनारोहण वर्ष में हुआ था।
- अशोक ने अपने राज्याभिषेक के वर्ष………… में कलिंग पर आक्रमण किया था।
उत्तर-1. पुरालेखशास्त्र (एपिग्रेफी), 2. 1838 ई., 3. मुद्राशास्त्र, 4. वाराणसी, 5. गान्धार, 6. पटना, 7. पाटलिपुत्र, 8 मेगस्थनीज, 9.321 ई. पू., 10. आठवें।
.सत्य/असत्य
- अभिलेखों तथा अन्य दस्तावेजों की लिपियों के अध्ययन को ‘पुरालेखशास्त्र’ कहा जाता है।
- सबसे प्राचीन अभिलेख मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के प्राप्त हुए हैं।
- ब्राह्मी लिपि बाएँ से दारों ओर लिखी जाती थी।
- सोने के सिक्कों का सर्वप्रथम प्रचलन मौर्य शासकों द्वारा किया गया।
- मौर्यवंश का अन्तिम शासक वृहद्रथ था।
उत्तर-1. असत्य, 2. असत्य, 3. सत्य,4. असत्य, 5. सत्य।
सही जोड़ी बनाइए
‘अ’. ख
- कुरु. (i) तक्षशिला
- पंचाल. (ii) कौशाम्बी
- शूरसेन. (iii) इन्द्रप्रस्थ
- गान्धार. (iv) कम्पिल
- वत्स. (v) मथुरा
उत्तर-1.→ (iii), 2. → (iv), 3. → (v),4.→ (i), 5. → (ii).
एक शब्द/वाक्य में उत्तर
- अभिलेखों के अध्ययन को क्या कहा जाता है ?
- अभिलेखों और अन्य दस्तावेजों की लिपियों के अध्ययन को क्या कहा जाता है ?
- मुद्राओं के अध्ययन को क्या कहा जाता है ?
- कौटिल्य द्वारा रचित सुप्रसिद्ध ग्रन्थ का नाम क्या है ?
- मौर्य वंश के संस्थापक कौन थे?
- चन्द्रगुप्त मौर्य के प्रधानमन्त्री का नाम क्या था ?
- चन्द्रगुप्त मौर्य का किस यूनानी शासक के साथ युद्ध हुआ था ?
- मेगस्थनीज द्वारा रचित पुस्तक का नाम क्या है ?
- अन्तिम मौर्य सम्राट वृहद्रथ की हत्या किसने की थी?
- गुप्त वंश के पहले प्रसिद्ध सम्राट का नाम लिखिए।
उत्तर-1. पुरालेखशास्त्र (एपिग्रेफी), 2. पुरालिपिशास्त्र (पेलिअग्राफी), 3. मुद्राशास्त्र, 4. अर्थशास्त्र, 5. चन्द्रगुप्त मौर्य, 6. चाणक्य, 7. सेल्यूकस, 8. इण्डिका, 9. पुष्यमित्र शुंग, 10. चन्द्रगुप्त प्रथम ।
अति लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. ब्राह्मी लिपि को पढ़ने में सबसे पहले किसने सफलता प्राप्त की ?
उत्तर-ब्राह्मी लिपि को सबसे पहले 1838 ई. में जेम्स प्रिंसेप नामक विद्वान ने पढ़ा था।
प्रश्न 2. सबसे प्राचीन अभिलेख किस भाषा में लिखे गए थे ?
उत्तर-प्राचीन भारत पर प्रकाश डालने वाले सबसे प्राचीन अभिलेख प्राकृत भाषा में
लिखे गए थे।
प्रश्न 3. अशोक के अभिलेख किन-किन लिपियों में लिखे गए थे ?
उत्तर- सबसे प्राचीन अभिलेख मौर्य सम्राट अशोक के प्राप्त हुए हैं। अशोक के अभिलेख उसके विशाल साम्राज्य के सभी भागों में प्राप्त हुए हैं, ये अभिलेख चार लिपियों- ब्राह्मी, • खरोष्ठी, अरामाइक और यूनानी लिपियों में उत्कीर्ण हैं। अशोक के अधिकतर अभिलेख ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण मिले हैं।
प्रश्न 4. ‘जनपद’ शब्द के अभिप्राय को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-‘जनपद’ का अर्थ एक ऐसा भूखण्ड जहाँ जन (लोग, कुल या जनजाति) अपना पाँव रखता है अथवा बस जाता है। इस शब्द का प्रयोग प्राकृत और संस्कृत दोनों भाषाओं में मिलता है।
प्रश्न 5. ब्राह्मी लिपि के महत्व पर प्रकाश डालिए।
उत्तर- ब्राह्मी लिपि बाएँ से दायीं ओर लिखी जाती थी। यह लिपि आधुनिक भारतीय भाषाओं में प्रयुक्त लगभग सभी लिपियों की मूल मानी जाती है। ब्राह्मी लिपि से भारत की हिन्दी, पंजाबी, मराठी, गुजराती, बंगला, तमिल, और कन्नड़ आदि सभी भाषाओं की लिपियों का विकास माना जाता है। 1838 ई. में जेम्स प्रिंसेप नामक विद्वान ने ब्राह्मी लिपि को सबसे पहले पढ़ने में सफलता प्राप्त की, इसके परिणामस्वरूप भारतीय राजनीतिक इतिहास के अध्ययन को एक नवीन दिशा प्राप्त हुई ?
प्रश्न 6. दानात्मक अभिलेखों से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर – द्वितीय शताब्दी ई. पू. के काल के धार्मिक संस्थाओं को दिए गए दान के विवरण वाले अभिलेखों को दानात्मक अभिलेख कहा जाता है।
प्रश्न 7. छठी शताब्दी ई. पू. के चार महत्वपूर्ण महाजनपदों के नाम लिखिए।
उत्तर- (1) मगध, (2) कोशल, (3) पांचाल, और (4) गान्धार।
प्रश्न 8 मेगस्थनीज कौन था ? संक्षेप में लिखिए।
उत्तर- ‘मेगस्थनीज’ चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में यूनानी राजदूत था। वह लगभग पाँच वर्षों तक चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में रहा और उसने भारत का आँखों देखा हाल अपनी पुस्तक ‘इण्डिका’ में लिखा। इस पुस्तक से चन्द्रगुप्त मौर्य के शासनकाल की महत्वपूर्ण जानकारी हमें प्राप्त होती है।
प्रश्न 9. चाणक्य कौन थे ? संक्षेप में लिखिए।
उत्तर-चाणक्य, चन्द्रगुप्त मौर्य के गुरु और उनके प्रधानमन्त्री थे। उन्होंने ‘अर्थशास्त्र’ नामक प्रसिद्ध ग्रन्थ की रचना की थी। यह ग्रन्थ तत्कालीन मौर्य प्रशासन, कूटनीति, युद्ध प्रणाली, सामाजिक-स्थिति आदि के सम्बन्ध में जानकारी देने वाला एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है।
प्रश्न 10. अशोक ने धर्म महामात्रों की नियुक्ति किस उद्देश्य से की थी ?
उत्तर- मौर्य सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म के व्यापक प्रचार-प्रसार के लिए धर्म महामात्रों की नियुक्तियाँ की थीं। धर्म महामात्रों का प्रमुख कार्य जनता धर्म के सिद्धान्तों का प्रचार कर लोगों को चरित्रवान बनाना था।
लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. अभिलेखों से ऐतिहासिक साक्ष्य प्राप्त करने में अभिलेखशास्त्रियों को किन समस्याओं का सामना करना पड़ता है ? संक्षेप में बताइए।
अथवा
अभिलेखशास्त्रियों की कुछ समस्याओं की सूची बनाइए।
उत्तर – अभिलेखों से ऐतिहासिक साक्ष्य प्राप्त करने में अभिलेखशास्त्रियों को कुछ समस्याओं का सामना करना पड़ता है, जिनका विवरण निम्नांकित है
(1) अभिलेखशास्त्रियों को अभिलेखों की लिपियों को पढ़ने में कठिनाई आती है, क्योंकि जिन युगों के वे अभिलेख होते हैं, उनके समकालीन अभिलेखों पर कहीं भी उस लिपि का प्रयोग नहीं हुआ होता। उदाहरणार्थ- हड़प्पा सभ्यता की मोहरों और अन्य वस्तुओं पर दिए गये लेखों को अभी तक नहीं पढ़ा जा सका है।
(2) कुछ अभिलेखों में एक ही राजा के लिए भिन्न-भिन्न नामों, उपाधियों अथवा सम्मानजनक प्रतीकों और सम्बोधनों का प्रयोग किया गया है। इसलिए अभिलेखशास्त्रियों को उन्हें पढ़ने या उनका अर्थ निकालने में काफी कठिनाई होती है।
(3) कई बार एक ही शासक या उसके वंश से सम्बन्धित विभिन्न क्षेत्रों में मिलने वाले अभिलेखों में लगभग एक ही युग में भिन्न-भिन्न भाषाओं और लिपियों का प्रयोग हुआ है। परिणामत: अभिलेखशास्त्रियों को इन्हें पढ़ने में काफी कठिनाई का सामना करना पड़ता है।
(4) अभिलेखशास्त्रियों को प्राय: अभिलेखों में प्रयुक्त वाक्यों से उनके अर्थ को समझने में कठिनाई का सामना करना पड़ता है। उदाहरणार्थ- अशोक की कलिंग विजयोपरांत तेरहवें शिलालेख में लिखा है— “डेढ़ लाख पुरुषों को निष्कासित दिया गया, एक लाख मारे गए और इससे भी ज्यादा की मृत्यु हुई।” अभिलेख की यह भाषा काफी भ्रमात्मक है।
प्रश्न 2. इतिहास के पुनर्निर्माण में अभिलेखों के महत्व को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर- इतिहास निर्माण की दृष्टि से अभिलेखों का सर्वाधिक महत्व है। इनसे प्राचीन भारत के सांस्कृतिक, राजनीतिक तथा धार्मिक जीवन की प्रामाणिक जानकारियाँ प्राप्त होती हैं। विद्वान इतिहासकार फ्लीट के शब्दों में, “प्राचीन भारत के राजनीतिक इतिहास का ज्ञान हमें केवल अभिलेखों के धैर्यपूर्ण अध्ययन से प्राप्त होता है। ”
वास्तव में, अभिलेख तत्कालीन राजनीतिक तथा धार्मिक दशा पर विशेष रूप से प्रकाश डालते हैं तथा राज्य की सीमाओं का निर्धारण, राजाओं के चरित्र एवं व्यक्तित्व के विषय में भी जानकारी उपलब्ध कराते हैं। अभिलेखों की संख्या अत्यधिक है तथा ये देश के विभिन्न भागों में प्राप्त हुए हैं। अधिकांश अभिलेख स्तम्भों, शिलाओं तथा गुफाओं पर उत्कीर्ण हैं, परन्तु कुछ अभिलेख मूर्तियों तथा ताम्रपत्रों पर भी उत्कीर्ण किये गये हैं। अशोक के अभिलेख, प्रयाग प्रशस्ति लेख तथा हाथीगुम्फा अभिलेख ऐतिहासिक दृष्टि से विशेष महत्वपूर्ण हैं।
अशोक के अभिलेखों से तत्कालीन धर्म, शासन व्यवस्था तथा साम्राज्य विस्तार की जानकारी प्राप्त होती है। हाथीगुम्फा अभिलेख से खारवेल के शासनकाल की घटनाओं का ज्ञान प्राप्त होता है। इसी प्रकार, प्रयाग प्रशस्ति लेख से समुद्रगुप्त के व्यक्तित्व तथा उसकी दिग्विजयाँ की जानकारी प्राप्त होती है।
अथवा
प्रश्न 3. इतिहास के पुनर्निर्माण में सिक्कों अथवा मुद्राओं के महत्व को स्पष्ट कीजिए।
प्राचीन भारतीय इतिहास को जानने में सिक्कों का क्या महत्व है ? क्या इनसे वैज्ञानिक प्रगति के बारे में कोई जानकारी मिलती है ?
उत्तर- प्राचीन भारत की प्रामाणिक जानकारी कराने में भारतीय मुद्राएँ निम्नांकित कारणों से ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं
(1) आर्थिक दशा का ज्ञान-यदि सिक्के शुद्ध सोने या चाँदी के होते हैं, तो उनसे राज्य की सम्पन्नता का बोध होता है और यदि वे मिश्रित धातु के होते हैं, तो राज्य की विपन्नता का बोध होता है।
(2) तिथिक्रम का निर्धारण-सिक्कों पर अंकित तिथि से उन सिक्कों को चलाने वाले शासक की तिथि का ज्ञान होता है।
(3) साम्राज्य की सीमाओं का निर्धारण-सिक्कों के प्राप्त होने के स्थानों के आधार पर इतिहासकारों को शासकों के साम्राज्य की सीमाओं का निर्धारण करना सरल हो जाता है। (4) धार्मिक दशा का ज्ञान-सिक्कों पर अंकित विभिन्न देवी-देवताओं के चित्रों से तत्कालीन धार्मिक दशा का ज्ञान होता है।
(5) कला विकास का ज्ञान-सिक्कों पर उत्कीर्ण मूर्तियों, चित्रों तथा संगीत वाद्यों से तत्कालीन कला तथा संगीत के विकास का ज्ञान होता है।
यद्यपि सिक्कों से वैज्ञानिक प्रगति के विषय में कोई विशेष जानकारी प्राप्त नहीं होती है, फिर भी प्राचीन सिक्के धातु-विज्ञान के ज्ञान से हमें परिचित कराते हैं।
प्रश्न 4. महाजनपदों के विशिष्ट अभिलक्षणों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-बौद्ध और जैन धर्म के आरम्भिक ग्रन्थों में महाजनपद नाम से सोलह राज्यों की सूची प्राप्त होती है। यद्यपि महाजनपदों के नाम की सूचियाँ एक जैसी नहीं हैं; तथापि वज्जि, मगध, कोशल, कुरू, पांचाल, गंधार और अवन्ति आदि नाम एक जैसे हैं। इससे यह संकेत मिलता है कि ये महाजनपद सबसे अधिक महत्वपूर्ण रहे होंगे।
महाजनपदों के विशिष्ट अभिलक्षण
(1) महाजनपदों का विकास 600 ई. पू. से 320 ई. पू. के मध्य हुआ था।
(2) महाजनपदों की संख्या सोलह थी। इनमें से लगभग बारह राजतन्त्रीय राज्य थे और चार गणतन्त्रीय राज्य थे।
(3) इस काल में मगध, वत्स, अवन्ति, कोशल आदि सुप्रसिद्ध राजतन्त्र थे; और वज्जि, कुरु, मल्ल और शूरसेन गणराज्य थे। कुछ गणराज्य अनेक राज्यों के संघ थे, जैसे-वज्जि गणराज्य आठ राज्यों का संघ था और मल्ल गणराज्य नौ राज्यों का संघ था।
(4) अधिकांश महाजनपदों में राजतन्त्र प्रणाली का प्रचलन था। इन राज्यों में राजा का पद पैतृक होता था। राज्य की समस्त शक्तियाँ राजा के हाथ में केन्द्रित होती थीं।
(5)प्रत्येक महाजनपद की एक राजधानी होती थी, जो प्रायः किलेबन्द होती थी।
(6) महाजनपदों के राजा अपने राज्यों की सुरक्षा के लिए तथा राज्य में शान्ति व सुव्यवस्था कायम करने के लिए सेनाओं का संगठन किया करते थे।
(7) महाजनपदों में ब्राह्मणों ने लगभग छठी शताब्दी ई. पू. से संस्कृत में धर्मशास्त्र नामक ग्रन्थों की रचना प्रारम्भ की। इन ग्रन्थों में राजाओं और अन्य व्यक्तियों के लिए नियमों का निर्धारण किया गया।
प्रश्न 5. छठी से चौथी शताब्दी ई. पू. में मगध एक शक्तिशाली राज्य के रूप में किन कारणों से विकसित हुआ ?
उत्तर-सोलह महाजनपदों के राजनैतिक इतिहास में मगध का स्थान सर्वप्रमुख रहा। छठी शताब्दी ई. पू. से चौथी शताब्दी ई. पू. की अवधि में मगध एक शक्तिशाली राज्य के रूप में निम्नांकित कारणों से विकसित हुआ
(1) मगध की विशिष्ट प्रकार की भौगोलिक स्थिति ने मगध के विस्तार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। मगध के उत्तर में गंगा, पूर्व में सोन और पश्चिम में चंपा नदियाँ बहती थीं। इसके अतिरिक्त दक्षिण में विंध्याचल पर्वत मगध का प्रहरी था। इस प्रकार मगध राज्य चारों ओर से सुरक्षित था।
(2) मगध की शक्ति को बढ़ाने में उसकी लोहे की खदानों ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
(3) मगध के शासकों की विशाल एवं शक्तिशाली सेना ने भी मगध साम्राज्य के विस्तार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
(4) मगध की भूमि अत्यधिक उपजाऊ थी, जिससे मगध आर्थिक दृष्टि से काफी मजबूत था।
(5) आरम्भिक जैन और बौद्ध लेखकों ने मगध की महत्ता कारण विभिन्न शासकों की नीतियों को बताया है। इन लेखकों के अनुसार बिबसार, अजातशत्रु और महापद्म नंद जैसे महत्वाकांक्षी शासकों ने मगध को महान बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
प्रश्न 6. चन्द्रगुप्त मौर्य ने किस प्रकार मौर्य साम्राज्य स्थापित किया ? संक्षेप मेंलिखिए।
उत्तर- चौथी शताब्दी ई. पू. भारत के इतिहास में अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान रखती है, क्यों इस शताब्दी में भारत में सर्वप्रथम ‘राजनीतिक एकता’ प्रदान करने वाले ‘मौर्य-साम्राज्य’ को स्थापना हुई थी। मौर्य साम्राज्य की स्थापना चन्द्रगुप्त मौर्य ने की थी, जिनकी गणना भारत के महानतम् शासकों में की जाती है।
- सिकन्दर के भारत से लौट जाने और उसकी अकाल मृत्यु के कारण पंजाब में जो अराजकता एवं अव्यवस्था फैली, उसका चन्द्रगुप्त मौर्य ने लाभ उठाया और यूनानियों के विरुद्ध उठने वाले विद्रोह का नेतृत्व किया। उसने अपने गुरु चाणक्य के सहयोग से कुछ भारतीय सैनिकों को एकत्र किया और 322 ई. पू. के लगभग यूनानियों को पंजाब से खदेड़कर वह स्वयं पंजाब का शासक बन गया। तत्पश्चात् चन्द्रगुप्त और चाणक्य ने मगध के नन्दवंशीय शासक को परास्त करने की योजना बनायी। चन्द्रगुप्त ने मगध साम्राज्य की सीमाओं से आक्रमण प्रारम्भ किया और मार्ग में जो नगर और सैन्य छावनियाँ पड़ीं, उन पर अधिकार करते हुए आगे बढ़ा और मगध साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र को घेर लिया। इस युद्ध में मगध का नंदवंशीय शासक घननन्द अपने वंशजनों सहित मारा गया। मगध में नन्दवंशीय शासक का पतन करने के पश्चात् चाणक्य ने 321 ई. पू. में चन्द्रगुप्त मौर्य को मगध के राजसिंहासन पर प्रतिष्ठित किया। इस प्रकार चन्द्रगुप्त मौर्य ने मौर्य साम्राज्य स्थापित किया।
प्रश्न 7. प्राचीन चेर राज्य के विषय में आप क्या जानते हैं ? संक्षेप में लिखिए।
उत्तर-चेर दक्षिण भारत का एक राजवंश था। इसको यदाकदा ‘केरलपुत्र’ नाम से भी जाना जाता है। इनके राज्य का विस्तार आधुनिक कोयम्बटूर, सलेम तथा करूर जिले तथा मध्य केरल के कुछ क्षेत्रों के पास केन्द्रित था। चेर शासकों में प्रथम उल्लेखनीय शासक उदीयन जीरल था। उसका पुत्र नेदुनजीरल आदन एक यशस्वी शासक था, जिसने अनेक राजाओं को पराजित कर ‘अधिराज’ की उपाधि धारण की थी और अपने राज्य का पर्याप्त विस्तार किया था।
प्रश्न 8. प्राचीन चोल राज्य के विषय में आप क्या जानते हैं ? संक्षेप में लिखिए।
उत्तर- चोल प्राचीन भारत का एक राजवंश था। चोलों का उल्लेख अत्यन्त प्राचीन काल से ही प्राप्त होने लगते हैं। चोल शासकों द्वारा स्थापित राज्य को मध्य काल के प्रारम्भ में ‘चोल मंडलम’ कहा जाता था। चोल राज्य, पेन्नार और बेलार नदियों के मध्य में पाण्ड्य राज्य के उत्तर-पूर्व में स्थित था। प्रारम्भ में इसकी राजधानी तिरुचिरापल्ली में ‘उरैयूर’ थी। चोल वंश के प्रारम्भिक शासकों में ‘करिकाल’ सर्वाधिक महत्वपूर्ण शासक था।
प्रश्न 9. आरम्भिक ऐतिहासिक नगरों में शिल्पकला के उत्पादन के प्रमाणों की चर्चा कीजिए। हड़प्पा के नगरों के प्रमाण से ये प्रमाण कितने भिन्न हैं ?
उत्तर- आरम्भिक ऐतिहासिक नगरों में शिल्पकला उत्पादन- आरम्भिक ऐतिहासिक नगरों में मृद्धांडों के साथ-साथ गहने, उपकरण, हथियार, बर्तन और सोने-चाँदी, काँस्य, ताँबे, हाथीदाँत, शीशे, शुद्ध और पक्की मिट्टी की मूर्तियाँ भी बनाई जाती थीं।दानात्मक अभिलेखों से ज्ञात होता है कि इन नगरों में धोबी, बुनकर, लिपिक, बढ़ई, कुम्हार, सुनार, लोहार आदि शिल्पकार रहते थे। लोहार लोहे का सामान बनाते थे।
हड़प्पा के नगरों से भिन्नता-आरम्भिक ऐतिहासिक नगर हड़प्पाकालीन नगरों से अनेक मामलों में भिन्न थे। दोनों काल के मकानों एवं भवनों की बनावट एवं उनमें प्रयुक्त सामग्रियों में भिन्नता थी।
हड़प्पा के लोग लोहे के प्रयोग को नहीं जानते थे, जबकि आरम्भिक ऐतिहासिक नगरों के लोग इसका प्रयोग भली-भाँति जानते थे।
हड़प्पा सभ्यता के नगर सुव्यवस्थित ढंग से बनाए जाते थे, जबकि आरम्भिक नगरों में इसका अभाव था।
दीर्घ उत्तरीय / विश्लेषणात्मक प्रश्न
प्रश्न 1. मौर्यकालीन इतिहास जानने के प्रमुख साधनों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर- मौर्यकालीन इतिहास जानने के प्रमुख साधन निम्नलिखित हैं
(1) धार्मिक साहित्य-धार्मिक साहित्य में जैन धर्म तथा बौद्ध धर्म का साहित्य तत्कालीन सामाजिक तथा राजनीतिक दशा पर प्रकाश डालता है। अन्य शब्दों में, दीपवंश तथा महावंश मौर्यकालीन सामाजिक तथा राजनीतिक दशा पर विशेष प्रकाश डालते हैं।
(2) विशाखदत्त का मुद्राराक्षस-यह संस्कृत साहित्य का प्रसिद्ध नाटक है। इसके अध्ययन से चन्द्रगुप्त, कौटिल्य, नन्दवंश तथा मगध की क्रान्ति आदि के विषय में जानकारी मिलती है।
(3) कौटिल्य का अर्थशास्त्र -कौटिल्य सम्राट चन्द्रगुप्त का मन्त्री, परामर्शदाता तथा सहायक था। उसने अर्थशास्त्र नामक ग्रन्थ की रचना की थी। इस ग्रन्थ में तत्कालीन राजनीति तथा प्रशासनिक सिद्धान्तों व न्याय प्रणाली आदि का उल्लेख है।
(4) मेगस्थनीज की इण्डिका-मेगस्थनीज को सैल्यूकस ने अपना राजदूत बनाकर चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में भेजा था। उसके द्वारा लिखित पुस्तक ‘इण्डिका’ मौर्यकालीन शासन व्यवस्था पर व्यापक प्रकाश डालती है। ‘इण्डिका’ में मौर्यकालीन अर्थव्यवस्था का भी व्यापक उल्लेख किया गया है।
(5) अशोक के शिलालेख-अशोक ने अनेक चट्टानों तथा स्तम्भों पर धर्मलेख खुदवाये थे। इन लेखों में अशोक द्वारा किये धर्म प्रचार तथा शासन व्यवस्था सम्बन्धी नियमों का वर्णन मिलता है।
प्रश्न 2. अशोक के ‘धम्म’ की प्रमुख विशेषताएँ लिखिए।
अथवा
“अशोक का धम्म, अशोक की प्रजाहित की भावना का प्रतिबिम्ब था।” इस कथन को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर- अपने प्रारम्भिक काल में अशोक हिन्दू धर्म का अनुयायी था, परन्तु कलिंग युद्ध के पश्चात् वह बौद्ध धर्म का अनुयायी हो गया। बौद्ध धर्म का अनुयायी होते हुए भी अशोक ने अपनी प्रजा को जिस धर्म पालन का आदेश दिया, वह ‘सार्वभौम धर्म’ था, अर्थात् ऐसा धर्म जिसमें सभी धर्मों के सद्गुणों का समावेश किया गया था। अशोक के धर्म की निम्नलिखित विशेषताएँ थीं
(1) अशोक के धर्म की प्रमुख विशेषता ‘सार्वभौमिकता’ है, अर्थात् उसने अपने धर्म में सभी धर्मों के सद्गुणों का समावेश किया।
(2) अशोक ने अपने धर्म में अहिंसा को विशेष महत्त्व दिया। उसने उन यज्ञों को बन्द करवा दिया, जिनमें पशुबलि होती थी।
(3) अशोक ने अपने धर्म में अनुशासन तथा शिष्टाचार को भी विशेष महत्त्व दिया। उसने अपने शिलालेखों में उत्कीर्ण किया कि-“माता-पिता की आज्ञा का पालन होना चाहिए तथा इसी प्रकार गुरुजनों की आज्ञा का भी पालन होना चाहिए।”
(4) अशोक ने सेवकों, मित्रों तथा ब्राह्मणों के साथ सद्-व्यवहार करने पर भी बल दिया।
(5) अशोक ने धार्मिक आडम्बरों का विशेष विरोध किया तथा सत्य बोलने तथा सद् आचरण पर विशेष बल दिया।
प्रश्न 3. अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए क्या-क्या कार्य किए ? उत्तर- अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए निम्नलिखित कार्य किये
(1) बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों को आचरण में लाना-अशोक ने बौद्ध धर्म का प्रसार करने के लिए सर्वप्रथम बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों का पालन उचित ढंग से किया, उसने स्वयं माँस खाना तथा शिकार करना छोड़ दिया।
(2) बौद्ध धर्म को राजकीय धर्म घोषित करना- बौद्ध धर्म ग्रहण कर लेने के पश्चात्
अशोक ने बौद्ध धर्म को राजकीय धर्म घोषित कर दिया तथा समस्त राजकीय साधनों को बौद्ध
धर्म के प्रचार में लगा दिया। इससे प्रजा बौद्ध धर्म की ओर विशेष आकर्षित होने लगी।
(3) धर्म महामात्रों की नियुक्ति-बौद्ध धर्म के व्यापक प्रचार के लिए अशोक ने धर्म महामात्रों की नियुक्ति की, जो यह देखते थे कि लोग बौद्ध धर्म के नियमों का ठीक प्रकार से पालन कर रहे हैं या नहीं।
(4) धर्म यात्राएँ-बौद्ध धर्म ग्रहण करने के पश्चात् अशोक ने गुरु उपगुप्त के साथ बौद्ध धर्म से सम्बन्धित स्थानों की यात्राएँ आरम्भ कीं। इन यात्राओं ने जनता को बौद्ध धर्म के प्रति आकर्षित किया।
(5) धार्मिक सिद्धान्तों को शिलालेख, स्तम्भ आदि पर अंकित कराना-बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए अशोक ने बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों की शिलाओं, गुफाओं तथा स्तम्भों पर भी उत्कीर्ण कराया।
(6) जनसाधारण की भाषा का प्रयोग-अशोक ने बौद्ध धर्म का प्रसार पाली भाषा में किया जो उस समय जनसाधारण की भाषा थी। इससे बौद्ध धर्म का व्यापक प्रसार हुआ।
(7) बौद्ध मठों का निर्माण-बौद्ध धर्म का प्रचार करने के लिए अशोक ने अनेक मठों का निर्माण करवाया। इन मठों में बौद्ध भिक्षु तथा भिक्षुणियाँ रहते थे तथा बौद्ध धर्म के प्रसार में सहयोग प्रदान करते थे।
.(8) तृतीय बौद्ध सम्मेलन का आयोजन-बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों को स्पष्ट करने के लिए अशोक ने 252 ई. पू. में पाटलिपुत्र में एक बौद्ध सम्मेलन किया।
(9) बौद्ध धर्म का विदेशों में प्रचार- अशोक ने भारत में बौद्ध धर्म का प्रचार करने के अतिरिक्त विदेशों में भी बौद्ध धर्म का प्रसार करने का प्रयास किया। अशोक ने अपने पुत्र और पुत्री, महेन्द्र तथा संघमित्रा को लंका में बौद्ध धर्म का प्रचार करने के लिए भेजा था।
प्रश्न 4. अशोक के अभिलेखों के बारे में आप क्या जानते हैं ? संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर- अशोक ने अपने शासनकाल में जगह-जगह अभिलेखों को अंकित कराया। उसने विभिन्न स्थानों पर शिलाओं तथा स्तम्भों पर अपने विचारों को लिखवाया। उसके द्वारा स्थापित शिला-अभिलेख और स्तम्भ-अभिलेख उसके धम्म प्रचार का साधन भी थे। अशोक द्वारा लिखवाए गए अधिकांश अभिलेख ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण हैं, लेकिन कुछ अभिलेखों में खरोष्ठी लिपि व आरमेइक लिपि का भी प्रयोग किया गया है। सर्वप्रथम 1838 ई. में जेम्स प्रिंसेप नामक विद्वान ने अशोक के अभिलेखों को पढ़ने में सफलता हासिल की थी। अशोक द्वारा लिखवाये गये अभिलेखों को हम तीन भागों में विभाजित कर सकते हैं, जिनका वर्णन निम्नांकित है
(1) महाशिलालेख – अशोक द्वारा शिलाओं पर लिखवाये गए राज्यादेशों में चौदह महाशिलालेख सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं। इन शिलालेखों में प्रशासन सम्बन्धी एवं धम्म सम्बन्धी चौदह प्रमुख आदेशों/नीतियों का उल्लेख होने के कारण इन्हें चौदह महाशिलालेखों के नाम से जाना जाता है। ये महाशिलालेख मानसेहरा, शहबाजगढ़ी, कलसी, कंदहार, गिरनार, सोपरा, शिशुपालगढ़, जौगड़, सन्नति से प्राप्त हुए हैं।
(2) लघु शिलालेख – अशोक द्वारा लिखवाए गए लघु शिलालेखों में उसके व्यक्तिगत जीवन और उसकी बौद्ध धर्म के प्रति गहन आस्था तथा धम्म के सार का उल्लेख है। ये लघु शिलालेख वैराट, बहपुर, भाब्रू, मस्की, जतिंगरामेश्वर, पाल्कीगुंडु, गावीमठ, उदेगोलाम राजुलमंडगिरि, ब्रह्मगिरि, नित्तूर और सिद्धपुर से प्राप्त हुए हैं।
(3) स्तम्भ लेख – अशोक के अनेक पाषाण स्तम्भ लेख प्राप्त हुए हैं। अशोक ने पाषाण स्तम्भों पर छ: या सात लेखों का समूह उत्कीर्ण कराया। उल्लेखनीय है कि टोपरा स्तम्भ पर सात अभिलेखों का समूह उत्कीर्ण है, जबकि अन्य स्तम्भों पर छह अथवा कम अभिलेखों के समूह उत्कीर्ण हैं। अशोक के स्तम्भ लेख टोपरा, मेरठ, निगालीसागर, रुम्मिनदेई, रामपुरवा, लौरिया-नन्दनगढ़, लौरिया अरराज, सारनाथ, सहसराम, अहटौरा, कौशाम्बी, गुजर और सांची में प्राप्त हुए हैं।
अशोक के अभिलेखों का भारतीय इतिहास में विशिष्ट महत्व है। इन अभिलेखों से सम्राट की कलिंग विजय, उपलब्धियों, प्रशासनिक नीतियों एवं धम्म सम्बन्धी सिद्धान्तों की जानकारी के साथ-साथ उसके पर राष्ट्र के विषय में जानकारी है। इसके अतिरिक्त अशोक द्वारा उत्कीर्ण अभिलेख कला की दृष्टि से भी अत्यन्त प्रशंसनीय हैं।
प्रश्न 5. मौर्य प्रशासन के प्रमुख अभिलक्षणों की चर्चा कीजिए। अशोक के अभिलेखों में इनमें से कौन-कौन से तत्वों के प्रमाण मिलते हैं ?
उत्तर- कौटिल्य के अर्थशास्त्र, मेगस्थनीज की इण्डिका, अशोक के अभिलेखों और अनेक यूनानी रचनाओं से मौर्य प्रशासन के अभिलक्षणों के विषय में महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है, जिसका विवरण निम्नांकित हैं
(1) केन्द्रीय प्रशासन –
(क) राजा-मौर्य काल में राजतन्त्रात्मक शासन व्यवस्था प्रचलित थी, अतः शासन का प्रधान ‘राजा’ होता था। शासन की सम्पूर्ण शक्तियाँ राजा के हाथ में निहित होती थीं। लेकिन सर्वोच्च शक्तियों का स्वामी होने पर भी वह स्वेच्छाचारी व निरंकुश नहीं होता था। यद्यपि राजा सर्वोच्च प्रशासक, मुख्य न्यायाधीश और प्रधान सेनापति था, फिर भी वह अपने मन्त्रिपरिषद् को सहायता से लोककल्याणकारी कार्यों को सम्पादित करता था।
(ख) मन्त्रिपरिषद् – राजा को उसके शासन कार्यों में सहायता देने के लिए एक मन्त्रिपरिषद् होती थी। मन्त्रिपरिषद् के परामर्श को मानने के लिए राजा किसी भी प्रकारसे बाध्य नहीं था, परन्तु फिर भी वह उनका उपयोगी परामर्श मानता था मन्त्रिपरिषद् के सदस्यों को राजा ही नियुक्त करता था मन्त्रिपरिषद् के सदस्य विश्वासपात्र, ईमानदार एवं कर्तव्यपरायण व्यक्ति होते थे।
मन्त्रिपरिषद् के अतिरिक्त एक अन्य छोटी उपसमिति भी होती थी, जिसमें साधारणतया तीन अथवा चार मन्त्री होते थे। इसे ‘मन्त्रिणः’ कहा जाता था। ऐसे विषय, जिसमें तुरन्त निर्णय लेना हो, राजा ‘मन्त्रिणः’ से परामर्श करता था।
(ग) विभागीय व्यवस्था – राजा तथा मन्त्रिपरिषद् के द्वारा तो मुख्य रूप से नीति-निर्धारण का कार्य किया जाता था। राजा तथा मन्त्रिपरिषद् द्वारा निर्धारित नीतियों को कार्यान्वित करने का प्रमुख कार्य नौकरशाही द्वारा किया जाता था मौर्य काल में नौकरशाही अत्यन्त सुसंगठित एवं सुव्यवस्थित थी तथा विशाल साम्राज्य के प्रशासनिक कार्यों को सुगमतापूर्वक करती थी। मौर्य काल में प्रशासन की सुविधा के लिए अठारह शीर्षस्थ अधिकारियों की व्यवस्था की गई थी, जिन्हें ‘तीर्थ’ कहा जाता था। ‘तीर्थों’ को ‘ आमात्य’ के नाम से भी पुकारा जाता था। इन शीर्षस्थ अधिकारियों के नीचे ‘ युक्त’ तथा ‘उपयुक्त’ नामक द्वितीय श्रेणी के पदाधिकारी होते थे, जिन्हें ‘अध्यक्ष’ कहा जाता था। यूनानी लेखकों ने इन्हें ‘मजिस्ट्रेट’ लिखा है। केन्द्रीय विभागीय व्यवस्था के अंतर्गत नियुक्त इन अधिकारियों को सामान्यत: मुद्राओं में वेतन दिया जाता था।
(2) प्रान्तीय प्रशासन-मौर्य साम्राज्य अत्यन्त विशाल था और इतने बड़े साम्राज्य का प्रबन्ध सुचारू रूप से एक केन्द्र से नहीं हो सकता था, अतः मौर्य शासकों ने प्रशासनिक सुविधा को ध्यान में रखते हुए अपने साम्राज्य को छ: प्रान्तों में बाँट दिया था। इन प्रान्तों को ‘चक्र’ कहा जाता था। इन प्रान्तों पर शासन करने के लिए राजवंशीय लोगों को ही प्रान्तपति के रूप में नियुक्त किया जाता था, जिन्हें ‘कुमार’ कहा जाता था प्रान्तों के प्रान्तपति सम्राट के आदेशानुसार प्रान्तों का शासन करते थे।
प्रत्येक प्रान्त अनेक मण्डलों में विभक्त होता था मण्डल को ‘विषय’ कहा जाता था ‘विषय’ का शासन ‘विषयपति’ नामक पदाधिकारी के अधीन होता था। प्रत्येक मण्डल विभिन्न जनपदों में विभक्त होता था। जनपद का प्रशासनिक अधिकारी ‘स्थानिक’ कहलाता था प्रत्येक जनपद प्रशासन की सुविधा के लिए अनेक नगरों में विभक्त होता था प्रत्येक
नगर अनेक ग्रामों में विभक्त होता था। ग्राम सबसे छोटी प्रशासनिक इकाई होती थी 10 ग्रामों के समूह को ‘संग्रहण’, 200 ग्रामों के समूह को ‘खावंटिक’, 400 ग्रामों के समूह को ‘द्रोणमुख’ व 800 ग्रामों के समूह को ‘स्थानीय’ कहा जाता था।
(क) ग्राम प्रशासन मौर्यकालीन प्रशासन की सबसे छोटी इकाई ग्राम होती थी, जहाँ – ‘ग्रामिक’ नामक अधिकारी होता था। ‘ग्रामिक’ ग्रामसभा का प्रधान भी होता था। ग्रामसभा का निर्वाचन ग्रामवासियों द्वारा किया जाता था। ग्रामसभा को गाँव के शासन, पुल और सड़क निर्माण आदि कार्य करने के अतिरिक्त न्याय के भी अधिकार प्राप्त थे।
(ख) नगर प्रशासन- मौर्य काल में नगर प्रशासन व्यवस्था उच्चकोटि की थी। प्रशासन के लिए नगर वार्डों में विभाजित होता था। वार्ड का अधिकारी ‘स्थानिक’ होता था। वार्ड को भी अन्य छोटे-छोटे टुकड़ों में बाँटा जाता था, जिसमें कई परिवारों के मकान सम्मिलित होते थे, इनकी देखभाल ‘गोप’ नामक अधिकारी करता था। सम्पूर्ण नगर की देखभाल के लिए एक उच्च अधिकारी होता था, जिसकी सहायता के लिए आधुनिक म्यूनिसिपल बोर्ड की भाँति 30 सदस्यों की एक सभा होती थी। यह सभा छः छोटी समितियों में बँटी होती थी, जिनमें से प्रत्येक में पाँच सदस्य होते थे। प्रत्येक समिति अलग-अलग कार्यों की देखभाल करती थी।
(3) न्याय प्रशासन- मौर्यकालीन न्याय व्यवस्था सुव्यवस्थित एवं उच्चकोटि की थी। साम्राज्य में अनेक न्यायालय होते थे। न्याय प्रशासन का सबसे छोटा न्यायालय ग्राम का होता था, जिसमें ‘ग्रामिक’ ग्रामसभा की सहायता से न्याय कार्य सम्पादित करता था। ग्राम न्यायालय से ऊपर ‘ संग्रहण’, ‘द्रोणमुख’, ‘स्थानीय’ व ‘जनपद’ के न्यायालय होते थे। जनपद न्यायालय के ऊपर पाटलिपुत्र स्थित केन्द्रीय न्यायालय होता था, इससे ऊपर राजा का न्यायालय होता था। राजा सर्वोच्च न्यायाधीश होता था, जिसका निर्णय अन्तिम एवं सर्वमान्य होता था।
ग्राम एवं राजा के न्यायालय के अतिरिक्त अन्य सभी न्यायालय दो प्रकार के होते थे- धर्मस्थीय एवं कंटकशोधन न्यायालय धर्मस्थीय न्यायालय एक प्रकार से दीवानी न्यायालय होता था और कंटकशोधन न्यायालय एक प्रकार से फौजदारी न्यायालय होता था।
(4) राजस्व प्रशासन- मौर्य काल में राजस्व प्रशासन, प्रशासन का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भाग था। मौर्य काल में राज्य की आय का प्रमुख साधन भूमिकर था, जो साधारणतया पैदावार का 1/6 भाग होता था। इसके अतिरिक्त नगरों एवं जनपदों से भी राज्य को आय प्राप्त होती थी। विभिन्न नगरों से प्राप्त होने वाली आय को ‘दुर्ग’ कहा जाता था, और विभिन्न जनपदों से होने वाली आय को ‘राष्ट्र’ कहा जाता था। आधुनिक युग के समान विक्रीकर आयात कर, निर्यात कर एवं अर्थदण्ड के द्वारा भी राज्य की आय होती थी।
राजस्व विभाग का सर्वोच्च अधिकारी ‘समाहर्ता’ होता था, जिसके अधीन शुल्काध्यक्ष, सूत्राध्यक्ष, मुद्राध्यक्ष आदि अनेक कर्मचारी कार्य करते थे।
(5) गुप्तचर व्यवस्था – मौर्य काल में राज्य में शान्ति और सुव्यवस्था स्थापित करने के उद्देश्य से गुप्तचर विभाग की स्थापना की गई थी। राज्य में अपराधियों को पकड़वाना तथा राजकीय नियमों का पालन करवाना गुप्तचर विभाग के कर्मचारियों का प्रमुख कार्य होता था। मौर्य काल में गुप्तचरों को ‘चर’ कहा जाता था। गुप्तचर स्त्री व पुरुष दोनों ही होते थे। गुप्तचरों के कार्यों पर निगाह रखने के लिए भी गुप्तचर होते थे। इस प्रकार गुप्तचर व्यवस्था दोहरी थी।
(6) सैन्य प्रशासन – मौर्य सम्राटों की सेना विशाल और शक्तिशाली थी। यह सेना युद्ध विभाग के नियन्त्रण में रहती थी। यह विभाग पाँच-पाँच सदस्यों के छह मण्डलों- पैदल सेना, नौ सेना, अश्व सेना, रथ सेना, गज सेना व सैनिक सेना में विभक्त था। मौर्य सेना विभिन्न 3 हथियारों से सुसज्जित थी। सेना का सर्वोच्च अधिकारी सेनापति होता था। सैनिकों को नियमित रूप से वेतन मिलता था तथा उन्हें राज्य की ओर से अनेक सुविधाएँ उपलब्ध थीं।
(7) लोकहित के कार्य- मौर्य सम्राटों ने जनसाधारण की सुख-सुविधाओं को ध्यान में रखते हुए अनेक लोकहित के कार्य भी किए। मौर्य शासकों ने भूमि की उर्वरा शक्ति को बढ़ाने के लिए सिंचाई के उचित प्रबन्ध किए। राज्य की ओर से साम्राज्य के विभिन्न भागों को निःशुल्क प्याऊ की व्यवस्था की गई थी। मौर्य शासकों द्वारा अनेक स्थानों पर धर्मशालाओं, सड़क मार्ग से जोड़ा गया। यात्रियों की सुविधा के लिए सड़कों के किनारे वृक्ष लगवाए गए तथा औषधालयों एवं विद्यालयों की स्थापना भी की गई थी।
अशोक के अभिलेखों में मौर्य प्रशासन के प्रमुख तत्व
अशोक के अभिलेखों में मौर्य प्रशासन के अनेक तत्वों की झलक प्राप्त होती है। अशोक के अभिलेखों में मौर्य प्रशासन के प्रमुख केन्द्रों पाटलिपुत्र, उज्जैन, सुवर्णगिरि, तोशाली और कौशाम्बी आदि का उल्लेख कई बार किया गया है। कलिंग अभिलेख से ज्ञात होता है कि तोशाली और उज्जैन के शासनाध्यक्षों को ‘कुमार’ कहा जाता था। अशोक के ब्रह्मगिरि-सिद्धपुर अभिलेखों में सुवर्णगिरि के शासनाध्यक्ष को ‘आर्यपुत्र’ कहा गया है।
अशोक का सबसे महत्वपूर्ण कार्य ‘धर्म महामात्रों की नियुक्ति करना था। धर्म- महामात्रों का कार्य प्रजा में शुद्ध नैतिक जीवन का प्रचार तथा उसका नैतिक एवं भौतिक स्तर ऊँचा करना था। अशोक के महाशिलालेख से ज्ञात होता है कि उसने अपने राज्याभिषेक के तेरह वर्ष बाद महामात्रों की नियुक्ति प्रारंभ की थी।
अशोक के अभिलेखों से ज्ञात होता है कि अशोक ने राज्य का स्थाई रूप से दौरा करने के लिए ‘व्युष्ट’ नामक अधिकारी नियुक्त किए थे। व्युष्ट नामक अधिकारियों का प्रमुख कार्य जनता की समस्याओं से परिचित होना था।
प्रश्न 6. वर्णित काल में कृषि के तौर-तरीकों में किस हद तक परिवर्तन हुए ?
उत्तर- वर्णित काल में कृषि की उपज को बढ़ाने के लिए अनेक उपायों का अनुसरण किया गया। कृषि उपज में वृद्धि करने का एक उपाय हल का प्रचलन था। यह तथ्य उल्लेखनीय है कि गंगा एवं कावेरी की घाटियों में उर्वर कछारी क्षेत्र में छठी शताब्दी ई. पू. से ही हल का से प्रयोग किया जाने लगा था। किसान लोग भारी वर्षा वाले क्षेत्रों में लोहे के फाल वाले हलों के माध्यम से उर्वर भूमि की जुताई करने लगे थे। गंगा की घाटी में धान की रोपाई का प्रचलन प्रारंभ होने से कृषि उपज में उल्लेखनीय वृद्धि प्रारंभ हुई, इसके लिए किसानों को अथक परिश्रम करना पड़ता था।
यह तथ्य उल्लेखनीय है कि लोहे के फाल वाले हलों के उपयोग से फसलों की उपज में पर्याप्त वृद्धि हुई, लेकिन इन हलों का प्रयोग उपमहाद्वीप के कुछ ही क्षेत्रों में किया जाता था। पंजाब एवं राजस्थान जैसे अर्द्धशुष्क भूमि वाले क्षेत्रों में लोहे के फाल वाले हलों का प्रचलन बीसवीं शताब्दी में प्रारंभ हुआ। उपमहाद्वीप के पूर्वोत्तर तथा मध्य पर्वतीय क्षेत्रों में रहने वाले किसान कृषि के लिए कुदाल का उपयोग करते थे, क्योंकि इन क्षेत्रों की कृषि भूमि के लिए – कुदाल हल की अपेक्षा अधिक उपयोगी थी।
वर्णित काल में कृषि की उपज बढ़ाने के लिए एक और महत्वपूर्ण उपाय सिंचाई के कृत्रिम साधनों की व्यवस्था करना था। सिंचाई के कृत्रिम साधनों में कुओं, तालाबों और नहरों का महत्वपूर्ण स्थान था। सिंचाई के इन साधनों का निर्माण व्यक्तिगत लोगों और कृषक समुदायों ने मिलकर किया। व्यक्तिगत तौर पर सिंचाई के साधनों-कुओं, तालाबों और नहरों को निर्मित करने वाले लोग प्रायः राजा या प्रभावशाली व्यक्ति होते थे। इन लोगों ने अपने इन कार्यों का उल्लेख अपने अभिलेखों में भी करवाया था।
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