अध्याय 3
बंधुत्व, जाति तथा वर्ग- आरम्भिक समाज
वस्तुनिष्ठ प्रश्न
बहु-विकल्पीय प्रश्न
- संस्कृत भाषा का ‘आदिकाव्य’ किस ग्रन्थ को कहा जाता है ?
(अ) रामायण,
(ब) महाभारत,
(स) इलियड,
(द) रामचरितमानस
- ‘रामायण’ के मौलिक रचनाकार कौन थे ?
(अ) गोस्वामी तुलसीदास,
(स) वेद व्यास,
(ब) महर्षि वाल्मीकि,
(द) मनु ।
- पौराणिक सन्दर्भों के अनुसार ‘महाभारत’ के रचनाकार कौन थे ?
(अ) श्रीकृष्ण,
(ब) गोस्वामी तुलसीदास,
(द) महर्षि वाल्मीकि
(स) वेदव्यास,
- उपलब्ध ‘महाभारत’ में कितने पर्व हैं ?
(अ) आठ,
(ब) बारह,
(स) सोलह,
(द) अट्ठारह।
- ‘शतसाहस्री संहिता’ के नाम से किस ग्रन्थ को जाना जाता है ?
(अ) महाभारत,
(ब) रामायण
(स) रामचरितमानस,
(द) मनुस्मृति ।
उत्तर- 1. (अ), 2. (ब), 3. (स), 4. (द), 5. (अ)।
- रिक्त स्थानों की पूर्ति
- उपलब्ध महाभारत में लगभग ………श्लोकों का संग्रह है।
- महाभारत का प्रमुख विषय…….. के मध्य हुए युद्ध की कथा है।
- कुरू राज्य की राजधानी……….. में स्थित थी।
- अपने गोत्र कुल से बाहर विवाह करने को ……..कहा जाता था।
- शुंग और कण्व वंश के राजा …… जाति से सम्बन्धित थे।
उत्तर – 1. एक लाख, 2. कौरवों और पांडवों, 3. हस्तिनापुर, 4. बहिर्विवाह, 5. ब्राह्मण।
सत्य / असत्य
- उपलब्ध महाभारत ‘शतसाहस्री संहिता’ कहलाता है।
- कुरुक्षेत्र के युद्ध के दौरान गुरु द्रोणाचार्य ने अर्जुन को ‘गीता’ का ज्ञान प्रदान किया था।
- समाज में पितृवंशिक व्यवस्था महाभारत की रचना से पहले भी मौजूद थी।
- मनुस्मृति हिन्दू-विधि पर सर्वाधिक प्रमाणिक ग्रन्थ माना जाता है।
- समाज में गांधर्व, असुर, राक्षस और पैशाच विवाह को अच्छा माना जाता है।
उत्तर – 1. सत्य, 2. असत्य, 3. सत्य, 4. सत्य, 5. असत्य।
सही जोड़ी बनाइए
‘ब’
- हस्तिनापुर का उत्खनन. (i) युधिष्ठिर
- महाभारत का समालोचनात्मक संस्करण. (ii) श्रीकृष्ण
- गीता का ज्ञान. (iii) बी. बी. लाल
- हस्तिनापुर के राजा. (iv) वी. एस. सुकथांकर
- पाण्डवों के ज्येष्ठ भ्राता. (v) विचित्रवीर्य ।
उत्तर – 1. → (iii), 2. → (iv), 3. → (ii), 4. → (v), 5. → (i).
एक शब्द / वाक्य में उत्तर
- संस्कृत भाषा में रचित कितने ग्रन्थों को ‘महाकाव्य’ की संज्ञा प्राप्त है ?
- ‘रामचरितमानस’ के रचनाकार कौन थे ?
- महाकाव्य ‘महाभारत’ का प्रारम्भिक नाम क्या था ?
- ‘महाभारत’ किस भाषा का ग्रन्थ है ?
- सर्वाधिक प्राचीन स्मृति कौन-सी मानी जाती है ?
उत्तर – 1. दो, 2. गोस्वामी तुलसीदास, 3. जय, 4. संस्कृत, 5. मनुस्मृति।
अति लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. संस्कृत भाषा में रचित दो भारतीय महाकाव्यों के नाम लिखिए।
उत्तर- संस्कृत भाषा में रचित दो भारतीय महाकाव्यों के नाम निम्नांकित हैं-(1) महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित ‘रामायण’ और (2) वेदव्यास द्वारा रचित ‘महाभारत’ ।
प्रश्न 2. वेदव्यास ने किस महाकाव्य की रचना की थी ?
उत्तर – वेदव्यास ने ‘महाकाव्य’ नामक महाकाव्य की रचना की थी। इस महाकाव्य का प्रारम्भिक नाम ‘जय’ था। उपलब्ध ‘महाभारत’, ‘शतसाहस्त्री संहिता’ कहलाता है, क्योंकि इसमें एक लाख श्लोकों का संग्रह है। यह विश्व के साहित्य का सबसे बड़ा महाकाव्य माना जाता है।
प्रश्न 3. ‘पितृवंशिकता’ से आपका क्या तात्पर्य है ?
उत्तर- वह वंश परम्परा जो पिता के बाद पुत्र, फिर पौत्र और प्रपौत्र आदि से चलती है; पितृवंशिकता कहलाती है।
प्रश्न 4. ‘मातृवंशिकता’ से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर- वह वंश परम्परा जो मातृपक्ष के अनुसार चलती है, मातृवंशिकता कहलाती है।
प्रश्न 5. ‘गोत्र’ शब्द से आपका क्या अभिप्राय है?
उत्तर – ‘गोत्र’ शब्द का अर्थ है-कुल, वंश और परिवार दूसरे शब्दों में एक ही पूर्वज की संतान या उत्तराधिकारियों को एक गोत्र के अन्तर्गत रखा जाता है। प्रत्येक गोत्र का नामकरण किसी एक वैदिक संत के नाम पर है और उस गोत्र के प्रत्येक व्यक्ति को उनका वंशज माना जाता है।
प्रश्न 6. ‘महाभारत’ का क्या ऐतिहासिक महत्व है ?
उत्तर- ‘महाभारत’ ग्रन्थ से तत्कालीन समय के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा धार्मिक विकास के विषय में जानकारी प्राप्त होती है।
प्रश्न 7. महाकाव्यों की रचना मुख्यतः किस भाषा में की गई है ? इनकी रचना का श्रेय किन्हें दिया जाता है ?
उत्तर- महाकाव्यों की रचना मुख्यत: संस्कृत भाषा में की गई है। ‘महाभारत’ की रचना का श्रेय वेदव्यास को दिया जाता है, जबकि ‘रामायण’ की रचना का श्रेय महर्षि वाल्मीकि को दिया जाता है।
प्रश्न 8. मध्य एशिया से आए शकों को ब्राह्मण क्या मानते थे ? उनके सुप्रसिद्ध शासक का नाम व उसका योगदान लिखिए।
उत्तर- ब्राह्मण मध्य एशिया से आए शकों को मलेच्छ और बर्बर मानते थे। उनके सुप्रसिद्ध शासक रुद्रदामन थे, जिन्होंने गिरनार में सुदर्शन झील की मरम्मत कराई थी।
प्रश्न 9. धर्मशास्त्रों के अनुसार ब्राह्मणों की दो आदर्श जीविकाओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर- धर्मशास्त्रों के अनुसार ब्राह्मणों की आदर्श जीविकाएँ थीं- अध्ययन करना और करवाना, वेदों की शिक्षा देना, यज्ञ करना और करवाना तथा दान लेना और देना।
प्रश्न 10. धर्मशास्त्रों के अनुसार क्षत्रियों के किन्हीं दो आदर्श कार्यों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर- धर्मशास्त्रों के अनुसार क्षत्रियों के दो आदर्श कार्य थे- (1) युद्ध करना, (2) जन-सामान्य को सुरक्षा प्रदान करना तथा न्याय करना।
लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. ‘महाभारत’ के प्रमुख विषय पर प्रकाश डालिए।
उत्तर-‘महाभारत’ का प्रमुख विषय दो परिवारों के बीच हुए कुरुक्षेत्र के युद्ध अर्थात् कौरवों और पाण्डवों के मध्य हुए युद्ध की कथा है। महाभारत के कथानक के अनुसार उत्तरो भारत के गंगा-यमुना के दोआब क्षेत्र में भरतवंशीय क्षत्रिय कुल का शासन था। इसी कुल के राजकुमारों पाण्डवों और कौरवों के मध्य राज्याधिकार को प्राप्त करने के उद्देश्य से यह युद्ध लड़ा गया था। इसी युद्ध में श्रीकृष्ण, जो यदुवंशी नरेश और भगवान विष्णु के अवतार माने जाते हैं, ने इस युद्ध के दौरान अर्जुन को ‘गीता’ का ज्ञान प्रदान किया था। कुरुक्षेत्र के इस युद्ध में पाण्डवों को विजय प्राप्त हुई। इस विजय के परिणामस्वरूप ज्येष्ठ पाण्डव राजकुमार युधिष्ठिर राजा बने, युधिष्ठिर के बाद परीक्षित राजा हुए, तत्पश्चात् परीक्षित के पुत्र जन्मेजय शासक बने, जिन्हें ऐतिहासिक राजा माना जाता है। इस महाकाव्य में न केवल युद्ध की घटनाओं का ही वर्णन ही है, बल्कि इस ग्रन्थ में विभिन्न सामाजिक समुदायों एवं परिस्थितियों का लेखा-जोखा है।
प्रश्न 2. सामाजिक जीवन और उसमें घटित होने वाले परिवर्तनों की प्रक्रिया का अध्ययन करने के लिए इतिहासकार कौन-सी परम्पराओं का सहारा लेते हैं ? संक्षेप में लिखें।
उत्तर- सामाजिक जीवन में होने वाले परिवर्तनों की प्रक्रिया को समझने के लिए इतिहासकार प्रायः साहित्यिक परम्पराओं का सहारा लेते हैं। कुछ साहित्यिक ग्रन्थों से हमें समाज के व्यवहार के मानदंडों की जानकारी मिलती है तो कुछ ग्रन्थ हमें समाज में विद्यमान विभिन्न परम्पराओं और रीति-रिवाजों की जानकारी प्रदान करते हैं। उदाहरणार्थ- संस्कृत भाषा में रचित ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ भारत के दो सुप्रसिद्ध महाकाव्य हैं। ये दोनों महाकाव्य भारतीय जनमानस में अत्यन्त लोकप्रिय हैं। इन महाकाव्यों से समकालीन समाज के बारे में महत्वपूर्ण जानकारियाँ प्राप्त होती हैं।
प्रश्न 3. ‘महाभारत’ की मूलकथा के रचयिता संभवतः कौन थे तथा वे और क्या करते थे ?
उत्तर- इतिहासकारों का मानना है कि सम्भवतः महाभारत की मूलकथा के रचनाकार भाट सारथी थे, जिन्हें ‘सूत’ नाम से जाना जाता था। ये सूत लोग क्षत्रिय योद्धाओं के साथ रणक्षेत्र में जाते थे और कविता के माध्यम से उनकी वीर गाथाओं और उपलब्धियों का बखान करते थे। सूतों द्वारा गाई जाने वाली मौखिक रचनाएँ एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचती रहीं।
प्रश्न 4. क्या यह सम्भव है कि महाभारत का एक ही रचयिता था ? चर्चा कीजिए।
उत्तर- सम्भवतः महाभारत की मूलकथा के रचयिता भाट सारथी थे, जिन्हें सूत कहा जाता था। ये क्षत्रिय योद्धाओं के साथ युद्ध क्षेत्र में जाते थे और उनकी विजय तथा उपलब्धियों के बारे में कविताएँ गाया करते थे। इन रचनाओं का प्रेषण मौखिक रूप में हुआ। पाँचव शताब्दी ई. पू. से ब्राह्मणों द्वारा इस कथा परम्परा पर एकाधिकार कर लिया गया और इसे लिखा गया। यह वह काल था जब कुरु और पांचाल राज्य, जिनके इर्द-गिर्द महाभारत कथा घूमती है, मात्र सरदारी से राजतंत्र के रूप में उभर रहे थे। ऐसा माना जाता है कि सम्भवतः नए राज अपने इतिहास को अधिक नियमित रूप से लिखवाने के इच्छुक थे, अथवा यह भी सम्भव है कि नवीन राज्यों की स्थापना के फलस्वरूप होने वाली उथल-पुथल ने पुराने सामाजिक मूल्यों के स्थान पर नवीन मानदंडों की स्थापना को आवश्यक बना दिया था।
इतिहासकारों का मानना है कि महाभारत की रचना दीर्घकाल तक चलती रही। लगभग 200 ई. पू. से 200 ई. के मध्य इस ग्रन्थ की रचना का एक और चरण प्रारम्भ हुआ। यह वह काल था जब अराध्य देव के रूप में भगवान विष्णु के महत्व में वृद्धि हो रही थी तथा महाकाव्य के महत्वपूर्ण नायकों में से एक श्रीकृष्ण को विष्णु का रूप बताया जा रहा था। ऐसा माना जाता है कि लगभग 200-400 ई. के काल में मनुस्मृति से मिलते-जुलते बड़े-बड़े उपदेशात्मक प्रकरणों को जोड़ दिया गया, जिसके परिणामस्वरूप यह ग्रन्थ एक लाख श्लोकों वाला ग्रन्थ बन गया।
प्रश्न 5. स्पष्ट कीजिए कि विशिष्ट परिवारों में पितृवंशिकता क्यों महत्वपूर्ण रही होगी ?
उत्तर- पितृवंशिकता से अभिप्राय ऐसी वंश परम्परा से है जो पिता के पुत्र, फिर पौत्र, प्रपौत्र आदि से चलती है। विशिष्ट परिवारों में शासक परिवार तथा धनी लोगों के परिवार शामिल हैं, इन परिवारों में पितृवंशिकता निम्नलिखित दो कारणों से अनिवार्य रही होगी –
(1) वंश परम्परा को चलाने के लिए धर्मसूत्रों के अनुसार वंश को पुत्र ही आगे बढ़ाते हैं, पुत्रियाँ नहीं। इसलिए प्रायः सभी परिवारों में उत्तम पुत्रों की प्राप्ति की कामना की जाती थी।
(2) उत्तराधिकार सम्बन्धी झगड़ों से बचने के लिए माता-पिता नहीं चाहते थे – कि उनकी मृत्यु के बाद उनके परिवार में सम्पत्ति के उत्तराधिकार के लिए कोई झगड़ा हो । राजपरिवारों के सन्दर्भ में उत्तराधिकार में राजगद्दी भी शामिल थी। राजा की मृत्यु के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र राजगद्दी का उत्तराधिकारी बन जाता था। इसी प्रकार माता-पिता की मृत्यु के बाद उनकी सम्पत्ति को उनके पुत्रों में बाँट दिया जाता था। अतः अधिकतर राजवंश लगभग छठी शताब्दी ई. पू. से ही पितृवंशिकता का अनुसरण करते आ रहे थे, हालांकि इस प्रथा में विभिन्नता भी थी; जैसे- (i) पुत्र के न होने पर एक भाई दूसरे का उत्तराधिकारी बन जाता था, (ii) कभी-कभी सगे-सम्बन्धी भी सिंहासन पर अपना अधिकार जमा लेते थे, (iii) कुछ विशिष्ट में स्त्रियाँ भी सत्ता का उपभोग करती थीं, प्रभावती गुप्त इसका उदाहरण है।
प्रश्न 6. बहिर्विवाह पद्धति की परिभाषा दीजिए। इसे अपनाने का एक कारण लिखिए।
उत्तर- समाज में दो प्रकार की विवाह पद्धतियाँ-‘अन्तर्विवाह’ और ‘बहिर्विवाह’ का प्रचलन था। ‘अन्तर्विवाह’ के अन्तर्गत वैवाहिक सम्बन्ध समूह के मध्य ही होते थे, यह समूह एक गोत्र कुल अथवा एक जाति या फिर एक ही स्थान पर रहने वाले लोगों का हो सकता था। अपने गोत्र कुल से बाहर विवाह करने को ‘बहिर्विवाह’ कहा जाता था। उच्च वर्णों में समगोत्र में विवाह करना मना था। अतः समाज में ‘बहिर्विवाह पद्धति’ को अधिक अच्छा समझा जाता था।
प्रश्न 7. धर्मशास्त्रों के अनुसार विवाह के प्रकारों में से किन विवाहों को उत्तम विवाह माना जाता था ? संक्षेप में लिखिए।
उत्तर- धर्मशास्त्रों में विवाह के आठ प्रकारों-ब्रह्म विवाह, दैव विवाह, आर्ष विवाह, प्रजापात्य विवाह, असुर विवाह, गांधर्व विवाह, राक्षस विवाह और पैशाच विवाह का वर्णन मिलता है। इन विवाहों में से अग्रांकित विवाहों को उत्तम माना जाता था
(1) ब्रह्म विवाह-ब्रह्म विवाह को विवाह का सर्वश्रेष्ठ स्वरूप माना गया है। मनुस्मृति में इस विवाह के विषय में लिखा गया है कि कन्या का पिता सावधानीपूर्वक वेदज्ञ, सच्चरित्र और श्रुतिवान वर का चयन करके उसे अपने घर में बुलाता है और अपनी पुत्री को वस्त्राभूषणों से सुसज्जित कर कन्यादान के रूप में उसे प्रदान करता है।
(2) दैव विवाह – दैव विवाह के सन्दर्भ में मनुस्मृति में लिखा है, “यज्ञ के समय यज्ञ को उचित प्रकार से कराने वाले पुरोहित को अलंकारों से सुसज्जित करके जब पिता द्वारा कन्या दान में दी जाती है, तब इस प्रकार के विवाह को ‘दैव विवाह’ कहा जाता है। चूँकि अनुष्ठान (यज्ञ) देवताओं के लिए होते थे, इसलिए इसे ‘दैव विवाह’ की संज्ञा दी गई।
(3) आर्ष विवाह- इस विवाह में कन्या का पिता वर को कन्या प्रदान करने के बदले एक जोड़ा बैल और गाय लेता था। यह विवाह पुरोहित या ऋषि परिवारों में ही प्रचलित था।
(4) प्रजापात्य विवाह – इस विवाह में पिता यह कहकर कि “तुम दोनों मिलकर आजीवन धर्म का आचरण करो” अपनी पुत्री को वर की पूजा करके सौंपता था।
प्रश्न 8. क्या आरम्भिक राज्यों में शासक निश्चित रूप से क्षत्रिय ही होते थे ? चर्चा कीजिए।
अथवा
“शास्त्रों के अनुसार केवल क्षत्रिय ही शासक बन सकते थे।” क्या आप इस कथन से सहमत हैं या असहमत हैं ? साक्ष्यों सहित अपने उत्तर की पुष्टि कीजिए।
उत्तर- धर्मसूत्रों और धर्मशास्त्रों के अनुसार केवल क्षत्रिय ही शासक हो सकते थे, परन्तु ऐसे कई उदाहरण है, जहाँ इस परम्परा को नहीं माना गया और राजवंशों की उत्पत्ति अन्य वर्णों से हुई है। मौर्य शासक सम्भवतः क्षत्रिय वर्ण से नहीं थे। ब्राह्मणीय ग्रन्थों के अनुसार वे ‘निम्न’ कुल से आते हैं, यद्यपि बौद्ध ग्रन्थों में उन्हें क्षत्रिय कहा गया है। इसी प्रकार शुंग और कण्व शासक ब्राह्मण थे। शक शासकों को मलेच्छ माना जाता था। सातवाहन कुल के सबसे शक्तिशाली शासक गौतमी- पुत्र – सिरी- सातकनि ने स्वयं को एक ब्राह्मण और साथ ही क्षत्रियों के दर्प का हनन करने वाला बताया था। उपरोक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि शासक केवल क्षत्रिय वर्ण के ही नहीं थे बल्कि वे अन्य वर्णों से भी आते थे।
प्रश्न 9. द्रोण, हिडिम्बा और मातंग की कथाओं में धर्म के मानदण्डों की तुलना कीजिए व उनके अन्तर को भी स्पष्ट कीजिए।
उत्तर- द्रोण की कथा-द्रोण एक ब्राह्मण थे, जो कुरु वंश के राजकुमारों को धनुर्विद्या की शिक्षा देते थे। धर्मसूत्रों के अनुसार शिक्षा देना ब्राह्मण का कर्म था। इस प्रकार द्रोण अपने धर्म का पालन कर रहे थे। उस समय निषाद शिक्षा नहीं पा सकते थे। इसलिए उन्होंने एकलव्य को अपना शिष्य नहीं बनाया, परन्तु उससे गुरु दक्षिणा में दायें हाथ का अंगूठा ले लेना धर्म के विपरीत था। इसका अर्थ यह हुआ कि उन्होंने अंततः उसे अपना शिष्य स्वीकार कर लिया, परन्तु वास्तव में यह उनका स्वार्थ था। उन्होंने अर्जुन को दिए गए अपने वचन को निभाने के लिए ऐसा तुच्छ कार्य किया। वह नहीं चाहते थे कि संसार में अर्जुन से बढ़कर कोई धनुर्धारी हो ।
हिडिंबा की कथा-हिडिंबा एक राक्षसिनी थी। राक्षसों को नरभक्षी बताया गया है। उसके भाई ने उसे पांडवों को पकड़कर लाने का आदेश दिया था, ताकि वह उन्हें अपना आहार बना सके; परन्तु उसने अपने धर्म का पालन नहीं किया। उसने पांडवों को पकड़कर लाने की बजाय भीम से विवाह कर लिया और एक पुत्र को जन्म दिया। इस प्रकार उसने राक्षस कुल की मर्यादा को भंग किया।
मातंग की कथा – मातंग बोधिसत्व थे, जिन्होंने एक चांडाल के घर जन्म लिया था। उनका विवाह एक व्यापारी की पुत्री दिथ्य से हुआ था। उनके यहाँ एक पुत्र हुआ जिसका नाम मांडव्य कुमार था। मांडव्य बड़ा होने पर तीन वेदों का ज्ञाता बना। वह प्रतिदिन 16000 ब्राह्मणों को भोजन कराता था, परन्तु एक दिन जब उसका पिता ( मातंग) फटे-पुराने वस्त्रों में उसके द्वार पर आया और उससे भोजन माँगा, तो उसने भोजन देने से इन्कार कर दिया। उसने मातंग को पतित कहकर उसे अपमानित किया। अत: मातंग आकाश में अदृश्य हो गए। इस घटना का पता जब दिथ्य को चला, तो मातंग से माफी माँगने के लिए वह उसके पीछे आई। इस प्रकार उसने पत्नी धर्म निभाया, परन्तु मांडव्य के व्यवहार से घमंड झलकता है। दानी व्यक्ति तो उदार होता है, परन्तु मांडव्य ने उदारता की मर्यादा अथवा धर्म का पालन नहीं किया।
प्रश्न 10. ब्राह्मणों द्वारा विभिन्न वर्गों के लिए निर्धारित नियमों का पालन करवाने के लिए अपनाई गई किन्हीं दो नीतियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर- ब्राह्मणों द्वारा विभिन्न वर्गों के लिए निर्धारित नियमों का पालन करवाने के लिए कुछ नीतियों का अनुसरण किया गया, जिनका विवरण निम्नांकित है
(अ) ब्राह्मणों के द्वारा वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति को दैवीय बताया गया तथा जनसामान्य को यह विश्वास दिलाया गया कि जाति व्यवस्था को ईश्वर द्वारा बनाया गया है, परिणामतः लोग बिना किसी प्रतिरोध के अपने लिए निर्धारित कार्यों को करने लगे।
(ब) ब्राह्मणों ने विभिन्न राज्यों के शासकों को भी यह उपदेश देकर प्रोत्साहित किया कि वे अपने-अपने राज्यों में इस व्यवस्था के नियमों का अनुसरण करें।
(स) ब्राह्मणों ने लोगों को यह विश्वास दिलाने का प्रयत्न किया कि उनकी प्रतिष्ठा जन्म पर आधारित है, ईश्वर उन्हें समाज में जिस स्तर पर रखना चाहता है, उससे सम्बद्ध जाति में जन्म देता है।
प्रश्न 11. किन मायनों में सामाजिक अनुबन्ध की बौद्ध अवधारणा समाज के उस ब्राह्मणीय दृष्टिकोण से भिन्न थी जो ‘पुरुषसूक्त’ पर आधारित था ?
उत्तर – ऋग्वेद के ‘पुरुषसूक्त’ के अनुसार समाज में चार वर्णों की उत्पत्ति आदि मानव ‘पुरुष’ की बलि से हुई थी। ये वर्ण थे- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। इन वर्णों के अलग-अलग कार्य थे। ब्राह्मणों को समाज में सर्वोच्च स्थान प्राप्त था। वे धर्मशास्त्रों का अध्ययन व शिक्षण का कार्य करते थे। क्षत्रिय वीर योद्धा थे, वे शासन चलाते थे। वैश्य व्यापार करते थे। शूद्रों का काम अन्य तीन वर्णों की सेवा करना था। इस प्रकार समाज में विषमता व्याप्त थी। इस व्यवस्था में सामाजिक प्रतिष्ठा का आधार जन्म था।
बौद्ध अवधारणा इस सामाजिक अनुबन्ध के विपरीत थी। उन्होंने इस बात को तो स्वीकार किया कि समाज में विषमता विद्यमान थी परन्तु उनके अनुसार यह विषमता न तो प्राकृतिक थी और न ही स्थायी। उन्होंने जन्म के आधार पर सामाजिक प्रतिष्ठा को भी अस्वीकार कर दिया।
प्रश्न 12. ‘महाभारत’ के एक गतिशील ग्रन्थ के रूप में हुए विकास का वर्णन कीजिए।
उत्तर- महाकाव्य ‘महाभारत’ एक गतिशील ग्रन्थ है। इसका विकास संस्कृत के पाठ के साथ ही समाप्त नहीं हो गया, अपितु अनेक शताब्दियों से इसके अनेक पाठान्तर भिन्न-भिन्न भाषाओं में लिखे जाते रहे। ये सब इनके रचनाकारों, अन्य लोगों और समुदायों के मध्य स्थापित हुए संवादों को दर्शात थे। महाभारत के प्रमुख कथानक की अनेक पुनर्व्याख्याएँ भी की गईं। महाभारत की पुनर्व्याख्याओं में मुख्य कथावस्तु को बहुत ही सृजनात्मक ढंग से प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। आधुनिक काल की सुप्रसिद्ध समसामयिक बांग्ला लेखिका महाश्वेता देवी ने महाभारत के एक प्रसंग का रूपांतरण किया है, जो शोषण के विरुद्ध अपनी आवाज उठाने के लिए प्रसिद्ध है। महाश्वेता देवी ने महाभारत की मुख्य कथावस्तु के लिए अन्य विकल्प खोजे हैं और जनसाधारण का ध्यान उन प्रश्नों की ओर खींचा है, जिनका संस्कृत पाठ में कोई उत्तर प्राप्त नहीं होता है, इस संदर्भ में उनकी लघु कथा ‘ कुन्ती ओ निषादी’ भी विशेष रूप से उल्लेखनीय है। महाभारत के अनेक प्रसंगों का दिग्दर्शन मूर्तिकला के माध्यम से भी किया गया है। इस महाकाव्य ने नाटकों और नृत्य कलाओं के लिए विषय-वस्तु प्रदान की है।
दीर्घ उत्तरीय / विश्लेषणात्मक प्रश्न
प्रश्न 1. सामाजिक इतिहास के पुनर्निर्माण में साहित्यिक स्रोतों का प्रयोग करते हुए इतिहासकारों को किन-किन पहलुओं पर ध्यान देना पड़ता है ? विस्तार से समझाएँ ।
उत्तर- किसी काल विशेष के सामाजिक इतिहास के पुनर्निर्माण में साहित्यिक स्रोतों का उपयोग करते समय इतिहासकारों को अनेक पहलुओं पर विचार करना पड़ता है। उदाहरणार्थ – ग्रन्थ किस भाषा में लिखा गया है, क्या ग्रन्थ एक वर्ग विशेष अथवा पुरोहितों द्वारा प्रयोग में लाई जाने वाली संस्कृत भाषा में लिखा है अथवा आम लोगों द्वारा बोली जाने वाली पालि, प्राकृत अथवा तमिल भाषा में लिखा है। इसके अतिरिक्त इतिहासकार ग्रन्थ के प्रकार पर भी विचार करते हैं, उदाहरणार्थ-क्या ग्रंथ में अनुष्ठानकर्ताओं द्वारा पढ़े या उच्चरित किए जाने वाले मंत्र हैं अथवा कथा वर्णित है जिन्हें जनसामान्य पढ़ और सुन सकता है। इसके अलावा इतिहासकार को ग्रन्थ के रचनाकार के दृष्टिकोण पर भी विचार करना पड़ता है कि रचनाकार ने किस दृष्टिकोण से अपने विचारों को ग्रन्थ के रूप में प्रस्तुत किया है। इसके अतिरिक्त इतिहासकार किसी भी निष्कर्ष पर पहुँचने से पहले ग्रन्थ के रचना काल और उसकी रचना – भूमि का भी विश्लेषण करते हैं। इस प्रकार उक्त सभी विषयों का जायजा लेने के पश्चात् ही इतिहासकार किसी भी विशेष की विषय-वस्तु का इस्तेमाल इतिहास के पुनर्निर्माण के लिए करते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि इतिहासकारों को महाभारत जैसे विशाल और जटिल ग्रंथ का समकालीन सामाजिक इतिहास के पुनर्निर्माण में प्रयोग करते हुए उक्त सभी विषयों को ध्यान रखना पड़ा होगा।
प्रश्न 2. धर्मशास्त्रों के अनुसार चारों वर्गों के क्या-क्या कार्य थे ? विवेचना कीजिए। अथवा
धर्मसूत्रों तथा धर्मशास्त्रों में चारों वर्गों के लिए आदर्श जीविका से जुड़े नियमों की विवेचना कीजिए ।
उत्तर- ऋग्वैदिक काल में आर्यों द्वारा समाज का वर्गीकरण चार वर्णों-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में किया गया था। यह वर्गीकरण कार्य करने की योग्यता व क्षमता पर आधारित था, इसका जन्म या आनुवंशिकता से कोई सम्बन्ध नहीं था। लेकिन उत्तर वैदिक काल में यह वर्ण व्यवस्था जन्म पर आधारित जाति व्यवस्था में परिवर्तन होने लगी। अलग-अलग व्यवसायों के आधार पर अलग-अलग जातियों का प्रादुर्भाव होने लगा। इस वर्ण व्यवस्था में सर्वोच्च स्थान ब्राह्मणों का था। ब्राह्मणों ने ऋग्वेद के दसवें मण्डल में पुरुष सूक्त’ के बारहवें मंत्र (ब्रह्मरूपी पुरुष के श्रीमुख से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय, उदर से वैश्य और चरणों से शूद्रों की उत्पत्ति के हुई) का आश्रय लेकर वर्ण व्यवस्था को ‘दैवीय’ बना दिया। इस मंत्र के माध्यम से उन्होंने यह प्रमाणित करने का प्रयत्न किया कि चारों वर्णों अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र की उत्पत्ति सृष्टिकर्ता प्रजापति के शरीर से हुई है।
इस प्रकार समाज में व्यक्ति का वर्ण जन्म के आधार पर निर्धारित किया जाने लगा। प्रत्येक जाति के लिए उसका कार्य निर्धारित कर दिया गया। ब्राह्मणों का कार्य अध्ययन, वेदों की शिक्षा, यज्ञ करना व करवाना तथा दान लेना व देना था क्षत्रियों का कार्य युद्ध करना, लोगों की सुरक्षा करना, न्याय करना, वेद पढ़ना, यज्ञ करवाना तथा दान देना था। वैश्यों का कार्य कृषि करना, गौ-पालन करना और व्यापार कर्म करना था। शूद्रों का कार्य समाज के उक्त तीनों वर्गों की सेवा करना था।
प्रश्न 3. आरम्भिक समाज में स्त्री-पुरुष के सम्बन्धों की विषमताएँ कितनी महत्वपूर्ण रही होंगी ? कारण सहित उत्तर दीजिए।
अथवा
मनुस्मृति के अनुसार माता-पिता की मृत्यु के बाद पैतृक जायदाद का बँटवारा किस प्रकार किया जाता था ? विशेष रूप से महिलाओं के अधिकारों का वर्णन कीजिए।
उत्तर- आरम्भिक समाज में स्त्री-पुरुष के सम्बन्धों में अनेक विषमताएँ विद्यमान थीं। यद्यपि समाज में स्त्रियों को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था, लेकिन उनका दर्जा पुरुषों की तुलना में गौण था विचाराधीन काल में समाज का प्रमुख आधार परिवार था। परिवार पितृसत्तात्मक होते थे। पितृसत्तात्मक परिवार होने के कारण पुत्र प्राप्ति लोगों की सामान्य इच्छा थी। पुरुष को महत्व दिया जाता था। पुत्र प्राप्ति के लिए प्रार्थनाएँ की जाती थीं।
धर्मशास्त्रों में वर्णित जानकारी से ज्ञात होता है कि सम्पत्ति के स्वामित्व के प्रश्न पर स्त्री और पुरुषों के अधिकारों में भिन्नता थी। मनुस्मृति के अनुसार माता-पिता की मृत्यु के उपरान्त पैतृक सम्पत्ति अथवा जायदाद पर सभी पुत्रों का अधिकार होना चाहिए, किन्तु सबसे बड़े पुत्र को विशेष भाग दिया जाना चाहिए। मनुस्मृति में यह भी वर्णित है कि स्त्रियाँ पैतृक सम्पत्ति में हिस्सेदारी की माँग नहीं कर सकती थी। लेकिन विवाह के समय मिले उपहारों पर स्त्रियों का अधिकार माना जाता था तथा इसे ‘स्त्रीधन’ कहा जाता था। स्त्रीधन को उनकी सन्तान विरासत के रूप में प्राप्त कर सकती थी, लेकिन स्त्रीधन पर पति का कोई अधिकार नहीं होता था। मनुस्मृति में यह भी स्पष्ट रूप से उल्लिखित है कि स्त्रियों को अपने पति की आज्ञा के बिना पारिवारिक सम्पत्ति तथा स्वयं अपने बहुमूल्य धन का गुप्त संचय नहीं करना चाहिए।
विचाराधीन काल में उच्च एवं सम्पन्न वर्ग की कुछ स्त्रियों का आर्थिक संसाधन पर अधिकार भी होता था। लेकिन सामान्यत: आर्थिक संसाधनों, जैसे- भूमि, पशु व धन पर पुरुषों का ही नियंत्रण होता था। संभवतः यही कारण था कि स्त्रियों को समाज में पुरुषों के समान महत्वपूर्ण स्थान नहीं दिया गया था। महाभारत में वर्णित कथा – युधिष्ठिर द्वारा द्रोपदी को जुए में दाँव पर लगाए जाने के प्रसंग से स्पष्ट होता है कि पत्नी को पति की सम्पत्ति माना जाता था और उस पर सदैव पति का स्वामित्व रहता था।
प्रश्न 4. उन साक्ष्यों की चर्चा कीजिए जो यह दर्शाते हैं कि बंधुत्व और विवाह सम्बन्धी ब्राह्मणीय नियमों का सर्वत्र अनुसरण नहीं होता था।
उत्तर- ब्राह्मणों द्वारा रचित धर्मशास्त्रों से तत्कालीन सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और राजनीतिक जीवन के विषय में महत्वपूर्ण जानकारियाँ प्राप्त होती हैं, इन धार्मिक ग्रन्थों में हिन्दुओं के लिए आचार संहिताओं का वर्णन था। इन आचार संहिताओं के रचयिताओं का मानना था कि बन्धुत्व और विवाह सम्बन्धी ब्राह्मणीय नियम, जो उनके द्वारा बनाए गए थे उनका पालन सभी के द्वारा किया जाना चाहिए था, किन्तु वास्तविकता में ऐसा प्रचलन में नहीं था। क्योंकि भारत जैसे विस्तृत भू-क्षेत्र वाले विशाल देश में अनेक क्षेत्रीय विभिन्नताएँ विद्यमान भू थीं, विभिन्न क्षेत्रों में सामाजिक सम्बन्धों में अनेक जटिलताएँ भी विद्यमान थीं, इसके अतिरिक्त आवागमन व संचार साधन भी अविकसित थे। ऐसी परिस्थितियों में सर्वत्र ब्राह्मणीय नियमों का अनुसरण नहीं होता था। ये सभी परिस्थितियाँ ब्राह्मणों के सार्वभौमिक प्रभाव में बाधक थीं।
विचाराधीन काल में अनेक दृष्टांतों के माध्यम से ज्ञात होता है कि बन्धुत्व एवं विवाह सम्बन्धी ब्राह्मणीय नियमों का सर्वत्र अनुसरण नहीं किया जाता था। उदाहरणार्थ- महाभारत के कथानक के अनुसार हस्तिनापुर के शासक विचित्रवीर्य की मृत्यु के उपरान्त उनका छोटा पुत्र गद्दी पर बैठा, क्योंकि बड़ा पुत्र धृतराष्ट्र नेत्रहीन था। धृतराष्ट्र के पुत्रों अर्थात् कौरवों को यह बात अच्छी नहीं लगी। पांडु की मृत्यु के उपरान्त कौरवों में राजसिंहासन प्राप्त करने की उत्कंठा तीव्र हो गई, जिसके परिणामस्वरूप महाभारत का युद्ध हुआ, जिसमें पांडु पुत्रों की विजय हुई और अंतत: पांडवों के सबसे बड़े भाई युधिष्ठिर को पितृवंशिक व्यवस्था के आदर्श के अनुसार राजसिंहासन प्राप्त हुआ; लेकिन इस नियम के अनुसरण में यदाकदा विभिन्नताएँ देखने को मिलीं, जैसे गुप्त वंशीय शासक रामगुप्त के बाद उसका भाई चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य राजसिंहासन पर आसीन हुआ। इसी प्रकार थानेश्वर के शासक राज्यवर्धन की मृत्यु के बाद उनका भाई हर्षवर्धन शासक बना विशेष परिस्थितियों में प्रभावती गुप्त जैसी प्रभावशाली महिला द्वारा भी राज-सत्ता को संचालित किया गया। ब्राह्मणीय नियमों के अनुसार स्त्रियों को सम्पत्ति का अधिकारी नहीं माना गया था, लेकिन इसके विपरीत प्रभावती गुप्त द्वारा ब्राह्मणों को दान स्वरूप गाँव दिए जाने प्रमाण भी मिलते हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि ब्राह्मणीय नियम स्थान, व्यक्ति और परिस्थिति के अनुसार बदल जाते थे।
ब्राह्मणीय नियमों के अनुसार स्त्रियाँ अपने पति का गोत्र धारण करती थीं, परन्तु सातवाहन शासक की महारानियों ने अपने पिता के गोत्र को अपनाया।
ब्राह्मणीय नियमों के अनुसार चचेरे, ममेरे और मौसेरे आदि भाई-बहनों में रक्त सम्बन्ध होने के कारण विवाह वर्जित था, लेकिन दक्षिण भारत के अनेक समुदाय इस नियम को अनुसरण नहीं करते थे।
इसी प्रकार ब्राह्मणीय नियमों के अनुसार विवाह के आठ प्रकारों में से ब्रह्म विवाह, प्रजापात्य विवाह, आर्ष विवाह और दैव विवाह को ही अच्छा माना जाता था। गांधर्व, असुर,राक्षस और पैशाच विवाह को निंदित माना जाता था। संभवतः ये चारों प्रकार के विवाह उन लोगों में प्रचलित थे जो ब्राह्मणीय नियमों का अनुसरण नहीं करते थे।
प्रश्न 5. स्मृति ग्रन्थों में वर्णित विभिन्न प्रकार के विवाहों का वर्णन कीजिए।
उत्तर- धर्मशास्त्रों में विवाह के आठ प्रकारों का उल्लेख मिलता है। इनमें प्रथम चार विवाह के श्रेष्ठ स्वरूप हैं तो शेष चार निंदित या निकृष्ट स्वरूप माने जाते हैं। मनुस्मृति में कहा गया है कि प्रथम चार विवाहों से उत्पन्न सन्तान शीलवान, यशस्वी, अध्ययनशील और सम्पत्ति वाली होती है। जबकि अगले चार विवाहों के फलस्वरूप मिथ्याचारी, दुराचारी और धर्म विरोधी सन्तान होती है। इन विवाहों का वर्णन निम्नांकित है
(1) ब्रह्म विवाह-ब्रह्म विवाह को विवाह का सर्वश्रेष्ठ स्वरूप माना गया है। मनु स्मृति में इस विवाह के विषय में लिखा गया है कि कन्या का पिता सावधानीपूर्वक वेदज्ञ, सच्चरित्र और श्रुतिवान वर का चयन करके उसे अपने घर में बुलाता है और अपनी पुत्री को वस्त्राभूषणों से सुसज्जित कर कन्या दान के रूप में उसे प्रदान करता है। इस विवाह का मुख्य उद्देश्य शारीरिक और मानसिक कर्त्तव्यों के द्वारा ब्रह्म को प्राप्त करना है। इसी कारण इस विवाह को ब्रह्म विवाह कहा जाता है।
(2) दैव विवाह – दैव विवाह के संदर्भ में मनुस्मृति में उल्लिखित है, “यज्ञ के समय यज्ञ को उचित प्रकार से कराने वाले पुरोहित को अलंकारों से सुसज्जित करके जब पिता द्वारा कन्या दान में दी जाती है, तब इस प्रकार के विवाह को ‘दैव विवाह’ कहा जाता है। चूँकि अनुष्ठान (यज्ञ) देवताओं के लिए होते थे, इसलिए इसे ‘दैव विवाह’ की संज्ञा दी गई।
(3) आर्ष विवाह- इस विवाह में कन्या का पिता वर को कन्या प्रदान करने के बदले एक जोड़ा बैल और गाय लेता था। यह विवाह पुरोहित या ऋषि परिवारों में ही प्रचलित था।
(4) प्रजापत्य विवाह – इस विवाह में पिता यह कहकर कि “तुम दोनों मिलकर आजीवन धर्म का आचरण करो” अपनी पुत्री को वर की पूजा करके सौंपता था। ऐसे विवाह को प्रजापात्य विवाह कहा जाता है। यह विवाह एक प्रकार से ब्रह्म विवाह से मिलता-जुलता है।
(5) असुर विवाह – मनु स्मृति के अनुसार, जब विवाह के इच्छुक व्यक्ति कन्या के माता-पिता या कन्या को धन देकर कन्या से विवाह करता है, तो इस प्रकार के विवाह को असुर विवाह कहते हैं।
(6) गांधर्व विवाह- मनु स्मृति में गान्धर्व विवाह के विषय में उल्लिखित है, “कन्या व वर की इच्छा होने पर प्रेम के फलस्वरूप संभवतः काम योग से जो वैवाहिक संस्कार होता है, उसे गान्धर्व विवाह कहते हैं।” इस प्रकार के विवाहों में माता-पिता की इच्छा व परामर्श को कोई महत्व नहीं दिया जाता है। यद्यपि अधिकांश शास्त्रकारों ने इस प्रकार के विवाहों की कटु आलोचना की है, परन्तु कामसूत्र नामक ग्रंथ में इस प्रकार के विवाहों को उत्तम श्रेणी का माना है।
(7) राक्षस विवाह – इसमें कन्या को बलपूर्वक हरण करके अथवा कन्या का बलपूर्वक उसके पिता एवं परिवार वालों से छीनकर विवाह किया जाता था, यह राक्षस विवाह कहलाता है।
(8) पैशाच विवाह- यह सर्वाधिक निम्नकोटि का विवाह माना जाता है। इसमें निद्रामग्न, उन्मत्त कन्या से सम्बन्ध बनाकर बाद में उससे विवाह कर लिया जाता था, इस प्रकार के विवाह को पैशाच विवाह कहा जाता था।
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