MP Board Class 12th History chapter 4 विचारक, विश्वास और इमारतें-सांस्कृतिक विकास important Questions in Hindi Medium (इतिहास)

अध्याय      4

विचारक, विश्वास और इमारतें-सांस्कृतिक विकास

 

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

 

बहु-विकल्पीय प्रश्न

 

  1. जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर कौन थे ?

 

(अ) महावीर स्वामी,

 

(ब) ऋषभदेव,

 

(स) पार्श्वनाथ,

 

(द) अरिष्टनेमि ।

 

  1. महावीर स्वामी जैन धर्म के कौन-से तीर्थंकर माने जाते हैं ?

 

(अ) पहले,

 

(ब) दूसरे,

 

(स) तेइसवें,

 

(द) चौबीसवें ।

 

  1. महावीर स्वामी का वास्तविक नाम क्या था ?

 

(अ) सिद्धार्थ,

 

(ब) राहुल,

 

(स) वर्धमान,

 

(द) इनमें से कोई नहीं।

 

 

  1. जैन धर्म के अनुसार

 

(अ) आत्मा का अस्तित्व है,

 

(ब) आत्मा का अस्तित्व नहीं है,

 

(स) जैन धर्म आत्मा विषय पर मौन है,

 

(द) ये तीनों तथ्य गलत हैं।

 

  1. जैन धर्म के दो प्रमुख सम्प्रदाय हैं, जिनमें से एक को ‘ दिगम्बर’ के नाम से जान जाता है, दूसरे को किस नाम से जाना जाता है ?

 

(अ) पीताम्बर,

 

,(ब) श्वेताम्बर,

 

(स) अद्वैतवाद

 

(द) इनमें से कोई नहीं।

 

 

  1. महात्मा बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश किस स्थान पर दिया था ?

 

(अ) सारनाथ,

 

(स) राजगृह,

 

(ब) बोधगया,

 

(द) कौशाम्बी।

 

  1. महात्मा बुद्ध के प्रथम उपदेश को क्या कहा गया ?

 

(अ) सम्बोधि,

 

(स) महाभिनिष्क्रमण,

 

(ब) धर्म चक्र प्रवर्तन, –

 

(द) इनमें से कोई नहीं।

 

  1. चतुर्थ बौद्ध संगीति किस शासक के शासनकाल में आयोजित की गई थी ?

 

(अ) अशोक,

 

(ब) कनिष्क,

 

(द) रुद्रदामन ।

 

(स) हुविष्क,

 

  1. बौद्ध धर्म की विभाजित नवीन शाखा को किस नाम से जाना गया ?

 

(अ) हीनयान,

 

(ब) महायान,

 

(द) श्वेताम्बर।

 

(स) अद्वैतयान,

 

  1. साँची का स्तूप किसके द्वारा बनवाया गया था ?

 

(अ) मौर्य सम्राट अशोक द्वारा,

 

(ब) कुषाण शासक कनिष्क द्वारा,

 

(स) शुंग शासक पुष्यमित्र शुंग द्वारा,

 

(द) इनमें से कोई नहीं।

 

उत्तर- 1. (ब), 2. (द), 3. (स), 4. (अ), 5. (ब), 6. (अ), 7. (ब), 8. (ब), 9. (ब) 10. (अ)।

 

  • रिक्त स्थानों की पूर्ति

 

  1. महावीर स्वामी जैन धर्म के………तीर्थंकर थे।

 

  1. महावीर स्वामी के पिता का नाम ………..था।

 

  1. महावीर स्वामी की माँ का नाम …………था।

 

 

 

  1. महावीर स्वामी के बचपन का नाम………..था।

 

  1. महात्मा बुद्ध के पिता का नाम……….था।

 

  1. महात्मा बुद्ध की माता का नाम ……..था।

 

  1. महात्मा बुद्ध के उपदेशों और वचनों का संकलन……… के अंतर्गत किया गया है।

 

  1. भोपाल की नवाब (शासिका)………. ने साँची स्तूप के संरक्षण में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

 

उत्तर- 1. चौबीसवें, 2. सिद्धार्थ, 3. त्रिशला, 4. वर्धमान, 5. शुद्धोधन, 6. महामाया, 7. त्रिपिटक, 8. शाहजहाँ बेगम

 

सत्य / असत्य

 

  1. जैन धर्म ईश्वर को सृष्टि के रचयिता एवं पालनकर्त्ता के रूप में स्वीकार करता है।

 

  1. जैन धर्म के अनुयायी वेदों में विश्वास करते हैं।

 

  1. ‘पंच महाव्रत’ बौद्ध धर्म के प्रमुख सिद्धान्तों में से एक है।

 

  1. महात्मा बुद्ध आत्मा के अस्तित्व में विश्वास नहीं करते थे।
  2. साँची के स्तूप का निर्माण सम्राट हर्ष ने करवाया था।

 

उत्तर- 1. असत्य, 2. असत्य, 3. असत्य, 4. सत्य, 5. असत्य।

 

सही जोड़ी बनाइए

 

‘अ’.                                             ‘ब’

 

  1. पंच महाव्रत. (i) महात्मा बुद्ध के पिता

 

  1. चार आर्यसत्य. (ii) जैन धर्म

 

  1. भगवद्गीता. (iii) बौद्ध धर्म

 

  1. सिद्धार्थ (iv) वैष्णव धर्म

 

  1. शुद्धोधन. (v) महावीर स्वामी के पिता

 

 

उत्तर 3-1. (ii), 2. → (iii), 3. (iv), 4. → (v), 5. → (i).

 

एक शब्द / वाक्य में उत्तर

 

  1. पार्श्वनाथ जैन धर्म के कौन-से तीर्थंकर थे ?

 

  1. जैनधर्म में कितने तीर्थंकर हुए ?

 

  1. जैन धर्म के सिद्धान्तों में जीवन का अंतिम लक्ष्य क्या बताया गया है ?

 

  1. महात्मा बुद्ध को सच्चे ज्ञान की प्राप्ति किस दिन हुई थी ?

 

  1. महात्मा बुद्ध के ज्ञान प्राप्ति की घटना को क्या कहा गया ?

 

उत्तर – 1. तेइसवें, 2. चौबीस, 3. निर्वाण, 4. बैसाख पूर्णिमा के दिन, 5. सम्बोधि

 

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

 

प्रश्न 1. महावीर स्वामी के अनुयायियों को जैन क्यों कहा जाता है ?

उत्तर-‘जैन’ शब्द संस्कृत के ‘जिन्’ शब्द से बना है, जिसका अर्थ है ‘विजेता’; अर्थात् वह व्यक्ति जिसने अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर ली हो। ज्ञान प्राप्ति के बाद महावीर स्वामी, जिन् कहलाए। इस प्रकार जैन उन लोगों को कहा जाता है, जो जिन् अर्थात् जितेन्द्रिय के अनुयायी हैं और जिस धर्म का ये अनुसरण करते हैं उसे जैन धर्म के नाम से जाना जाता है।

 

प्रश्न 2. जैन धर्म के त्रिरत्न कौन-कौन से हैं ?

उत्तर- जैन धर्म के अनुसार मोक्ष प्राप्ति के लिए ‘त्रिरत्न’ का पालन करना नितांत आवश्यक है। ये त्रिरत्न हैं-(1) सम्यक् ज्ञान, (2) सम्यक् दर्शन, (3) सम्यक् चरित्र । ।

 

प्रश्न 3. जैन धर्म के कोई दो सिद्धान्त समझाइए

उत्तर- (1) ईश्वर में अविश्वास- जैन धर्म ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करता। जैन धर्म के अनुसार संसार अनादि और अनन्त है। जैन धर्म ईश्वर के स्थान पर तीर्थंकारों में आस्था तथा विश्वास रखता है।

(2) कर्म सिद्धान्त में विश्वास जैन धर्म के अनुसार मनुष्य को उत्तम कर्म करने – चाहिए, क्योंकि उसे अपने कर्मों का फल भोगना पड़ता है।

 

प्रश्न 4. जैन धर्म के दो प्रमुख सम्प्रदायों (शाखाओ) के नाम लिखिए।

उत्तर- महावीर स्वामी की मृत्यु के लगभग दो सौ वर्षों बाद जैन धर्म मुख्यतः दो शाखाओं में विभक्त हो गया- (1) दिगम्बर जैन, (2) श्वेताम्बर जैन। ये दोनों शाखाएँ आज तक विद्यमान हैं।

 

प्रश्न 5. ‘धर्मचक्र प्रवर्तन से आप क्या समझते हैं ? संक्षेप में लिखिए।

उत्तर- ‘धर्मचक्र प्रवर्तन’ का अर्थ है, धर्म के चक्र को घुमाना ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् महात्मा बुद्ध ने सारनाथ में अपना जो पहला धर्मोपदेश दिया था, उसे ‘धर्म-चक्र प्रवर्तन’ के नाम से जाना जाता है।

 

प्रश्न 6. बौद्ध धर्म के ‘चार आर्य सत्य’ कौन-कौन से हैं ?

 

उत्तर- बौद्ध धर्म के ‘चार आर्य सत्य’ निम्नांकित हैं

(1) दु:ख, (2) दु:ख समुदय, (3) दु:ख निरोध, (4) दुःख निरोधगामिनी ।

 

प्रश्न 7. महात्मा बुद्ध की कोई दो शिक्षाओं के बारे में लिखिए।

उत्तर- (1) वेदों में अविश्वास- महात्मा बुद्ध ने वैदिक कर्मकाण्डों तथा रीतियों का विरोध किया। उनका मानना था कि यज्ञ तथा बलि आदि व्यर्थ के आडम्बर हैं।

 

(2) जाति प्रथा का विरोध- महात्मा बुद्ध जाति प्रथा के भी विरोधी थे। वह मनुष्यों की समानता में विश्वास करते थे। उनका मानना था कि सभी मनुष्य समान हैं, जाति के आधार पर कोई छोटा-बड़ा नहीं है।

 

प्रश्न 8. ज्ञान प्राप्त करने के लिए सिद्धार्थ ने अंततः क्या किया ? ज्ञान प्राप्त करने के बाद वह किस नाम से जाने गये ?

उत्तर- ज्ञान प्राप्ति के लिए सिद्धार्थ ने कठिन तपस्या के मार्ग को त्याग दिया, तत्पश्चात् वह गया (बिहार) पहुँचे, वहाँ उन्होंने एक वट वृक्ष के नीचे समाधि लगायी और प्रतिज्ञा की कि जब तक ज्ञान प्राप्त नहीं होगा, वे वहाँ से नहीं हटेंगे। सात दिन व सात रात समाधिस्थ रहने के उपरान्त आठवें दिन बैशाख पूर्णिमा के दिन उन्हें सच्चे ज्ञान की प्राप्ति हुई। ज्ञान प्राप्ति के उपरान्त उन्हें महात्मा बुद्ध के नाम से जाना गया।

 

प्रश्न 9. महात्मा बुद्ध के जीवन से सम्बन्धित कोई चार स्थानों का उल्लेख कीजिए।

उत्तर – (1) लुम्बिनी वन- जहाँ महात्मा बुद्ध का जन्म हुआ।

(2) कपिलवस्तु – जहाँ महात्मा बुद्ध का पालन-पोषण हुआ। (3) बोधगया – जहाँ महात्मा बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति हुई।

(4) सारनाथ – जहाँ महात्मा बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश दिया।

 

प्रश्न 10. जातक ग्रन्थों से आप क्या समझते हैं ?

उत्तर- जातक ग्रन्थ, पाली भाषा में लिखे गए बौद्ध ग्रन्थ हैं। जातक ग्रन्थों में महात्मा बुद्ध के पूर्व जन्मों की कथाओं का उल्लेख है। इनकी संख्या लगभग 549 है।

 

प्रश्न 11. बौद्ध धर्म और जैन धर्म की दो समानताएँ लिखिए।

उत्तर- बौद्ध धर्म तथा जैन धर्म की दो समानताएँ निम्नांकित हैं (1) दोनों धर्म अहिंसा को महत्व देते हैं।

 

(2) दोनों धर्म वैदिक धर्म के विरोधी हैं।

 

प्रश्न 12. वैष्णव धर्म के अनुसार विष्णु के विभिन्न अवतारों का उल्लेख कीजिए।

उत्तर- वैष्णव धर्म के अनुसार भगवान विष्णु के दस अवतार हैं-मत्स्य अवतार, कच्छप अवतार, वराह अथवा शूकर अवतार, नासह अवतार, वामन अवतार, परशुराम अवतार, राम अवतार, कृष्ण अवतार, बुद्ध अवतार और कल्कि अवतार (इस अवतार का होना शेष है)।

 

प्रश्न 13. जैन धर्म तथा बौद्ध धर्म में कोई दो अन्तर लिखिए।

उत्तर- परन्तु बौद्ध धर्म निर्वाण प्राप्त करने के लिए मध्यम मार्ग पर चलने पर आवश्यक मानता है, (1) जैन धर्म कैवल्य (निर्वाण) प्राप्ति के लिए कठोर तप तथा उपवासों को बल देता है।

– (2) जैन धर्म आत्मा के अस्तित्व को मान्यता देता है, परन्तु बौद्ध धर्म आत्मा के विषय में मौन है।

 

प्रश्न 14. ‘वेद’ के विषय में आप क्या जानते हैं ? संक्षेप में लिखें।

उत्तर- ‘वेद’ आर्यों के प्राचीनतम ग्रन्थ हैं। वेदों की कुल संख्या चार है- ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद । इनमें सबसे प्राचीन ऋग्वेद है। वेदों का भारतीय संस्कृति में विशेष महत्व है। यद्यपि वेद मुख्यत: धार्मिक ग्रन्थ हैं, परन्तु इनसे आर्यों के विषय में महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है।

 

प्रश्न 15. ‘पिटक’ कितने हैं ? उनके नाम और विशेषताएँ लिखिए।

उत्तर- ‘पिटक’ संख्या में तीन हैं-विनय पिटक, सुत्त पिटक, अभिधम्म पिटक इन्हें ‘त्रिपिटक’ नाम से भी पुकारा जाता है। महात्मा बुद्ध के निर्वाण प्राप्त करने के पश्चात् इनकी रचना की गई थी। ‘विनय पिटक’ में बौद्ध संघ के नियमों का उल्लेख है, ‘सुत्त पिटक’ में महात्मा बुद्ध के उपदेश संकलित हैं और ‘अभिधम्म पिटक’ में बौद्ध दर्शन का विवेचन है।

 

प्रश्न 16. बौद्ध और जैन सम्प्रदायों को धार्मिक सुधार आन्दोलन क्यों कहा जाता है ?

उत्तर- बौद्ध तथा जैन मतों के प्रमुख सिद्धान्तों का अध्ययन करने से यह स्पष्ट होता है कि महात्मा बुद्ध और महावीर स्वामी किसी नवीन धर्म के प्रवर्तक नहीं थे। बल्कि ये लोग सुधारक थे, जो हिन्दू धर्म की कुरीतियों, जैसे- अंधविश्वास, जातिवाद, छुआछूत और ऊँच-नीच आदि को दूर करना चाहते थे। बौद्ध और जैन सम्प्रदायों ने उनमें सुधार लाने के अथक् प्रयास किए। ये दोनों सम्प्रदाय हिन्दू धर्म के समक्ष चुनौती बनकर खड़े हो गए। चूँकि इन दोनों सम्प्रदायों में आडम्बर, कर्मकाण्ड, जातिवाद, छुआछूत, ऊँच-नीच की भावना नहीं थी, अत: इन दोनों सम्प्रदायों को धार्मिक सुधार आन्दोलन कहा गया।

 

लघु उत्तरीय प्रश्न

 

प्रश्न 1. महावीर स्वामी का संक्षिप्त जीवन परिचय दीजिए। उत्तर- महावीर स्वामी, जैन धर्म के संस्थापक नहीं थे, वरन् वह जैन धर्म के चौबीसवें व अंतिम तीर्थंकर थे। आपका जन्म 599 ई. पू. में वैशाली गणराज्य के कुण्डग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम सिद्धार्थ था तथा माता का नाम त्रिशला था। बाल्यकाल तथा युवाकाल में ज्ञान तथा कला के विभिन्न क्षेत्रों की शिक्षा प्राप्त की। 30 वर्ष की आयु में आपने गृहस्थ जीवन का त्याग कर दिया गृहस्थ जीवन का परित्याग कर वे ज्ञान की खोज में लग गये। 12 वर्ष घोर तपस्या करने के पश्चात् उन्हें सच्चे ज्ञान की प्राप्ति हुई। तब से वे महावीर, जिन (विजेता) एवं निर्ग्रन्थ कहे जाने लगे। ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् महावीर स्वामी ने अपने सिद्धान्तों का प्रचार किया। पटना जिले के पावापुरी नामक स्थान पर 72 वर्ष की आयु में 527 ई. पू. में

महावीर स्वामी का निर्वाण हो गया।

 

प्रश्न 2. जैन धर्म की महत्वपूर्ण शिक्षाओं को संक्षेप में लिखिए।

उत्तर- जैन धर्म की प्रमुख शिक्षाएँ अथवा सिद्धान्त (1) अनीश्वरवादिता-जैन धर्म ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करता। इस धर्म के अनुसार यह सृष्टि किसी ईश्वर की कृति नहीं है वरन् आदि और अनन्त है। जैन धर्म ईश्वर के स्थान पर तीर्थंकरों में आस्था तथा विश्वास रखता है।

 

(2) वेदों में अविश्वास – जैन धर्म की वेदों में भी कोई आस्था नहीं है। इस धर्म के अनुसार धार्मिक कर्मकाण्ड व्यर्थ हैं तथा यज्ञ व बलि भी मोक्ष के साधन नहीं हैं।

 

(3) आत्मवादिता – जैन धर्म आत्मवादी है अर्थात् आत्म के अस्तित्व में दृढ़ विश्वास करता है। अन्य शब्दों में, जैन धर्म में आत्मा को अमर माना जाता है तथा शरीर को नाशवान।

 

(4) अहिंसा को महत्त्व देना- जैन धर्म ने अहिंसा के सिद्धान्त में

विशेष आस्था प्रदर्शित की। महावीर स्वामी के अनुसार किसी भी जीव की हत्या करना अथवा उसकी आत्मा को कष्ट पहुँचाना पाप है।

 

(5) कर्म सिद्धान्त में विश्वास जैन धर्म के अनुसार मनुष्य को उत्तम कर्म करने चाहिए, क्योंकि उसे अपने कर्मों का फल भोगना पड़ता है।

 

(6) त्रिरत्नों का विधान- निर्वाण प्राप्त करने के लिए महावीर स्वामी ने त्रिरत्नों के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया । त्रिरत्न निम्नलिखित हैं- (i) सम्यक् ज्ञान, (ii) सम्यक् दर्शन,

(iii) सम्यक् चरित्र |

 

(7) पंचमहाव्रत-महावीर स्वामी ने पंच महाव्रतों के पालन पर विशेष बल दिया। ये पंचमहाव्रत निम्नलिखित हैं-(i) अहिंसा, (ii) सत्य, (iii) अस्तेय, (iv) अपरिग्रह, (v) ब्रह्मचर्य ।

 

(8) जाति व्यवस्था में अविश्वास- जैन धर्म जाति व्यवस्था का भी विरोध करता है। तथा समानता पर बल देता है। जैन धर्म के अनुसार धर्म के द्वार सभी के लिये खुले हैं।

 

(9) तीर्थंकरों की उपासना- जैन धर्म में ईश्वर की पूजा करने के स्थान पर तीर्थंकरों की उपासना या पूजा की जाती थी।

 

(10) नैतिकता को महत्त्व देना- महावीर स्वामी ने आत्मा की मुक्ति के लिये नैतिक जीवन व्यतीत करना परम आवश्यक माना।

 

प्रश्न 3. जैन धर्म के प्रसार का संक्षिप्त विवरण लिखिए।

उत्तर- महावीर स्वामी ने समाज के सभी वर्गों में अपने धर्म का प्रचार करने का प्रयास किया था। महावीर स्वामी के राजघराने से सम्बन्धित होने के कारण अनेक राजवंशों ने जैन धर्म को आश्रय प्रदान किया था, जिससे जैन धर्म का व्यापक प्रचार और प्रसार को संगठित करने एवं इसके और अधिक प्रसार करने के लिए महावीर स्वामी ने ‘जैन संघ’ था। जैन धर्म की स्थापना की थी। महावीर स्वामी के समय में जैन धर्म कौशल, विदेह, मगध, अंग, काशी, मिथिला आदि राज्यों और उनके समीपवर्ती क्षेत्रों में लोकप्रिय हो गया था। महावीर स्वामी के पश्चात् जैन संघ और प्रचारकों ने जैन धर्म के प्रसार में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। महावीर स्वामी को मृत्यु के पश्चात् भी जैन धर्म को राजकीय संरक्षण प्राप्त होता रहा। कालान्तर में जैन धर्म के प्रसार का मुख्य आधार जैन धर्म के अनुयायियों का भारत के विभिन्न प्रदेशों में आकर बसना था। इस प्रकार जैन धर्म का प्रसार ओडिशा, दक्षिण भारत, मथुरा, उज्जयिनी, जुनागढ़ और गुजरात तक हुआ। मौर्यवंश व गुप्त वंश के शासनकाल के मध्य में जैन धर्म पूर्व में ओडिशा से लेकर पश्चिम में मथुरा तक फैला हुआ था। महावीर स्वामी की मृत्यु के लगभग दो सौ वर्ष पश्चात् जैन धर्म मुख्यत: दो सम्प्रदायों में विभक्त हो गया- (1) दिगम्बर जैन और (2) श्वेताम्बर जैन, ये दोनों सम्प्रदाय आज तक विद्यमान हैं। श्वेताम्बर जैन मुनि सफेद वस्त्र धारण करते हैं जबकि दिगम्बर जैन मुनियों के लिए नग्न रहना आवश्यक है। इस विभाजन के बावजूद भी जैन धर्म की प्रगति होती रही और उत्तर भारत, काठियावाड़, गुजरात, राजस्थान और मैसूर और हैदराबाद आदि प्रदेशों में उसका प्रसार हुआ। किन्तु जैन धर्म के अनुयायियों की संख्या सदैव सीमित रही, आज भी उनकी संख्या अधिक नहीं है।

 

प्रश्न 4. जैन धर्म की भारतीय दर्शन के क्षेत्र में क्या देन रही ? संक्षेप में लिखिए।

उत्तर- जैन धर्म ने भारतीय दर्शन के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। दर्शनशास्त्र में जैन धर्म का ‘स्यादवाद’ अपना विशिष्ट महत्त्व रखता है। ‘स्यादवाद’ जैन धर्म का सबसे महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। इसका अभिप्राय यह है कि जो बात कही जा रही है, वह किसी विशेष अपेक्षा से कही जा रही है, परन्तु यह बात अन्य दृष्टिकोणों से या अपेक्षाओं से भी कही जा सकती है और नहीं भी कही जा सकती है। ‘स्यादवाद’ के अतिरिक्त भी अनेक मौलिक सिद्धान्तों को जैन धर्म ने भारतीय संस्कृति को प्रदान किया है।

 

प्रश्न 5. जैन धर्म के ‘पाँच महाव्रत’ का उल्लेख कीजिए।

उत्तर- जैन धर्म के पाँच महाव्रत निम्नलिखित हैं

 

(1) अहिंसा – महावीर स्वामी के अनुसार किसी व्यक्ति या जीव को पीड़ा या आघात न पहुँचाना अहिंसा है। इस सिद्धान्त के अनुसार किसी भी जीव को कष्ट देना या उसकी हत्या करना महापाप है। यह जैन धर्म का प्रमुख सिद्धान्त है।

 

(2) अस्तेय-चोरी न करना तथा चोरी का माल या वस्तु को न बेचना अस्तेय के

 

अन्तर्गत आते हैं। महावीर स्वामी चोरी को भी हिंसा जैसा पाप मानते थे।

 

(3) सत्य – महावीर स्वामी के अनुसार भय, क्रोध तथा लोभ से प्रभावित होकर ही सत्य भाषण नहीं करना चाहिए वरन् प्रत्येक व्यक्ति को सदा सत्य बोलना चाहिए।

 

(4) ब्रह्मचर्य – प्रत्येक व्यक्ति को कामवासनाओं से दूर रहकर पवित्र जीवन व्यतीत करना चाहिए। कामवासनाओं तथा इच्छाओं का त्याग ही ब्रह्मचर्य है।

 

(5) अपरिग्रह – महावीर स्वामी के अनुसार किसी वस्तु या धन का संग्रह नहीं करना चाहिए। वस्तुओं तथा धन में अत्यधिक आसक्ति रखना अनुचित है।

 

प्रश्न 6. बौद्ध धर्म के प्रसार का संक्षिप्त विवरण लिखिए।

उत्तर- बौद्ध धर्म का प्रसार न केवल भारत में वरन् विश्व के अनेक देशों में हुआ। बौद्ध धर्म शनैः-शनैः एक विश्व-धर्म बन गया और एशिया के अनेक देशों में आज भी – विद्यमान है।

बौद्ध धर्म अपने प्रादुर्भाव के थोड़े ही समय में समस्त भारत में फैल गया था। महात्मा बुद्ध के जीवनकाल में ही मगध, कौशल, कौशाम्बी जैसे शक्तिशाली राज्यों के राजाओं एवं प्रजा, तथा लिच्छवि, मल्ल तथा शाक्य गणराज्यों की प्रजा ने भी बौद्ध धर्म अपना लिया था। मौर्य सम्राट अशोक और कनिष्क के शासनकाल में बौद्ध धर्म, राज्य-धर्म हो गया था। चीनी – यात्री ह्वेनसांग और इत्सिंग के अनुसार बौद्ध धर्म सातवीं शताब्दी के अन्त तक सारे देश में – प्रचलित था। नवीं तथा दसवीं शताब्दी तक की अनेक बौद्ध प्रतिमाएँ महोबा, एलोरा, नासिक, वाघ, अजन्ता तथा दक्षिण के अन्य प्रदेशों में प्राप्त हुई हैं। बारहवीं शताब्दी तक बौद्ध धर्म आंतरिक रूप में दुर्बल होने पर भी भारत में प्रचलित रहा। इसके पश्चात् मुस्लिम युग में बौद्ध धर्म भारत में विलुप्त प्राय: हो गया, परन्तु भारत की सीमाओं के पार वह फलता-फूलता रहा।

तीसरी शताब्दी ई. पू. में मौर्य सम्राट अशोक के शासनकाल में बौद्ध धर्म भारत के बाहर प्रचलित हुआ। भारत के बाहर मिस्र, मैसीडोनिया, सीरिया, म्यांमार और श्रीलंका आदि देशों में बौद्ध धर्म प्रचारक भेजे गए कनिष्क के शासनकाल में मध्य एशिया में बौद्ध धर्म का प्रचार हुआ। मध्य एशिया में काशगर, यारकन्द, खोतान, कूची, तुर्फान आदि स्थानों से प्राप्त अवशेषों से प्रमाणित होता है कि इन स्थानों में बौद्ध धर्म का खूब प्रचार था मध्य एशिया से बौद्ध धर्म चीन में पहुँचा और वहाँ से उसका प्रसार कोरिया और जापान में हुआ। दक्षिण-पूर्वी एशिया में हिन्द चीन, थाईलैण्ड, म्यांमार (बर्मा) आदि देशों में बौद्ध धर्म आज भी विद्यमान है।

 

प्रश्न 7. बौद्ध धर्म के चार आर्य सत्यों का विवरण दीजिए। उत्तर- चार आर्य सत्य-गौतम बुद्ध ने सारनाथ में अपने प्रथम उपदेश में चार आर्य सत्यों का प्रतिपादन किया- दुःख, दुःख समुदय, दुःख निरोध, दुःख निरोध मार्ग। इनका विवरण निम्नलिखित है (1) दुःख-बुद्ध के मत में संसार दुःखमय है। दुःख के प्रमुख उदाहरण हैं-रोग, बुढ़ापा तथा मृत्यु तथा किसी प्रिय का बिछुड़ना व अप्रिय से मिलना भी दुःख है।

 

(2) दुःख समुदय- बुद्ध के अनुसार दुःख का मूल कारण तृष्णा, मोह तथा माया है। के इनमें सबसे अधिक घातक तृष्णा है। तृष्णा मनुष्य को स्वार्थी बनाती है।

 

(3) दुःख निरोध-निरोध का अर्थ है छुटकारा बुद्ध के अनुसार दुःख से छुटकारा पाना सम्भव है। तृष्णा पर विजय प्राप्त कर दुःख से छुटकारा मिल सकता है।

 

(4) दुःख निरोध मार्ग- बुद्ध के अनुसार दुःख से छुटकारा प्राप्त करने के लिए अष्टांग मार्ग का अनुसरण करना आवश्यक है। अष्टांग मार्ग के आठ नियम इस प्रकार से हैं- (i) सम्यक् दृष्टि, (ii) सम्यक् संकल्प, (iii) सम्यक् वाक, (iv) सम्यक् कर्मान्त, (v) सम्यक् आजीविका, (vi) सम्यक् व्यायाम, (vii) सम्यक् स्मृति, (viii) सम्यक् समाधि ।

 

प्रश्न 8. बौद्ध धर्म तथा जैन धर्म की पाँच समानताएँ लिखिए। उत्तर- बौद्ध धर्म तथा जैन धर्म की पाँच समानताएँ निम्नलिखित हैं

(1) बौद्ध धर्म तथा जैन धर्म दोनों ही वेदों को प्रामाणिक नहीं मानते हैं।

 

(2) दोनों धर्म ईश्वर में विश्वास नहीं करते हैं।

 

(3) अहिंसा पर विशेष बल दोनों ही धर्म देते हैं।

 

(4) कर्म के सिद्धान्त में दोनों ही धर्मों की प्रमुख आस्था है।

 

(5) दोनों ही धर्म जाति प्रथा के प्रबल विरोधी हैं।

 

 

प्रश्न 9. जैन धर्म तथा बौद्ध धर्म में चार अन्तर स्पष्ट कीजिए।

 

उत्तर- जैन धर्म और बौद्ध धर्म में निम्नलिखित अन्तर हैं – –

(1) जैन धर्म कैवल्य (निर्वाण) प्राप्ति के लिए कठोर तप तथा उपवासों को आवश्यक मानता है, परन्तु बौद्ध धर्म निर्वाण प्राप्त करने के लिए मध्यम मार्ग पर चलने पर बल देता है।

 

(2) जैन धर्म आत्मा के अस्तित्व को मान्यता देता है, परन्तु बौद्ध धर्म आत्मा के विषय में मौन है।

 

(3) जैन धर्म के ग्रन्थ अधिकांशतया प्राकृत तथा संस्कृत भाषा में लिखे गये हैं, परन्तु बौद्ध ग्रन्थ पाली भाषा में लिखे गये हैं।

 

(4) जैन धर्म को कभी भी राजकीय संरक्षण प्राप्त नहीं हुआ, परन्तु बौद्ध धर्म को अनेक राजाओं का संरक्षण प्राप्त हुआ था।

 

प्रश्न 10. बौद्ध धर्म के पतन के कोई चार कारण लिखिए। उत्तर भारत में बौद्ध धर्म के पतन के निम्नलिखित कारण थे

 

(1) बौद्ध धर्म में अन्धविश्वासों का समावेश- भगवान बुद्ध द्वारा प्रतिपादित बौद्ध धर्म अत्यन्त सरल तथा व्यावहारिक था, परन्तु महायान सम्प्रदाय ने बौद्ध धर्म में पूजा-पाठ तथा कर्मकाण्डों का समावेश कर धर्म की सरलता को जटिलता में बदल दिया। बौद्ध धर्म में भी मूर्ति पूजा होने लगी।

 

(2) बौद्ध धर्म का विभाजन-आगे चलकर बौद्ध धर्म दो शाखाओं में विभाजित हो गया— हीनयान व महायान। आगे चलकर तान्त्रिक शाखा वज्रयान भी बौद्ध धर्म के अस्तित्व में आ गई, जिसमें बौद्ध धर्म का विभाजन अत्यधिक हो गया। वज्रयान शाखा के उपदेशकों ने लोक भाषा के स्थान पर संस्कृत भाषा को अपनाकर आम जनता को अपने से दूर कर दिया।

 

(3) बौद्ध संघों में भ्रष्टाचार का समावेश – बौद्ध संघ पहले अत्यन्त सादगी तथा पवित्रता का रूप लिये हुए थे, परन्तु बौद्ध संघों में महिलाओं के प्रवेश से बौद्ध भिक्षु विलासी तथा भ्रष्ट हो गये। अतः जनसाधारण बौद्ध भिक्षुओं को घृणा की दृष्टि से देखने लगा।

 

(4) राजकीय सहयोग की समाप्ति-बौद्ध धर्म के उत्थान तथा प्रसार का प्रमुख कारण उसे होने वाला राजकीय सहयोग था। अन्य शब्दों में, बौद्ध धर्म के प्रसार में अनेक सम्राटों ने सहयोग दिया था। परन्तु हर्ष की मृत्यु के पश्चात् बौद्ध धर्म को राजकीय सहायता प्राप्त नहीं हो सकी। अतः बौद्ध धर्म धीरे-धीरे पतन के गर्त में चला गया।

 

प्रश्न 11. बौद्ध संघ के विषय में आप क्या जानते हैं ? संक्षेप में लिखिए।

उत्तर- महात्मा बुद्ध ने बौद्ध धर्म का प्रचार करने के लिए एक बौद्ध संघ की स्थापना की थी। महात्मा बुद्ध के दो प्रकार के शिष्य थे-भिक्षु और उपासक (सामान्यजन व गृहस्थ लोग)। उन्होंने भिक्षुओं को संघ के रूप में संगठित कर दिया था। महात्मा बुद्ध ने संघ का संगठन जनतंत्रवादी प्रणाली के आधार पर किया था। संघ की सदस्यता पंद्रह वर्ष से अधिक आयु वाले सभी व्यक्ति ले सकते थे, चाहे वे किसी भी जाति के हों। लेकिन संघ की सदस्यता लेने के लिए माता-पिता अथवा अभिभावक की अनुमति आवश्यक थी। प्रारंभ में महात्मा बुद्ध महिलाओं को संघ का सदस्य बनाने के पक्ष में नहीं थे, किन्तु उन्होंने अपने प्रिय शिष्य आनंद के अनुरोध पर महिलाओं को संघ में प्रवेश की अनुमति दे दी। महात्मा बुद्ध की विमाता प्रजापति गौतमी बौद्ध संघ में प्रवेश करने वाली पहली भिक्षुणी (भिक्खुनी) थीं। तत्पश्चात् अनेक स्त्रियाँ बौद्ध संघ में आईं और वे उपदेशिकाएँ बन गईं।

भिक्षु और भिक्षुणियों को संघ में विशेष नियमों का पालन करना पड़ता था। संघ में सभी सादा जीवन व्यतीत करते थे। उनके पास जीवनयापन के लिए अति आवश्यक वस्तुओं के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं होता था।

बौद्ध संघ का सुचारु संचालन जनतंत्रवादी प्रणाली के आधार पर किया जाता था। संघ में सभी सदस्यों को समान अधिकार प्राप्त थे। सभी विषयों पर बातचीत के माध्यम एकमत होने का प्रयत्न किया जाता था और सभी निर्णय बहुमत से लिए जाते थे। महात्मा बुद्ध स्थापित इस संघ के विषय में डॉ. राजबलि पाण्डेय ने लिखा है कि यह संसार पहला प्रचारक संघ था।

 

प्रश्न 12. बौद्ध संघ में हुए विभाजन के विषय में आप क्या जानते हैं ?

उत्तर- प्रारम्भ में महात्मा बुद्ध द्वारा स्थापित बौद्ध की कोई शाखा नहीं थी, लेकिन कालान्तर में इसमें विभाजन होना प्रारम्भ हो गया था, क्योंकि बौद्ध भिक्षुओं में असंतोष की भावना जाग्रत होने लगी थी। यह असंतोष कनिष्क के शासनकाल में स्पष्ट हो गया, जब बौद्ध धर्म की एक नवीन शाखा ‘महायान’ का जन्म हुआ। कनिष्क के शासन काल में हुई चतुर्थ बौद्ध संगीति ने ‘महायान शाखा’ को मान्यता प्रदान की। इस प्रकार इस समय से महात्मा बुद्ध द्वारा स्थापित मूल बौद्ध धर्म को ‘हीनयान’ व विभाजित हुई नवीन शाखा को ‘महायान’ कहा जाने लगा।

 

प्रश्न 13. आपके अनुसार स्त्री-पुरुष संघ में क्यों जाते थे ?

उत्तर- स्त्री -पुरुष संघ में इसलिए जाते थे, क्योंकि वे वहाँ पर धर्म का नियमित रूप से अध्ययन, विचार-विमर्श, मनन और उपासना आदि कर सकते थे। वे यहाँ विचार-विमर्श के साथ-साथ प्रचारकों और उपदेशकों के माध्यम से भी धर्म को जान सकते थे व उसे व्यवहार में ला सकते थे। इसके अतिरिक्त वे सांसारिक विषयों से दूर रहकर सादा और अनुशासित जीवन व्यतीत कर सकते थे।

एक बार संघ में आ जाने के उपरान्त सभी को समान समझा जाता था, क्योंकि भिक्षु- भिक्षुणी बनने पर उन्हें अपनी पुरानी पहचान को त्यागना पड़ता था। संघ में सभी सदस्यों को समान अधिकार प्राप्त थे। बौद्ध संघ का सुचारु संचालन जनतंत्रवादी प्रणाली के आधार पर किया जाता था।

 

प्रश्न 14. स्तूप क्यों और कैसे बनाए जाते थे ?

उत्तर- स्तूप क्यों और कैसे बनाए जाते थे-ऐसे अनेक स्थल थे जिन्हें पवित्र माना जाता था, इन स्थलों पर महात्मा बुद्ध से सम्बन्धित अवशेषों या अस्थियों; जैसे- उनके द्वारा प्रयुक्त सामान, उनकी अस्थियाँ, दाँत, भस्म आदि को सोने के या अन्य किसी धातु के कलश में बन्द करके रख दिया जाता था और उस पर पत्थर या ईंटों का ठोस ढाँचा बनाकर गोल गुम्बद बना दिया जाता था जिसे स्तूप कहा जाता था।

विद्वानों का यह मानना है कि स्तूप बनाने की परम्परा सम्भवतः महात्मा बुद्ध से पहले भी प्रचलित रही होगी, लेकिन महात्मा बुद्ध और बौद्ध धर्म के प्रतीक के रूप में स्तूप निर्माण को विशेष लोकप्रियता प्राप्त हुई। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि बौद्धग्रन्थ ‘ अशोकावदान’ से ज्ञात होता है कि मौर्य सम्राट अशोक ने महात्मा बुद्ध के अवशेषों के हिस्से प्रत्येक महत्वपूर्ण शहरों मैं बाँट कर उनके ऊपर स्तूप बनाने का आदेश दिया था। परिणामतः दूसरी शताब्दी ई. पू. तक भरहुत, साँची और सारनाथ जैसे पवित्र स्थलों पर बनाए जा चुके थे।

प्राप्त साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि स्तूप प्राय: दान के धन से बनाए जाते थे। स्तूप बनाने के लिए दान राजाओं के द्वारा (जैसे, सातवाहन वंश के राजा), धनी व्यक्तियों के द्वारा, शिल्पकारों और व्यापारियों की श्रेणियों द्वारा और भिक्षुओं और भिक्षुणियों द्वारा दिए जाते थे। प्राप्त स्तूपों की वेदिकाओं और स्तम्भों पर अंकित अभिलेखों से इनके निर्माण और सजावट के लिए दिए गए दान का विवरण प्राप्त होता है। प्राप्त विवरणों में कहीं-कहीं दानदाताओं के नामों के साथ उनके गाँव अथवा शहर, उनके व्यवसाय और उनके सम्बन्धियों के नामों का उल्लेख मिलता है; जैसे-साँची स्तूप के एक तोरणद्वार का निर्माण हाथी दाँत का काम करने वाले शिल्पियों के संघ के दान द्वारा कराया गया था।

 

प्रश्न 15. स्तूपों की संरचना के विषय में आप क्या जानते हैं ? संक्षेप में लिखिए।

उत्तर- स्तूपों की संरचना – स्तूप का जन्म अर्द्ध गोलाकार ईंट-मिट्टी के टीले से हुआ था, जिसे अंड कहा जाता था। अंड के ऊपर एक और संरचना बनाई जाती थी, जिसे हर्मिका कहा जाता था, यह संरचना एक छज्जे की भाँति होती थी। इसका निर्माण देवताओं को आसन के रूप में किया जाता था। हर्मिका के ऊपर एक सीधा स्तम्भ होता था, जिसे यष्टि कहा जाता था, इसके ऊपर एक छत्री लगी होती थी। टीले (स्तूप) के चारों ओर एक वेदिका बनाई जाती। थी, जो इस पवित्र स्थल को सामान्य दुनिया से अलग करती थी।

साँची और भरहुत के प्रारम्भिक स्तूपों को देखकर स्पष्ट होता है कि इन प्रारम्भिक स्तूपों का निर्माण बिना अलंकरण के किया गया था। इन स्तूपों में केवल पत्थर की वेदिकाएँ और तोरणद्वार बनाए गए थे, ये पत्थर की वेदिकाएँ भी लकड़ी अथवा बाँस के घेरे के समान थीं। यद्यपि इन स्तूपों के चारों दिशाओं में बनाए गए तोरणद्वारों पर सुन्दर नक्काशी की गई थी। इन स्तूपों में उपासक पूर्वी तोरणद्वार से प्रवेश करके आकाश में सूर्य पथ का अनुकरण करते हुए परिक्रमा करते थे। लेकिन कालान्तर में बने स्तूपों को देखकर स्पष्ट होता है कि बाद में बने स्तूपों को ताख और मूर्तियों से अलंकृत किया जाने लगा था। अमरावती और पेशावर (वर्तमान पाकिस्तान में शाहजी की ढेरी) के स्तूप इसके अनुपम उदाहरण हैं।

 

प्रश्न 16 साँची के स्तूप के संरक्षण में भोपाल की बेगमों की भूमिका की चर्चा कीजिए।

उत्तर- साँची के स्तूप के संरक्षण में भोपाल की बेगमों ने महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्नीसवीं शताब्दी के यूरोपियनों में साँची के स्तूप को लेकर पर्याप्त दिलचस्पी थी। फ्रांसीसियों की साँची के स्तूप के तोरणद्वारों में काफी दिलचस्पी थी, वे स्तूप के पूर्वी तोरणद्वार को फ्रांस के ले जाना चाहते थे। इसी प्रकार की इच्छा कुछ अंग्रेजों की भी थी, वे भी तोरणद्वार को इंग्लैण्ड ले जाना चाहते थे। इस हेतु इन लोगों ने भोपाल की नवाब शाहजहाँ बेगम से अनुमति माँगी, परन्तु नवाब (शासिक) शाहजहाँ बेगम ने दोनों को प्लास्टर ऑफ पेरिस से बनी तोरणद्वारों की प्रतिकृतियाँ देकर सन्तुष्ट किया। इस प्रकार शाहजहाँ बेगम ने साँची स्तूप की मूल कृति को भोपाल राज्य ही अपने स्थान पर बनाए रखा।

भोपाल की शासिका शाहजहाँ बेगम और उनकी उत्तराधिकारी सुल्तानजहाँ बेगम ने साँची स्तूप के रख-रखाव के लिए पर्याप्त धनराशि अनुदान के रूप में प्रदान की। सुल्तानजह बेगम ने साँची स्तूप के संरक्षण में गहरी दिलचस्पी दिखाई। उसने स्तूप के संरक्षण के लिए केवल धन ही नहीं दिया अपितु वहाँ पर एक संग्रहालय और अतिथिशाला का भी निर्माण करवाया।

उक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि भोपाल की बेगमों द्वारा उचित समय पर लिए। गए विवेकपूर्ण निर्णय ने साँची के स्तूप को उजड़ने से बचा लिया। आज इसकी मरम्मत और संरक्षण का कार्य भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण द्वारा किया जा रहा है।

 

दीर्घ उत्तरीय / विश्लेषणात्मक प्रश्न

 

प्रश्न 1. महात्मा बुद्ध का जीवन परिचय लिखिए।

उत्तर- महात्मा बुद्ध के जीवन की घटनाओं का विवरण अनेक बौद्ध ग्रन्थों, जैसे ललितबिस्तर, बुद्धचरित, महावस्तु व सुत्तनिपात से प्राप्त होता है। महात्मा बुद्ध का जन्म कपिलवस्तु के पास लुम्बिनी वन में 563 ई. पू. में हुआ था। महात्मा बुद्ध के पिता का नाम शुद्धोधन था, जो शाक्यों के राज्य कपिलवस्तु के शासक थे। महात्मा बुद्ध की माता का नाम महामाया था, जो देवदह की राजकुमारी थी। महात्मा बुद्ध के जन्म के सातवें दिन ही उनकी माँ महामाया का देहान्त हो गया था, अतः उनका पालन-पोषण उनकी मौसी व विमाता प्रजापति गौतमी ने किया था। महात्मा बुद्ध के बचपन का नाम सिद्धार्थ था।

सिद्धार्थ बचपन से ही एकान्तप्रिय, मननशील एवं दयावान प्रवृत्ति के थे। सिद्धार्थ सांसारिक दुःखों को देखकर करुणा से द्रवित हो जाते थे और इन दुःखों से मुक्ति पाने के उपायों के बारे में सोचते थे। सिद्धार्थ इस प्रकार के स्वभाव से इनके पिता चिन्तित रहने लगे। इसीलिए उन्होंने भोगविलास की समस्त वस्तुएँ सिद्धार्थ के चारों ओर एकत्र कर दीं, परन्तु फिर भी सिद्धार्थ का मन सांसारिक भोग-विलास की ओर आकर्षित नहीं हो सका। सांसारिक सुखों के प्रति के कारण इनके पिता ने 16 वर्ष की अल्पायु में ही इनका विवाह रामग्राम के कोलिय गणराज्य की राजकुमारी यशोधरा से कर दिया। विवाह के कुछ वर्ष पश्चात् इन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई, जिसका नाम राहुल रखा गया। पुत्र जन्म के सुअवसर पर समस्त राज्य में खुशियाँ मनाई गईं, लेकिन सिद्धार्थ ने पुत्र जन्म का समाचार सुनकर कहा, “आज मेरे बन्धन की श्रृंखला में एक कड़ी और जुड़ गई।” यद्यपि उन्हें समस्त सुख प्राप्त थे, किन्तु उन्हें शान्ति प्राप्त नहीं थी। ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने ऐसे चार दृश्य देखे, जिससे उन्हें वैराग्य उत्पन्न हो गया। एक दिन उन्होंने बाग को जाते समय एक वृद्ध व्यक्ति, दूसरे दिन एक रोगी व्यक्ति, तीसरे दिन एक मृत व्यक्ति और चौथे दिन एक संन्यासी व्यक्ति को देखा। इन चार दृश्यों ने उनके मन-मस्तिष्क पर गंभीर प्रभाव डाला और उन्हें गृहस्थ जीवन से वैराग्य उत्पन्न हो गया। अतः एक रात वे अपनी पत्नी व पुत्र को सोता हुआ छोड़कर गृह त्याग कर ज्ञान की खोज में निकल पड़े।

गृह त्याग के पश्चात् सिद्धार्थ मगध की राजधानी राजग्रह पहुँचे, वहाँ उन्होंने अलार और उद्रक नामक दो प्रसिद्ध ब्राह्मणों से भेंट की और उनसे ज्ञान प्राप्ति का प्रयत्न किया, परन्तु वहाँ उन्हें संतुष्टि नहीं हुई। तत्पश्चात् वे निरंजना नदी के किनारे उरवेल नामक वन में पहुँचे, जहाँ उनकी पाँच ब्राह्मण तपस्वियों से भेंट हुई। इन तपस्वियों के साथ मिलकर उन्होंने कठोर तपस्या की, परन्तु इससे भी कोई लाभ नहीं निकला। अतः सिद्धार्थ समझ गए कि शरीर को कष्ट देने से ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती है, अतः उन्होंने अन्न-जल ग्रहण करना प्रारम्भ कर दिया, जिसके फलस्वरूप अन्य तपस्वियों ने उनका साथ छोड़ दिया। इसके पश्चात् सिद्धार्थ गया (बिहार) पहुँचे, वहाँ उन्होंने एक वट-वृक्ष के नीचे समाधि लगायी और प्रतिज्ञा की कि जब तक ज्ञान प्राप्त नहीं होगा, वे वहाँ से नहीं हटेंगे। सात दिन व सात रात समाधिस्थ रहने के उपरान्त आठवें दिन वैशाख पूर्णिमा के दिन उन्हें सच्चे ज्ञान की प्राप्ति हुई। इस घटना को ‘सम्बोधि’ कहा गया, जिस वट वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई, उस वट वृक्ष को ‘बोधि वृक्ष’ और गया को ‘बोधगया’ कहा जाने लगा। इस घटना के उपरान्त सिद्धार्थ को भी ‘महात्मा बुद्ध’ कहा जाने लगा।

ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् महात्मा बुद्ध ने सारनाथ (बनारस के निकट) पहुँचकर सर्वप्रथम अपने उन पाँच साथियों, जिन्होंने पूर्व में उनका साथ छोड़ दिया था, को उपदेश दिया। ये लोग महात्मा बुद्ध के उपदेश से बहुत प्रभावित हुए और उनके शिष्य बन गए। इन शिष्यों को ‘पंचवर्गीय’ कहा जाता है। महात्मा बुद्ध द्वारा इन शिष्यों को दिए गए उपदेशों की घटना को ‘धर्म-चक्र प्रवर्तन’ कहा जाता है। इसके पश्चात् उन्होंने बनारस, राजगृह, गया, नालन्दा, पाटलिपुत्र आदि स्थानों पर अपने उपदेश दिए। बिम्बसार, अजातशत्रु तथा मुण्ड जैसे शासक और अनेक धनी वैश्य एवं क्षत्रिय उनके अनुयायी एवं समर्थक बन गए थे। कौशल राज्य में महात्मा बुद्ध के अनुयायियों की संख्या सर्वाधिक थी। कौशल के राजा प्रसेनजित और उसको पत्नी मल्लिका तथा बहनें सोमा व सकुला भी महात्मा बुद्ध की अनुयायी बन गई थीं।

महात्मा बुद्ध कपिलवस्तु भी गए। जहाँ उनकी पत्नी, पुत्र व अनेक शाक्यवंशीय व्यक्ति | उनके शिष्य बन गए। महात्मा बुद्ध आजीवन अंग, मगध, काशी, मल्ल, शाक्य, वज्जि और , कौशल आदि सभी नगरों में घूम-घूमकर अपने विचारों को प्रसारित करते रहे। अस्सी वर्ष की अवस्था में वे घूमते हुए पावा पहुँचे, जहाँ उन्हें अतिसार रोग हो गया, इसके पश्चात् वह कुशीनगर पहुँचे, जहाँ 483 ई. पू. में वैशाख पूर्णिमा के दिन उनकी मृत्यु हो गयी। उनकी मृत्यु की घटना को ‘महापरिनिर्वाण’ कहा जाता है। बौद्ध परम्परा के अनुसार महात्मा बुद्ध ने अपने शिष्यों को अंतिम निर्देश यह दिया था कि “तुम सब अपने लिए स्वयं ही ज्योति बनो क्योंकि तुम्हें स्वयं ही अपनी मुक्ति का मार्ग ढूँढ़ना है।” दाह संस्कार के उपरान्त महात्मा बुद्ध की अस्थियों को कलशों में रख दिया गया। विभिन्न स्थानों पर महात्मा बुद्ध के इन्हीं अस्थि-कलशों पर

स्तूपों का निर्माण किया गया। साँची का स्तूप, ऐसे ही स्तूपों का एक अनुपम उदाहरण है।

 

प्रश्न 2. महात्मा बुद्ध का संक्षिप्त जीवन परिचय देते हुए बौद्ध धर्म के प्रमुख सिद्धान्तों का वर्णन कीजिए।

उत्तर- महात्मा बुद्ध का जीवन परिचय

संकेत: इस शीर्षक के अध्ययन के लिए दीर्घ उत्तरीय/विश्लेषणात्मक प्रश्न 1 का उत्तर देखें।

 

बौद्ध धर्म के प्रमुख सिद्धान्त

 

बौद्ध धर्म के प्रमुख सिद्धान्त निम्नांकित हैं

(1) चार आर्य सत्य- गौतम बुद्ध ने सारनाथ में अपने प्रथम उपदेश में जनसाधारण को बताया कि मानव जीवन में आदि से अन्त तक दुःख ही दुःख हैं। दुःख से मुक्ति प्राप्त करने के लिए भगवान बुद्ध ने निम्नलिखित चार आर्य सत्यों का प्रतिपादन किया-दुःख, दुःख समुदय, दुःख निरोध, दुःख निरोध मार्ग। इनका विवरण निम्नलिखित है

(I) दुःख – बुद्ध के मत में संसार दुःखमय है। दु:ख के प्रमुख उदाहरण हैं-रोग, बुढ़ापा तथा मृत्यु तथा किसी प्रिय का बिछुड़ना व अप्रिय से मिलना भी दुःख है।

(II) दुःख समुदय- बुद्ध के अनुसार दुःख का मूल कारण तृष्णा, मोह तथा माया है।

इनमें सबसे अधिक घातक तृष्णा है। तृष्णा मनुष्य को स्वार्थी बनाती है।

(III) दु:ख निरोध-निरोध का अर्थ है छुटकारा। बुद्ध के अनुसार दुःख से छुटकारा पाना सम्भव है। तृष्णा पर विजय प्राप्त कर दुःख से छुटकारा मिल सकता है।

(IV) दुःख निरोध मार्ग-बुद्ध के अनुसार दुःख से छुटकारा प्राप्त करने के लिए अष्टांग मार्ग का अनुसरण करना आवश्यक है। अष्टांग मार्ग के आठ नियम इस प्रकार से हैं-

 

(1) सम्यक् दृष्टि, (2) सम्यक् संकल्प, (3) सम्यक् वाक, (4) सम्यक् कर्मान्त, (5) सम्यक् आजीविका, (6) सम्यक् व्यायाम, (7) सम्यक् स्मृति, (8) सम्यक् समाधि।

 

(2) मध्यम मार्ग बुद्ध का विचार था कि निर्वाण प्राप्त करने के लिए कठोर तपस्या करना तथा शरीर को कष्ट देना आवश्यक नहीं है। सांसारिक विषयों में लिप्त रहकर भी ज्ञान की प्राप्ति की जा सकती है। निर्वाण या ज्ञान प्राप्त करने के लिए मध्यम मार्ग को अपनाना आवश्यक है।

 

(3) क्षणिकवाद – बौद्ध धर्म के अनुसार संसार के समस्त तत्त्व परिवर्तनशील तथा अस्थायी हैं।

 

(4) वेदों में अविश्वास- गौतम बुद्ध ने वैदिक कर्मकाण्डों तथा रीतियों का विरोध

 

किया। उनका मत था कि यज्ञ तथा बलि आदि व्यर्थ के आडम्बर हैं।

 

(5) जाति प्रथा का विरोध- महात्मा बुद्ध जाति प्रथा के भी विरोधी थे। उनके अनुसार सभी मनुष्य समान हैं। जाति के आधार पर कोई छोटा-बड़ा नहीं है।

 

(6) अनात्मवाद में आस्था- महात्मा बुद्ध आत्मा के अस्तित्व में विश्वास न कर अनात्मवाद में आस्था रखते थे। उनका विश्वास था कि शरीर अलग-अलग तत्त्वों से बना है तथा मृत्यु के पश्चात् ये तत्त्व अलग-अलग हो जाते हैं।

 

(7) कर्म और पुनर्जन्म का सिद्धान्त- महात्मा बुद्ध का विचार है कि मनुष्य को अपने

 

कर्मों का फल अवश्य ही भोगना पड़ता है। अन्य शब्दों में, मनुष्य जैसे कर्म करता है, उसे अपने अगले जन्म में वैसा ही फल मिलता है।

 

(8) निर्वाण – महात्मा बुद्ध के अनुसार मानव जीवन का अन्तिम लक्ष्य निर्वाण है। निर्वाण प्राप्त करके ही मनुष्य जन्म-मरण के कष्टों से छुटकारा प्राप्त कर सकता है।

 

(9) ईश्वर में अविश्वास (अनीश्वरवाद)- गौतम बुद्ध कर्मवादी होने के कारण ईश्वर के अस्तित्व के विषय में कोई वार्ता होने पर मौन धारण कर लेते थे। अन्य शब्दों में, वे ईश्वर के अस्तित्व सम्बन्धी वाद-विवाद में उलझना उचित नहीं मानते थे। अधिकांश इतिहासकार उन्हें अनीश्वरवादी ही मानते हैं।

 

प्रश्न 3. भारतीय संस्कृति को बौद्ध धर्म की क्या देन है ? स्पष्ट कीजिए।

उत्तर- बौद्ध धर्म ने भारतीय संस्कृति को विभिन्न क्षेत्रों में प्रभावित कर उसे निम्नलिखित देने प्रदान की

 

( 1 ) ब्राह्मण धर्म पर प्रभाव- बौद्ध धर्म का ब्राह्मण धर्म पर विशेष प्रभाव पड़ा। बौद्ध धर्म से पूर्व ब्राह्मयज्ञों व कर्मकाण्डों की जटिलता तथा आडम्बरों से ग्रस्त था। बौद्ध धर्म ने याज्ञिक अनुष्ठान तथा पशु हिंसा के विरुद्ध आवाज उठाई जिसका प्रभाव ब्राह्मण अथवा हिन्दू धर्म पर पड़ा। बौद्ध धर्म के उदय के कारण भागवत, शैव तथा भक्ति सम्प्रदायों में यज्ञों तथा बलि के स्थान पर भक्ति और पूजा को विशेष महत्त्व दिया जाने लगा।

उन्होंने बौद्ध संघ में प्रत्येक वर्ण व जाति के लोगों को सम्मिलित होने का अवसर

 

(2) सामाजिक समानता- बुद्ध ने वर्ण व्यवस्था व जाति व्यवस्था का व्यापक विरोध इस प्रकार उन्होंने हिन्दू धर्म के सम्मुख सामाजिक समानता किया था। का आदर्श प्रस्तुत किया।

 

(3) धार्मिक देन-बुद्ध ने भारत को एक ऐसा धर्म दिया जो अत्यन्त सरल तथा आडम्बरहीन था। न यह रहस्यमय था और न जटिल था बौद्ध धर्म ने जनसाधारण को आत्मनिरीक्षण के लिए प्रेरित किया।

 

(4) साहित्य के विकास में योगदान-बौद्ध धर्म ने भारतीय साहित्य के विकास में भी अपार योगदान किया। बौद्धों का अधिकतर साहित्य पाली भाषा में लिखा गया है, परन्तु बौद्ध साहित्यकारों ने संस्कृत में भी अनेक ग्रन्थों की रचना की बौद्ध विद्वान अमर सिंह ने ‘अमरकोष’ की रचना की। चन्द्रगोपि ने व्याकरण पर ग्रन्थ लिखा। नागार्जुन ने आयुर्वेद पर एक ग्रन्थ की रचना की। अश्व घोष का ‘बुद्ध चरित्र’ नामक महाकाव्य अत्यधिक महत्वपूर्ण माना जाता है। ‘मंजूश्री मूलकल्प’ तथा ‘दिव्यावदान’ नामक ग्रन्थों में प्राचीन भारतीय इतिहास की पर्याप्त सामग्री प्राप्त होती है।

 

(5) कला के क्षेत्र में बौद्ध धर्म की सर्वप्रथम देन कला के क्षेत्र में है। साँची तथा – सारनाथ के स्तूप, अजन्ता की गुफाएँ तथा उनकी चित्रकारी तथा मूर्तिकला, बौद्धकला की श्रेष्ठता के उत्तम प्रमाण हैं। भरहुत व अमरावती के स्तूप तथा सम्राट अशोक के शिलास्तम्भ और कार्ली की बौद्ध गुफाएँ भी बौद्ध धर्म की देन हैं।

 

(6) दर्शन के क्षेत्र में भारतीय दर्शन के विकास में बौद्ध धर्म का अपूर्व योगदान रहा – है क्योंकि बौद्ध धर्म ने बौद्धिक तथा विचारों की स्वतन्त्रता पर विशेष बल दिया था। इसके अतिरिक्त बौद्ध धर्म के विभिन्न चिन्तकों ने अनेक दार्शनिक सम्प्रदायों को भी जन्म दिया था। उदाहरण के लिए, शून्यवाद व विकासवाद का विकास भी बौद्ध आचार्यों ने ही किया था।

 

(7) विदेशों में भारतीय संस्कृति का प्रसार- बौद्ध धर्म की प्रमुख देन है भारतीय संस्कृति का विदेशों में प्रसार करना। वास्तव में, बौद्ध धर्म प्रथम भारतीय धर्म था जिसने देश की सीमाओं को पार कर विदेशों में अपना प्रभुत्व स्थापित किया। बौद्ध धर्म के प्रचारक भारत से निकलकर लंका, जावा, सुमात्रा, तिब्बत, चीन, जापान, स्याम, कम्बोडिया आदि दूर-दूर देशों में गये तथा अपने साथ भारतीय संस्कृति भी लेते गये।

 

प्रश्न 4. हीनयान और महायान सम्प्रदाय में अंतरों को स्पष्ट कीजिए।

उत्तर- हीनयान और महायान सम्प्रदाय में अंतर निम्नलिखित हैं

 

(1) हीनयान महात्मा बुद्ध द्वारा स्थापित मूल बौद्ध धर्म था, जबकि महायान हीनयान का संशोधित व परिवर्तित रूप था।

 

(2) हीनयान सिर्फ महात्मा बुद्ध के उपदेशों को मानता है, जबकि महायान में महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं के अतिरिक्त बोधिसत्वों की शिक्षाएँ भी निहित हैं।

 

(3) हीनयान एक दार्शनिक सिद्धान्त है, जबकि महायान एक धर्म है।

 

(4) हीनयान में महात्मा बुद्ध को एक महापुरुष समझा जाता है, जबकि महायान में उन्हें देवता का प्रतिरूप समझा जाता है।

 

(5) हीनयान मूर्ति उपासक नहीं है, जबकि महायान में मूर्तिपूजा की जाती है।

 

(6) हीनयान में पाली भाषा का प्रयोग किया जाता था जबकि महायान ने संस्कृत भाषा को अपनाया।

 

(7) हीनयान के सिद्धान्त अधिक कठोर हैं जबकि महायान के सिद्धान्त सरल, सुगम व जनसाधारण की मनोवृत्ति के अनुकूल हैं।

 

(8) हीनयान संन्यासी जीवन पर बल देता है, जबकि महायान गृहस्थ जीवन पर बल देता है।

 

(9) हीनयान ज्ञान प्रधान है, जबकि महायान करुणा प्रधान है।

 

(10) हीनयान की अपेक्षा महायान अधिक आशावादी है।

 

प्रश्न 5. अमरावती स्तूप के विषय में आप क्या जानते हैं ? सविस्तार लिखें।

उत्तर – अमरावती स्तूप-अमरावती के एक स्थानीय राजा, जो एक मन्दिर का निर्माण करना चाहते थे, को अचानक 1796 ई. में अमरावती के स्तूप के अवशेष हुए, उन्हें ऐसा लगा कि इस पहाड़ी में शायद कोई खजाना छिपा हो, अतः उन्होंने वहाँ से पत्थरों को निकलवा कर मन्दिर निर्माण में इस्तेमाल किया। कुछ वर्षों के बाद एक अंग्रेज अधिकारी, जिनका नाम कॉलिन मेकेंजी था, स्तूप वाले इलाके से गुजर रहे थे, तब उन्हें वहाँ से अनेक मूर्तियाँ प्राप्त हुईं, उन्होंने उन मूर्तियों का विस्तृत चित्रांकन भी किया, लेकिन दुर्भाग्यवश उनकी रिपोर्ट कभी नहीं छपी। 1854 ई. में गुंटूर (आन्ध्र प्रदेश) के कमिश्नर वाल्टर एलियट ने अमरावती की यात्रा की। अपनी इस यात्रा के दौरान उन्होंने अनेक मूर्तियाँ और उत्कीर्ण पत्थर एकत्रित किए और उन्हें अपने साथ मद्रास ले गए। इस यात्रा के दौरान वाल्टर एलियट अमरावती स्तूप के पश्चिमी तोरणद्वार को भी खोजने में सफल हुए, उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि अमरावती स्तूप बौद्धों का सर्वाधिक विशाल और भव्य स्तूप था 1850 के दशक से ही अमरावती के उत्कीर्ण पत्थर अलग-अलग स्थानों पर ले जाए जाने लगे। कुछ उत्कीर्ण पत्थर कलकत्ता स्थित एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल में पहुँचाए गए, तो कुछ उत्कीर्ण पत्थर मद्रास में स्थित इंडिया ऑफिस में पहुँचा दिए गए। अमरावती की अनेक मूर्तियाँ अंग्रेज अधिकारियों के बगीचों की शोभा बन गई, क्योंकि हर कोई नया अंग्रेज अधिकारी यह कहकर मूर्तियाँ उठा ले जाता था कि उसके पूर्व के अधिकारियों ने भी ऐसा ही किया था। इस अमरावती स्तूप की महत्वपूर्ण धरोहर नष्ट हो गई। वर्तमान में अमरावती का स्तूप केवल एक छोटा-सा टीला है, हम भारतीय अपनी इस महत्वपूर्ण विरासत से वंचित हो गए।

 

प्रश्न 6. साँची स्तूप की खोज और उसके संरक्षण पर प्रकाश डालिए। उत्तर- साँची स्तूप-साँची का स्तूप, मध्य प्रदेश के रायसेन जिला मुख्यालय से 25 किमी की दूरी पर स्थित साँची नामक स्थान पर स्थित है। साँची, बेतवा नदी के तट पर स्थित है, यह भोपाल से 46 किमी तथा विदिशा शहर से 10 किमी की दूरी पर स्थित है। 1818 ई. में साँची के स्तूप की खोज का श्रेय ब्रिटिश कर्नल टेलर को दिया जाता है। कर्नल टेलर 1818 ई. में एक दिन जब साँची गाँव की एक पहाड़ी की चोटी पर पहुँचे तब उन्होंने वहाँ गुम्बद के समान एक विचित्र टीला देखा। 1822 ई. में तत्कालीन भोपाल राज्य के असिस्टेंट पॉलिटिकल एजेंट कैप्टन जॉनसन ने उक्त टीले के एक भाग की खुदाई करवाई। बाद में 1851 ई. में मेजर अलक्जेंडर कनिंघम ने व्यवस्थित रूप से इस टील के की खुदाई कराई और खोज के कार्य को आगे बढ़ाया। इस विवरण का उल्लेख तत्कालीन भोपाल राज्य की नवाब शाहजहाँ बेगम (जिनका शासनकाल 1868 से 1901 ई. तक रहा) की आत्मकथा ‘ताज-उल-इकबाल तारीख भोपाल’ में इस प्रकार किया गया है, “भोपाल राज्य के प्राचीन अवशेषों में सबसे अद्भुत साँची कनखेड़ा की इमारतें हैं। भोपाल से बीस मील उत्तर-पूर्व की तरफ एक पहाड़ी की तहलटी में बसे इस गाँव को हम कल देखने गए थे। हमने पत्थर की वस्तुओं, बुद्ध की मूर्तियों और एक तोरणद्वार का निरीक्षण किया ये अवशेष यूरोप के सज्जनों को विशेष रुचिकर लगते हैं जिनमें मेजर अलेक्जेंडर कनिंघम एक हैं। मेजर अलेक्जेंडर कनिंघम ने इस इलाके में कई हफ्तों तक रुककर इन अवशेषों का अध्ययन किया। उन्होंने इस जगह के चित्र बनाए, वहाँ के अभिलेखों को पढ़ा और गुंबदनुमा ढाँचे के बीचोंबीच खुदाई की।”

विद्वान पुरातत्ववेत्ता एच. कोल ने 1881 ई. में साँची के खण्डहरों को सुरक्षित रखने के उद्देश्य से साँची की पहाड़ियों के ऊपरी हिस्से के जंगलों को साफ कराया ताकि प्राचीन धरोहर को व्यवस्थित ढंग से सुरक्षित किया जा सके। आगे चलकर 1912 ई. से आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के डायरेक्टर जनरल जॉन मार्शल ने साँची स्तूप के उत्खनन कार्य को गति प्रदान की जिसके फलस्वरूप साँची स्तूप को मूल रूप में लाने का प्रयत्न किया गया।

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