MP Board Class 12th History chapter 6 भक्ति-सूफी परम्पराएँ-धार्मिक विश्वासों में बदलाव important Questions in Hindi Medium (इतिहास)

अध्याय    6

भक्ति-सूफी परम्पराएँ-धार्मिक विश्वासों में बदलाव

 

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

 

बहु-विकल्पीय प्रश्न

  1. वज्रयान शाखा का जन्म किस धर्म के अन्तर्गत हुआ था ? (अ) वैष्णव धर्म,

 

(ब) शैव धर्म,

 

(स) बौद्ध धर्म,

 

(द) जैन धर्म ।

 

  1. दक्षिण भारत में प्रारम्भिक भक्ति आन्दोलन का उदय कहाँ हुआ ?

(अ) तमिलनाडु,

 

(च) आन्ध्र प्रदेश,

 

(स) कर्नाटक,

 

(द) इनमें से कहीं नहीं।

 

  1. अलवार संतों के ‘आराध्य देव’ कौन हैं ?

 

(अ) महात्मा बुद्ध,

 

(ब) विष्णु,

 

(स) शिव,

 

(द) महावीर स्वामी।

 

  1. नयनार सन्तों के ‘आराध्य देव’ कौन हैं ?

 

(अ) विष्णु,

 

(ब) शिव,

 

(स) महात्मा बुद्ध,

 

(द) इनमें से कोई नहीं।

 

  1. दक्षिण भारत का कौन-सा ग्रन्थ ‘तमिल वेद’ के नाम से प्रसिद्ध है ?

 

(अ) नलयिरादिव्य प्रबन्धम्,

 

(ब) मत्तविलास प्रहसन,

 

(स) रामावतारम्,

 

(द) कलिंगत्तुप्पाणि ।

 

  1. लिंगायत समुदाय के प्रवर्तक कौन थे ?

(अ) तोंदराडिप्पोडि,

 

(ब) करइक्काल अम्मइयार,

 

(स) बासवन्ना,.

 

(द) अप्पार संबंदर।

 

  1. भारत में चिश्ती सिलसिला की स्थापना का श्रेय किसे दिया जाता है ?

 

(अ) शेख बहाउद्दीन जकारिया,

 

(ब) शेख निजामुद्दीन औलिया

 

(स) शेख सलीम चिश्ती,

 

(द) शेख मुईनुद्दीम चिश्ती

 

  1. बंगाल में भक्ति आन्दोलन के प्रसार में किसका विशेष योगदान रहा ?

 

(अ) चैतन्य महाप्रभु

 

(ब) रामानुजाचार्य,

 

(स) रैदास,

 

 

(द) इनमें से कोई नहीं।

 

  1. ‘गुरु ग्रन्थ साहिब’ किस धर्म का पवित्र ग्रन्थ है ?

 

(अ) वैष्णव धर्म,

 

(ब) शैव धर्म,

 

(स) सिक्ख धर्म,

 

(द) बौद्ध धर्म ।

 

  1. कौन-सा भक्ति आन्दोलन का प्रभाव नहीं है ?

 

(अ) हिन्दुओं में साहस का संचार,

 

(ब) बाह्य आडम्बरों में कमी,

 

(स) जाति प्रथा का प्रभाव कम हुआ,

(द) हिन्दू मुस्लिम में दूरी बढ़ी।

 

उत्तर- 1. (स), 2. (अ), 3. (ब), 4. (ब) 5. (अ), 6. (स), 7. (द), 8. (अ), 9. (स) 10. (द) ।

 

  • रिक्त स्थानों की पूर्ति

 

  1. हिन्दुओं के देवता भगवान जगन्नाथ का मन्दिर…….में स्थित है।

 

  1. प्रारम्भिक भक्ति आन्दोलन का उदय……. में हुआ था।

 

  1. छठी शताब्दी ईस्वी में प्रारम्भिक भक्ति आन्दोलन का सूत्रपात……. ने किया को तमिल वेद के रूप में जाना था।

 

  1. अलवार सन्तों के एक मुख्य काव्य संकलन……. जाता है।

 

  1. वीर शैव सम्प्रदाय के प्रवर्तक…….थे।

 

  1. अबुल फजल ने ‘आइन-ए-अकबरी’ में भारत में …….(संख्या) सूफी सिलसिलों का उल्लेख किया है।

 

  1. कबीर के गुरु का नाम …….है।

 

  1. चैतन्य महाप्रभु का जन्म (वर्ष) …….में हुआ था।

 

  1. गुरुनानक जी का जन्म कार्तिक मास की …….के दिन हुआ था।

 

  1. कुछ परम्पराओं में उल्लेख मिलता है कि मीराबाई के गुरु……. थे।

 

उत्तर – 1. पुरी (ओडिशा), 2. तमिलनाडु, 3. अलवार व नयनार संतों, 4. नलयिरादिव्य प्रबन्धम्, 5. बासवन्ना, 6. चौदह, 7. रामानन्द, 8. 1486 ई., 9. पूर्णिमा, 10. रैदास।

 

सत्य / असत्य

 

  1. प्रारम्भिक भक्ति आन्दोलन का उदय कर्नाटक में हुआ था।

 

  1. अलवार और नयनार सन्तों ने तत्कालीन जाति प्रथा का विरोध किया था।

 

  1. वीर शैव परम्परा के मतावलम्बी जन्म आधारित जाति व्यवस्था को स्वीकार नहीं करते हैं।

 

  1. भारत में चिश्ती सिलसिले की स्थापना शेख सलीम चिश्ती ने की थी।

 

  1. दादू, कबीर के अनुयायी थे।

 

उत्तर- 1. असत्य, 2. सत्य, 3. सत्य, 4. असत्य, 5. सत्य

 

सही जोड़ी बनाइए

 

‘अ’

 

  1. कबीर. (i) जाट

 

  1. रैदास (ii) ब्राह्मण

 

  1. धन्ना. (iii) चर्मचार

 

  1. रामानन्द. (iv) जुलाहा

 

उत्तर – 1. (iv), 2. → (iii), 3. → (i), 4. → (ii).

 

एक शब्द/वाक्य में उत्तर

 

  1. अजमेर में किस प्रसिद्ध सूफी सन्त की दरगाह है ?

 

  1. सूफी सन्त निजामुद्दीन औलिया की दरगाह कहाँ स्थित है ?

 

  1. सूफी मत के सुहरावर्दी सिलसिले के प्रवर्तक कौन थे ?

 

  1. कबीर के गुरु कौन थे ?

 

  1. सिक्ख धर्म के प्रवर्तक कौन हैं ?

 

  1. गुरुनानक का जन्म कहाँ हुआ था ?

 

  1. बंगाल में भक्ति आन्दोलन से सम्बन्धित एक सन्त का नाम लिखिए।

 

उत्तर- 1. शेख मुईनुद्दीन चिश्ती, 2. दिल्ली, 3. शेख वहाउद्दीन जकारिया, 4. सन्त रामानन्द, 5. गुरुनानक, 6. तलबंडी (पंजाब), 7. चैतन्य महाप्रभु

 

प्रश्न 1. कश्मीरी शैव धर्म के बारे में आप क्या जानते हैं ? उत्तर- नौवीं और दसवीं शताब्दियों में शैव धर्म के एक रूप कश्मीरी शैव धर्म को पर्याप्त लोकप्रियता मिली। इसके प्रवर्तक वसुगुप्त थे। कश्मीर शैव धर्म के अनुयायी एकेश्वरवाद अथवा अद्वैतवाद में विश्वास करते थे।

 

प्रश्न 2. हिन्दू परम्परा के अनुसार मोक्ष प्राप्ति के कितने मार्ग हैं तथा कौन-कौन  से हैं ?

 

उत्तर – हिन्दू परम्परा के अनुसार मोक्ष प्राप्ति के तीन मार्ग हैं- (1) ज्ञान मार्ग, (2) कर्म मार्ग, (3) भक्ति मार्ग ।

 

प्रश्न 3. दक्षिण भारत में प्रारम्भिक भक्ति आन्दोलन का उदय कब और कहाँ हुआ था ? इसके प्रवर्तक कौन थे ?

उत्तर-दक्षिण भारत में प्रारम्भिक भक्ति आन्दोलन का उदय तमिलनाडु में हुआ था। इसके प्रवर्तक अलवार और नयनार सन्त थे ।

 

प्रश्न 4. वीर शैव परम्परा का सूत्रपात कब और कहाँ हुआ था ? इसके प्रवर्तक कौन थे ?

उत्तर – वीर शैव परम्परा का सूत्रपात बारहवीं शताब्दी में कर्नाटक में हुआ था। इसके प्रवर्तक बासवन्ना थे।

 

प्रश्न 5. उलमा कौन थे ? संक्षेप में बताएँ ।

उत्तर- इस्लाम धर्म के ज्ञाता को ‘उलमा’ कहा जाता है। उलमा इस्लाम परम्परा के संरक्षक माने जाते थे और इस नाते वे धार्मिक, कानूनी और अध्यापन सम्बन्धी जिम्मेदारियों को निभाते थे।

 

प्रश्न 6. ‘शरिया’ क्या है ? संक्षेप में लिखिए।

उत्तर- मुस्लिम समुदाय को निर्देशित करने वाले कानून को ‘शरिया’ कहा जाता है, यह कुरान शरीफ और हदीस पर आधारित है।

 

प्रश्न 7. ‘जिम्मी’ से आप क्या समझते हैं ?

उत्तर- इस्लामी राज्य में निवास करने वाले गैर-मुसलमानों को जिम्मी कहा जाता था। प्रश्न 8. ‘जजिया’ क्या था ? संक्षेप में बताएँ । उत्तर- जजिया, एक प्रकार का कर था, जिसे गैर-मुसलमानों से वसूला जाता था।

 

प्रश्न 9. खानकाह के अर्थ को स्पष्ट कीजिए।

उत्तर – ‘खानकाह’ एक फारसी शब्द है, जिसका तात्पर्य ‘ आश्रम’ से है। खानकाह में सूफी पीर (सन्त अथवा गुरु) अपने अनुयायियों (मुरीदों) के साथ रहा करते थे।

 

प्रश्न 10. सूफी सिलसिले किन दो वर्गों में विभक्त थे ?

उत्तर- सूफी सिलसिले मुख्य रूप से दो भागों में विभक्त थे – (1) बे शरिया, और (2) वा शरिया।

 

प्रश्न 11. भारत में कितने और कौन-कौन से सिलसिले सफल रहे ?

उत्तर-भारत में सूफियों के केवल चार सिलसिले ही सफल रहे। इन सिलसिलों के नाम हैं—(1) चिश्ती सिलसिला, (2) सुहरावर्दी सिलसिला, (3) कादिरी सिलसिला, और (4) नक्शबन्दिया सिलसिला।

 

प्रश्न 12. रामानुजाचार्य कौन थे ? संक्षेप में लिखिए।

उत्तर- रामानुजाचार्य भक्ति आन्दोलन के महान प्रचारक थे। इनका जन्म मद्रास प्रान्त (आधुनिक आन्ध्र प्रदेश) में तिरुपति नामक स्थान में हुआ था। इनका विश्वास था कि समस्त बातों से ध्यान हटाकर ईश्वर की भक्ति करने से मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है। इन्होंने वेदान्त संग्रह, वेदान्त सूत्र, वादरायण का भाष्य तथा भगवद्गीता की व्याख्या लिखी।

 

प्रश्न 13. भक्ति आन्दोलन के किन्हीं चार सन्तों के नाम लिखिए।

उत्तर- (1) सन्त कबीर, (2) चैतन्य महाप्रभु, (3) गुरुनानक, (4) मीराबाई ।

 

प्रश्न 14. मीराबाई का जन्म कब और कहाँ हुआ था ?

उत्तर- मीराबाई का जन्म 1498 ई. में मेड़ता जिले के कुदकी गाँव में हुआ था।

 

लघु उत्तरीय प्रश्न

 

प्रश्न 1. उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए कि सम्प्रदाय के समन्वय से इतिहासकार क्या अर्थ निकालते हैं ? आठवीं से अठारहवीं शताब्दी के बीच के काल में पूजा-प्रणालियों के समन्वय के

अथवा

सन्दर्भ में कौन-सी दो प्रक्रियाएँ कार्यरत थीं ? संक्षेप में बताइए।

उत्तर- विचाराधीन काल में विभिन्न सम्प्रदायों अथवा पूजा-प्रणालियों का समन्वय एक प्रमुख विशेषता थी। विद्वान इतिहासकारों का मानना है कि इस काल में पूजा प्रणालियों के समन्वय में प्रमुखता दो प्रक्रियाएँ कार्यरत् थीं। इनमें से एक प्रक्रिया ब्राह्मणीय विचारधारा के प्रचार से सम्बन्धित थी, जिसका प्रसार पौराणिक ग्रन्थों की रचना, संकलन और परिरक्षण के माध्यम से हुआ था। इन पौराणिक ग्रन्थों की रचना संस्कृत भाषा के सरल छन्दों में की गई थी, जिन्हें वैदिक विद्या से विहीन स्त्रियाँ और शूद्र भी आसानी से समझ सकते थे। इस काल की दूसरी प्रक्रिया का सम्बन्ध स्त्रियों, शूद्रों और अन्य सामाजिक वर्गों की आस्थाओं और आचरणों को ब्राह्मणों द्वारा स्वीकृत किए जाने और उन्हें एक नवीन रूप प्रदान किए जाने से था। इस सन्दर्भ में अनेक समाजशास्त्रियों का यह मानना था कि सम्पूर्ण देश में अनेक धार्मिक विचारधाराओं और पद्धतियों का जन्म, ‘महान’ संस्कृत पौराणिक परम्पराओं और ‘लघु’ परम्पराओं के मध्य हुए पारस्परिक सम्पर्कों का परिणाम था।

समन्वय की इस प्रक्रिया का सबसे महत्वपूर्ण और विशिष्ट उदाहरण पुरी (ओडिशा) से प्राप्त है, जहाँ मुख्य देवता को बारहवीं शताब्दी तक आते-आते भगवान जगन्नाथ जिन्हें शाब्दिक अर्थ में सम्पूर्ण विश्व का स्वामी माना गया है, विष्णु के एक स्वरूप के रूप में प्रस्तुत किया गया।

इस उदाहरण में एक स्थानीय देवता को विष्णु के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जिसकी प्रतिमा को पहले और आज भी स्थानीय जनजाति के विशेषज्ञों द्वारा लकड़ी से निर्मित किया जाता है। यहाँ यह तथ्य उल्लेखनीय है कि विष्णु का यह स्वरूप देश के अन्य भागों में मिलने वाले स्वरूपों से पूर्णतः भिन्न था।

 

प्रश्न 2. अलवार-नयनार परम्परा में स्त्री भक्तों पर टिप्पणी लिखिए।

उत्तर- अलवार व नयनार संत परम्परा की सम्भवतः सबसे महत्त्वपूर्ण विशिष्टता यह थी कि इस परम्परा में स्त्रियों की उपस्थिति थी। उदाहरणार्थ- अंडाल, अलवार संत परम्परा की एक महान स्त्री-भक्त थी। इनके भक्ति गीत व्यापक स्तर पर गाए जाते थे और आज भी बड़ी श्रद्धा और भक्ति भाव से गाए जाते हैं। अंडाल स्वयं को विष्णु की प्रेयसी मानती थीं और अपनी प्रेम भावना को छंदों के माध्यम से व्यक्त करती थीं। इसी प्रकार एक और स्त्री भक्त थीं, जिनका नाम करइक्काल अम्मइयार है, ये नयनार संत परम्परा से सम्बन्धित थीं। ये शिव को अपना आराध्य मानती थीं और इन्होंने अपने चरम लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए घोर तपस्या का मार्ग अपनाया था। इनके द्वारा अनेक भक्ति रचनाएँ रची गई थीं, इनकी रचनाएँ नयनार परम्परा में सुरक्षित हैं। यद्यपि इन स्त्री भक्तों ने अपने सामाजिक कर्त्तव्यों का परित्याग कर दिया था, फिर भी ये कभी किसी भिक्षुणी समुदाय की सदस्या नहीं बनी और न ही इन्होंने किसी वैकल्पिक व्यवथा को स्वीकार किया। इन स्त्री भक्तों ने अपनी जीवन पद्धति और अपनी रचनाओं के माध्यम से पितृसत्तात्मक आदर्शों को चुनौती दी।

 

प्रश्न 3. चर्चा कीजिए कि अलवार, नयनार और वीर शैवों ने किस प्रकार जाति-प्रथा की आलोचना प्रस्तुत की।

उत्तर- विद्वान इतिहासकारों का मानना है कि अलवार और नयनार सन्तों ने तत्कालीन जाति प्रथा का विरोध किया। इन सन्तों ने समाज में ब्राह्मणों की प्रभुता के विरोध में आवाज उठाई। उन्होंने धर्म को कर्मकाण्ड के चंगुल से निकाल कर भक्ति प्रधान बनाया और सर्वसाधारण के लिए धर्म का द्वार खोल दिया। इन सन्तों में ब्राह्मण, अब्राह्मण, अस्पृश्य आदि जातियों के लोग थे, उन्होंने जाति-पाँति का भेदभाव नहीं माना। ये संत “हरि को भजै सो हरि का होई” सिद्धान्त को मानने वाले थे।

वीरशैव परम्परा के मतावलम्बी भी जन्म आधारित जाति व्यवस्था को स्वीकार नहीं करते हैं। उन्होंने समाज में प्रचलित कुछ समुदायों के ‘पवित्र’ और कुछ के ‘दूषित’ होने की ब्राह्मणीय अवधारणा की कटु आलोचना की और उन्होंने जाति-पाँति के भेदभावों का विरोध किया। लिंगायतों का मानना है कि समाज में मनुष्य की श्रेष्ठता का आधार उसका जन्म नहीं अपितु कर्म होने चाहिए।

 

प्रश्न 4. शरिया क्या है ? यह किस प्रकार उद्भुत हुआ ?

उत्तर- मुस्लिम समुदाय को निर्देशित करने वाले कानून को शरिया कहा जाता है, यह कुरान शरीफ और हदीस पर आधारित है। हदीस का अर्थ है- पैगम्बर साहस से जुड़ी परम्पराएँ, जिनके अन्तर्गत उनके स्मृत शब्द और क्रियाकलाप भी आते हैं। अरब क्षेत्र से बाहर (जहाँ के आचार-व्यवहार भिन्न थे) इस्लाम धर्म का प्रसार होने पर ‘ कियास’ (अर्थात् सदृश्यता के आधार पर तर्क) तथा ‘इजमा’ (अर्थात् समुदाय की सहमति) को भी कानून का स्रोत माना जाने लगा। इस तरह शरिया का उद्भव कुरान, हदीस, कियास और इजमा से हुआ।

 

प्रश्न 5. किस हद तक उपमहाद्वीप में पाई जाने वाली मस्जिदों का स्थापत्य स्थानीय परिपाटी और सार्वजनिक आदर्शों का सम्मिश्रण है।

उत्तर- उपमहाद्वीप में पाई जाने वाली कई मस्जिदों का स्थापत्य स्थानीय परिपाटी और सार्वभौमिक आदर्शों का सराहनीय सम्मिश्रण है। मस्जिदों के कुछ स्थापत्य सम्बन्धी तत्व

सार्वभौमिक होते थे; जैसे-इमारत का मक्का की तरफ अनुस्थापन, जो मेहराब (प्रार्थना का आला) और मिनबार (व्यासपीठ) की स्थापना से लक्षित किया जाता था। लेकिन विचाराधीन काल में निर्मित की गई अनेक मस्जिदों में बहुत से तत्वों; जैसे- छत और निर्माण सामग्री में भिन्नता देखने को मिलती है। मस्जिदों के स्थापत्य की इस भिन्नता का कारण- मस्जिदों के स्थापत्य का स्थानीय परिपाटियों से प्रभावित होना तथा निर्माण कार्य में स्थानीय स्तर पर उपलब्ध निर्माण सामग्री का प्रयोग किया जाना था। उदाहरण के तौर पर यदि हम केरल, बांग्लादेश और कश्मीर की मस्जिदों का अध्ययन करें तो हमें इन मस्जिदों में स्थानीय स्थापत्य का स्पष्ट प्रभाव दिखाई देगा। केरल में तेरहवीं शताब्दी में निर्मित मस्जिद की छत शिखर के आकार की है; शिखर केरल के मन्दिर स्थापत्य की प्रमुख विशेषता थे। बांग्लादेश में 1609 ई. में निर्मित अतिया मस्जिद के गुम्बदों और मीनारों में इस्लामी स्थापत्य कला स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। इसी प्रकार कश्मीर में 1395 ई. में निर्मित शाह हमदान मस्जिद काष्ठ स्थापत्य कला का अनुपम उदाहरण है, इस मस्जिद के शिखर और छज्जे नक्काशीदार हैं; इस मस्जिद पर कश्मीरी स्थापत्य शैली का उल्लेखनीय प्रभाव स्पष्टत: दृष्टिगोचर होता है।

 

प्रश्न 6. सूफी मत के विकास पर एक टिप्पणी लिखिए।

उत्तर- सूफी मत मुस्लिम विचारकों का एक धार्मिक संगठन है, जो जनसाधारण को भौतिक जीवन से दूर रहकर सरल और संयमित जीवन व्यतीत करने पर बल देता है। सूफी मतावलम्बियों के जीवन का मुख्य उद्देश्य परोपकार और दीन-दुःखियों की सेवा करना था। इस मत का उदय इस्लाम के रहस्यवाद से होना स्वीकार किया जाता है। विद्वानों ने सूफी मत के विभिन्न अर्थ बताए हैं। कुछ विद्वानों का मानना है कि ‘सूफी’ शब्द का सम्बन्ध यूनानी शब्द ‘सोफिया’ से है, जिसका अर्थ ‘ज्ञान’ होता है। कुछ विद्वानों का मानना है कि सूफी शब्द ‘सफा’ से बना है, जिसका अर्थ ‘पवित्र’ होता है। इसी प्रकार कुछ अन्य विद्वानों का मानना है कि मुहम्मद साहब के समय मदीने की मस्जिद के सम्मुख चबूतरे पर साधना करने वाले लोग ‘सूफी सन्त’ कहलाए।

महमूद गजनवी की पंजाब विजय के उपरान्त भारत में अनेक सूफी सन्तों का आगमन हुआ। इन सन्तों में सबसे पहले आने वालों में शेख इस्माइल का नाम महत्वपूर्ण है, जो लाहौर में आए थे। इनके बाद दातागंज बख्श नाम से प्रसिद्ध शेख अली बिन उस्मान-अल-हजविरी का आगमन हुआ, जिनका मकबरा लाहौर में है। बारहवीं शताब्दी में एक अन्य सूफी सन्त सैयद अहमद सुल्तान सखी सरवर का भारत में आगमन हुआ, जिन्हें ‘ लखदाता’ के नाम से जाना जाता था। इस प्रकार के अनेक सूफी सन्तों ने कुरान की व्याख्या अपने व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर की और पैगम्बर मुहम्मद को इंसान-ए-कामिल बताते हुए उनका अनुसरण करने की शिक्षा प्रदान की। भारत में 1200 ई. से लेकर 1500 ई. तक धीरे-धीरे सूफी मत का विकास हुआ।

 

प्रश्न 7. बे शरिया और बा शरिया सूफी परम्परा के बीच एकरूपता और अन्तर, दोनों को स्पष्ट कीजिए। अथवा

वे शरिया और बा शरिया सूफी परम्पराओं की समानताओं एवं असमानताओं पर प्रकाश डालिए।

उत्तर- सूफी सिलसिले मुख्य रूप से दो भागों में विभक्त थे- (1) बे शरिया, और (2) बा शरिया। बा शरिया का अभिप्राय था- इस्लामी कानून अर्थात् शरिया का पालन करनेवाले सिलसिले; और बे शरिया का अभिप्राय था- ऐसे सिलसिले जो शरिया में बँधे हुए नहीं थे, शरिया अर्थात् इस्लामी कानून की अवहेलना करने के कारण उन्हें बे शरिया कहा जाता था। बे शरिया सूफी सन्त खानकाह का तिरस्कार करके रहस्यवादी एवं फकीर की जिंदगी बिताते थे, वे निर्धनता में रहते हुए ब्रह्मचर्य का पालन करते थे। इन्हें कलंदर, मदारी, मलंग, हैदरी आदि नामों से जाना जाता था। चूँकि ये लोग शरिया की अवहेलना करते थे, इस कारण इन्हें बे शरिया के नाम से जाता था। इस प्रकार इन्हें बा शरिया अर्थात् शरिया का पालन करने वाले सूफियों से अलग करके देखा जाता था।

 

प्रश्न 8. सूफी सन्तों ने अपने सम्पर्क किस भाषा के माध्यम से बढ़ाए ? विस्तार से बताइए।

उत्तर- भारत में सूफी सन्तों की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह भी थी कि उन्होंने अपने संदेशों को प्रचारित करने के लिए स्थानीय भाषाओं को अपनाया था। दिल्ली में चिश्ती सिलसिले के लोग आपस में हिन्दवी में बातचीत किया करते थे। पंजाब में सूफी सन्त बाबा फरीद ने अपने संदेशों का प्रचार करने के लिए वहाँ की क्षेत्रीय भाषा पंजाबी में छन्दों की रचना की थी, उनके कुछ छन्द गुरु ग्रन्थ साहिब में संकलित हैं। कुछ और सूफी सन्तों ने ईश्वर के प्रति प्रेम को मानवीय प्रेम के रूपक के रूप में अभिव्यक्त करने के लिए लम्बी कविताएँ लिखीं, जिन्हें ‘मनसवी’ कहा जाता है। उदाहरणार्थ, मलिक मोहम्मद जायसी के प्रेमाख्यान ‘पद्मावत’ की विषय-वस्तु रानी पद्मिनी और चित्तौड़ के शासक रतन सिंह की प्रेम कथा है, लेकिन इस ग्रन्थ में उनके एक-दूसरे को प्राप्त करने के प्रयास वास्तव में आत्मा के परमात्मा को प्राप्त करने के प्रयासों के प्रतीक हैं। खानकाहों में बहुधा समाँ के दौरान इस प्रकार के काव्यों का गायन किया जाता था।

 

प्रश्न 9. भक्ति आन्दोलन के सन्त रामानन्द का संक्षिप्त परिचय दीजिए। उत्तर – सन्त रामानन्द वैष्णव धर्मोपदेशक थे। उत्तरी भारत में भक्ति आन्दोलन को प्रसारित करने का श्रेय इन्हीं को है। इनका जन्म 1299 ई. में प्रयाग के कान्यकुब्ज ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनकी शिक्षा प्रयाग तथा वाराणसी में हुई थी। सन्त रामानन्द ने भी आचार्य रामानुज की भाँति भक्ति को मोक्ष का एकमात्र साधन स्वीकार किया था। उनका मूल उद्देश्य धर्म तथा भक्ति के माध्यम से समाज सुधार करना था। उन्होंने सभी जातियों के लोगों को अपना शिष्य बनाकर भ्रातृत्ववाद का प्रतिपादन किया। उन्होंने जाति प्रथा की आलोचना करके उसे अनावश्यक बताया। उन्होंने भारत में मुस्लिम शासन की स्थापना के बाद दुःख संतृप्त हिन्दू समाज की तृष्णा को शान्त किया। उन्होंने समाज-सुधार आन्दोलन की भूमिका तैयार की थी ।

 

प्रश्न 10. भक्ति आन्दोलन का सामाजिक जीवन पर क्या प्रभाव पड़ा ? संक्षेप में लिखिए।

उत्तर- भक्ति आन्दोलन के सामाजिक जीवन पर निम्नांकित प्रभाव पड़े

 

(1) हिन्दुओं में आशा तथा साहस का संचार – भक्ति आन्दोलन से हिन्दुओं में आत्मबल का संचार हुआ। जिसके परिणामस्वरूप हिन्दुओं की निराशा दूर हुई और हिन्दू अपनी सभ्यता व संस्कृति को बचाने में सफल रहे।

 

(2) मुसलमानों के अत्याचारों में कमी-भक्ति आन्दोलन के सन्तों द्वारा प्रतिपादित शिक्षाओं व उपदेशों का प्रभाव मुस्लिम शासकों पर भी पड़ा। जिसके परिणामस्वरूप विभिन्न धर्मों के मध्य एकता स्थापित हुईं जिससे मुसलमानों के अत्याचार कम हो गए।

 

(3) बाहरी आडम्बरों में कमी- भक्ति आन्दोलन के सभी सन्तों ने अपने उपदेशों में आडम्बरों की निन्दा की और पवित्रता पर बल दिया। इन उपदेशों का प्रभाव यह हुआ कि लोग बाहरी आडम्बरों को त्यागकर सरल जीवन की ओर अग्रसर हुए।

 

(4) वर्गीयता तथा संकीर्णता पर आघात- भक्ति आन्दोलन के सन्तों ने ऊँच-नीच,छूत-अछूत आदि का भेदभाव दूर करने का प्रयत्न किया। जिसके परिणामस्वरूप समाज में व्याप्त वर्गीयता और संकीर्णता को आघात लगा।

 

(5) सामाजिक सद्भावना का विकास – भक्ति आन्दोलन के सन्तों द्वारा प्रवाहित प्रेममयी वाणी से समाज में सौम्यता, सौजन्यता और सद्भावना का विकास हुआ।

 

(6) आत्म-गौरव एवं राष्ट्र भावना का प्रादुर्भाव-भक्ति आन्दोलन के सन्तों की ओजस्वी वाणी ने मनुष्य में आत्म-गौरव एवं राष्ट्र भावना का संचार किया जिसके परिणामस्वरूप कालान्तर में महाराष्ट्र, पंजाब आदि में राष्ट्रीय आन्दोलन का प्रादुर्भाव हुआ।

 

दीर्घ उत्तरीय / विश्लेषणात्मक प्रश्न

 

प्रश्न 1. तमिलनाडु के अलवार और नयनार सन्तों ने प्रारम्भिक भक्ति परम्परा के विकास में किस प्रकार योगदान दिया ? विस्तार से लिखिए।

उत्तर- प्रारम्भिक भक्ति आन्दोलन का उदय लगभग छठी शताब्दी ई. में तमिलनाडु में हुआ था। तमिलनाडु में इस आन्दोलन का सूत्रपात अलवार और नयनार संतों ने किया था। अलवार संत विष्णु के उपासक थे और नयनार संत शिव के उपासक थे। इन सन्तों ने भक्ति रस को प्रवाहित करने के लिए बहुत से गीतों की रचना की, जो जनमानस में काफी लोकप्रिय हुए। इन्होंने अपनी रचनाओं और सिद्धान्तों को सर्वसाधारण तक पहुँचाने के लिए जनवाणी तमिल को अपनाया और उसमें अपने पदों की रचना की। ये संत एक स्थान से दूसरे स्थान पर भ्रमण करते हुए अपने इष्टदेव की स्तुति में जनवाणी तमिल में भजन गाते थे।

अलवार और नयनार संतों ने एक स्थान से दूसरे स्थान के भ्रमण के दौरान कुछ स्थलों को अपने इष्टदेव का निवास स्थल घोषित किया था। कालान्तर में इन पावन स्थलों पर विशाल मन्दिरों का निर्माण हुआ और ये स्थल तीर्थ स्थलों में परिवर्तित हो गए। इन मन्दिरों में इष्टदेव के साथ-साथ सन्तों की प्रतिमाओं की भी पूजा की जाती थी। इन मन्दिरों में अनुष्ठान के समय संत-कवियों के भजनों को गाया जाता था।

 

प्रश्न 2. लिंगायत कौन थे ? जाति प्रथा के विशेष सम्बन्ध में सामाजिक और धार्मिक क्षेत्र में उनके योगदान की व्याख्या कीजिए।

उत्तर- कर्नाटक में बारहवीं शताब्दी में एक नवीन आन्दोलन का सूत्रपात हुआ जिसे वीरशैव परम्परा के नाम से जाना जाता है। इस नवीन आन्दोलन का नेतृत्व बासवन्ना (1106-68 ई.) नामक ब्राह्मण ने किया था। बासवन्ना कालचुरी राजा के दरबार में एक मंत्री थे। इनके अनुयायी ‘वीरशैव’ अर्थात् शिव के वीर और ‘लिंगायत’ अर्थात् लिंग धारण करने वाले के नाम से जाने गए।

वर्तमान में भी कर्नाटक में वीरशैव परम्परा काफी लोकप्रिय परम्परा है और इस परम्परा को मानने वाले लिंगायत समुदाय का इस क्षेत्र में विशेष महत्व है। इस समुदाय के मतावलम्बी शिव को अपना आराध्य देव मानते हैं और वे शिव की उपासना लिंग के रूप में करते हैं। लिंगायतों का यह विश्वास है कि मृत्यु के बाद उनका पुनर्जन्म नहीं होगा और वे अपने आराध्य देव शिव में लीन हो जाएँगे। वीरशैव परम्परा के मतावलम्बी अपने मृतकों को विधिपूर्वक दफनाते हैं, वे धर्मशास्त्र में निहित श्राद्ध संस्कार का पालन नहीं करते हैं। लिंगायत लोग धर्म से जुड़े आडम्बरों और निरर्थक रीति-रिवाजों का विरोध करते हैं। उनका मानना है कि ईश्वर को अनुष्ठानों से नहीं, अपितु यथार्थ भक्ति भाव से प्राप्त किया जा सकता है।

वीरशैव परम्परा के मतावलम्बी जन्म आधारित जाति व्यवस्था को स्वीकार नहीं करते हैं। उन्होंने समाज में प्रचलित कुछ समुदायों के ‘पवित्र’ और कुछ के ‘दूषित’ होने की ब्राह्मणीय अवधारणा की कटु आलोचना की और उन्होंने जाति-पाँति के भेदभावों का विरोध किया। लिगांयातों का मानना है कि समाज में मनुष्य की श्रेष्ठता का आधार उसका जन्म नहीं अपितु कर्म होने चाहिए। उन्होंने पुनर्जन्म की ब्राह्मणीय अवधारणा को भी स्वीकार नहीं किया।

 

प्रश्न 3. सूफी मत के प्रमुख सिद्धान्तों का वर्णन कीजिए।

अथवा

सूफी मत के मुख्य धार्मिक विश्वासों और आचारों की व्याख्या कीजिए।

उत्तर- सूफी मत के सिद्धान्त-ग्यारहवीं शताब्दी तक आते-आते सूफीवाद एक पूर्ण विकसित आन्दोलन के रूप में प्रसारित होने लगा था, जिसका सूफी परम्परा और कुरान से जुड़ा अपना साहित्य था। इसके अपने सिद्धान्त थे, जिनका विवरण निम्नांकित है

 

(1) परमात्मा की एकता में आस्था-सूफी मत के अनुसार परमात्मा या ईश्वर एक है। सूफी सन्त ईश्वर की एकरूपता में विश्वास करते थे। उनके अनुसार आत्मा और परमात्मा में कोई भेद नहीं है, अतः आत्मा को परमात्मा में लीन करने का प्रयत्न करना चाहिए। सूफी सन्त ईश्वर को सत्य, निर्गुण और निराकार मानते हैं।

 

(2) भौतिक जीवन का त्याग-सूफी सन्त सांसारिक भोग विलास तथा वैभव प्रदर्शन के विरोधी थे, सादा जीवन तथा संयमपूर्ण जीवन को महत्व देते थे।

 

(3) प्रेम को महत्त्व – प्रेम को प्राय: सभी धर्मों में परमात्मा को प्राप्त करने का सर्वश्रेष्ठ साधन माना है। सूफी सन्तों ने भी प्रेम को विशेष महत्त्व दिया है। सूफी सन्तों के अनुसार परमात्मा की प्राप्ति प्रेम के माध्यम से ही हो सकती है। सूफी सन्त संगीत के माध्यम से अपना प्रेम भाव प्रकट करते थे।

 

(4) गुरु को महत्त्व – सूफी सन्त ईश्वर और मनुष्य के मिलने में शैतान को बाधक मानते हैं। शैतान से बचाने के लिए तथा सच्चा मार्ग दिखाने के लिए वे गुरु का होना परम आवश्यक मानते हैं। सूफी सन्तों का मानना था कि बिना आध्यात्मिक गुरु के व्यक्ति कभी कुछ प्राप्त नहीं कर सकता है।

 

(5) धार्मिक सहिष्णुता-सूफी सन्त उदार विचारधारा के थे, उनमें धार्मिक कट्टरता नहीं थी। वे सभी धर्मों को समान समझते थे तथा सभी को समान महत्त्व देते थे। उन्होंने किसी भी धर्म की आलोचना नहीं की। सूफी सन्तों ने इस्लामी कट्टरता को कम किया तथा हिन्दुओं और मुसलमानों को एक-दूसरे के निकट लाने का प्रयत्न किया।

 

(6) हृदय की पवित्रता पर बल-सूफी सन्त हृदय को दर्पण के समान मानते हैं। यदि हृदय शुद्ध और पवित्र है तो उनके अनुसार ईश्वर की प्रतिच्छाया भी स्पष्ट होगी।

 

प्रश्न 4. सूफी मत क्या था ? इसके चिश्ती सम्प्रदाय का वर्णन कीजिए।

उत्तर – सूफी मत- सूफी मत मुस्लिम विचारकों का एक धार्मिक संगठन है, जो जनसाधारण को भौतिक जीवन से दूर रहकर सरल और संयमित जीवन व्यतीत करने पर बल देता है। सूफी मतावलम्बियों के जीवन का मुख्य उद्देश्य परोपकार और दीन-दुःखियों की सेवा करना था। इस मत का उदय इस्लाम के रहस्यवाद से होना स्वीकार किया जाता है। विद्वानों ने सूफी मत के विभिन्न अर्थ बताए हैं। कुछ विद्वानों का मानना है कि ‘सूफी’ शब्द का सम्बन्ध यूनानी शब्द ‘सोफिया’ से है, जिसका अर्थ ‘ज्ञान’ होता है। कुछ विद्वानों का मानना है कि सूफी शब्द ‘सफा’ से बना है, जिसका अर्थ ‘पवित्र’ होता है। इसी प्रकार कुछ अन्य विद्वानों का मानना है कि मुहम्मद साहब के समय मदीने की मस्जिद के सम्मुख चबूतरे पर साधना करने वाले लोग ‘सूफी सन्त’ कहलाए।

चिश्ती सिलसिला – चिश्ती सिलसिला के मूल प्रवर्तक ख्वाजा अब्बू अब्दुल्ला थे। अबुल फजल के ग्रन्थ ‘ आइन-ए-अकबरी’ के अनुसार भारत में चिश्ती सिलसिले की स्थापना शेख मुईनुद्दीन चिश्ती ने की थी। इनका जन्म ईरान के सिस्तान नगर में हुआ था। इनके पिता सैय्यद ग्यासुद्दीन एक धार्मिक स्वभाव के व्यक्ति थे। इनके गुरु ख्वाजा उस्मान हारूनी थे। ये अपने गुरु के आदेश पर ये लाहौर आए और अन्त में अजमेर में स्थायी रूप से रहने लगे। अजमेर में ही शेख मुईनुद्दीन चिश्ती ने अपना शेष जीवन व्यतीत किया। शेख मुईनुद्दीन चिश्ती ने हिन्दुओं के प्रति उदार दृष्टिकोण अपनाया। उन्हें हिन्दू दर्शन के अद्वैतवादी सिद्धान्त में आस्था थी। इसलिए उन्होंने सर्वव्यापी एकेश्वरवाद का सर्वत्र प्रचार किया। मानवता की सेवा को वह सर्वोच्च भक्ति मानते थे। डॉ. आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव ने उनकी प्रशंसा करते हुए लिखा है, “ख्वाजा ने अपने धर्म प्रचार के कार्य में जो कठिनाइयाँ उठाईं, उनके लिए वे प्रशंसा के पात्र – हैं। साथ ही हिन्दुओं का एक विदेशी के प्रति मैत्रीपूर्ण व्यवहार भी कम प्रशंसनीय नहीं है। ” उनकी मृत्यु 1234 ई. में अजमेर में हुई, जहाँ उनकी मजार पर आज भी हिन्दू और मुसलमान दोनों समान रूप से अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए जाते हैं। उनके निधन के पश्चात् उनके प्रचार कार्य को उनके शिष्यों ने आगे बढ़ाया।

 

प्रश्न 5. उदाहरण सहित विश्लेषण कीजिए कि क्यों भक्ति और सूफी चिन्तकों ने अपने विचारों को व्यक्त करने के लिए विभिन्न भाषाओं का प्रयोग किया ?

उत्तर- भक्ति और सूफी चिन्तकों ने अपने विचारों को जनसाधारण तक पहुँचाने के लिए विभिन्न भाषाओं का प्रयोग किया। ये भाषाएँ प्राय: स्थानीय थीं, जिन्हें समझना साधारण लोगों के लिए आसान था। यदि सन्त कवि कुछ विशिष्ट भाषाओं का ही प्रयोग करते रहते तो उनके विचारों का सम्प्रेषण कभी नहीं होता और ये उनके साथ ही विलुप्त हो गए होते। अतः भक्ति और सूफी चिन्तकों द्वारा स्थानीय भाषाओं को अपनाना विचारों के प्रवाह में महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ।

उदाहरण- (1) अलवार और नयनार सन्तों ने अपना प्रचार स्थानीय तमिल भाषा में किया।

 

(2) सन्त कबीर के दोहे और छंद कई भाषाओं में मिलते हैं। इनमें से कुछ संत भाषा में हैं जो निर्गुण कवियों की विशेष बोली थी।

 

(3) सूफी सन्तों ने भी स्थानीय भाषाओं को अपनाया, जैसे- बाबा फरीद ने पंजाबी भाषा को अपनाया।

 

(4) गुरुनानक जी ने भी अपनी मातृ भाषा में अपना प्रचार किया।

 

प्रश्न 6. भक्ति आन्दोलन की उत्पत्ति के कारणों की विवेचना कीजिए।

उत्तर- भक्ति आन्दोलन की उत्पत्ति के कारण निम्नांकित हैं

(1) हिन्दू धर्म का जटिल होना- सल्तनत काल में हिन्दू धर्म का स्वरूप अत्यन्त जटिल हो गया था। याज्ञिक कर्मकाण्ड, पूजा-पाठ, उपवास आदि धार्मिक क्रियाओं की जटिलता को सर्वसाधारण जनता सरलता से निभा नहीं पा रही थी जबकि भक्ति मार्ग अत्यन्त सरल तथा जटिलताओं से रहित था, इसलिए जनमानस ने इसे सहर्ष स्वीकार किया जिससे यह लोकप्रिय होता चला गया।

 

(2) दीर्घकालीन पराधीनता – सल्तनत काल में हिन्दू अपनी राजनीतिक स्वतन्त्रता को खो चुके थे तथा दीर्घकालीन पराधीनता ने उन्हें निराश कर दिया था। इसलिए मानसिक तनाव से मुक्ति प्राप्त करने के लिए हिन्दू ईश्वर भक्ति में लीन हो गए। वास्तव में, जब मनुष्य को मानवीय सहारे की आशा नहीं रहती तो वह ईश्वर की शरण में होने का प्रयास करता है।

 

(3) क्रियात्मक शक्ति के नियोजन की आवश्यकता- दीर्घकाल तक पराधीन रहने के कारण हिन्दुओं का कर्मशील जीवन नष्ट हो गया था तथा वे निष्क्रिय जीवन व्यतीत कर रहे थे, ऐसी स्थिति में ईश्वर की भक्ति में लीन होकर वे क्रियाशीलता का अनुभव करने लगे।

 

(4) जाति व्यवस्था का जटिल होना-मध्यकाल तक आते-आते भारतीय समाज में जाति व्यवस्था बहुत जटिल हो चुकी थी। भारतीय समाज में उच्च जातियाँ स्वयं को श्रेष्ठ समझकर निम्न जातियों पर अत्याचार करती थीं जिसके परिणामस्वरूप निम्न जातियों में असंतोष था। भक्ति आन्दोलन ने सभी के लिए रास्ते खोल दिए थे। इस आन्दोलन में जाति-पाँति तथा ऊँच-नीच की भावना का विरोध था। अतः भक्ति आन्दोलन ने अछूते तथा निम्न वर्ग के व्यक्तियों के लिए भी मार्ग खोल दिया था।

 

(5) मन्दिरों और मूर्तियों का विनाश- कुछ धर्मान्ध मुस्लिम शासकों ने देश में अनेक मन्दिरों का अस्तित्व समाप्त कर दिया था और मूर्तियों को तोड़-फोड़ डाला था। ऐसी स्थिति में हिन्दुओं ने ईश्वर उपासना का कोई और साधन न देखकर भक्ति मार्ग को ही ग्रहण करना उचित समझा।

 

(6) समन्वय की भावना – दीर्घकाल तक एक साथ रहने के कारण हिन्दू तथा मुसलमानो ने यह अनुभव किया कि दोनों धर्मावलम्बियों में जो ईर्ष्या, द्वेष, कटुता तथा वैमनस्य उत्पन्न हो गया है, उसका अन्त कर सद्भावना उत्पन्न की जाए।

 

प्रश्न 7. भक्ति आन्दोलन की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए।

उत्तर- भक्ति आन्दोलन के प्रमुख समर्थक सन्त रामानुजाचार्य, रामानन्द, कबीर, माधवाचार्य, गुरुनानक तथा चैतन्य महाप्रभु आदि थे। इन सन्तों की शिक्षाओं से ही भक्ति आन्दोलन की विशेषताओं का ज्ञान होता है, जिनका विवेचन निम्नांकित है

 

(1) आडम्बरों की उपेक्षा तथा सच्ची भक्ति पर बल-भक्ति आन्दोलन का स्वरूप अत्यन्त सरल तथा आडम्बरहीन था। इसमें परम्परागत चले आ रहे अन्धविश्वासों तथा कर्मकाण्डों को तनिक भी स्थान नहीं दिया गया था।

 

(2) एकेश्वरवाद में आस्था- भक्ति आन्दोलन के प्रणेताओं का मानना था कि संसार में सर्वशक्तिमान और सर्वोपरि ईश्वर एक है। इन लोगों में कुछ राम के भक्त थे और कुछ कृष्ण के, किन्तु वे राम और कृष्ण में कोई भेद नहीं मानते थे। भक्ति आन्दोलन के प्रणेता सच्चे एकेश्वरवादी थे, वे हिन्दुओं के ईश्वर तथा मुसलमानों के खुदा में कोई अन्तर नहीं मानते थे।

 

(3) ईश्वर के प्रति अपार प्रेम पर बल – भक्ति आन्दोलन के सभी सन्तों ने ईश्वर प्रेम पर बल दिया। उनका विश्वास था कि भक्ति तथा ज्ञान के द्वारा मोक्ष की प्राप्ति होती है और यह ईश्वर के प्रति अपार प्रेम के द्वारा ही हो सकता है।

 

(4) हृदय की स्वच्छता पर बल- भक्ति आन्दोलन के सभी सन्तों का यह मत था कि स्वच्छ हृदय के द्वारा ही ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है। कलुषित हृदय वाला व्यक्ति ईश्वर को कभी प्राप्त नहीं कर सकता।

 

(5) जाति प्रथा का विरोध-भक्ति आन्दोलन के प्रणेताओं ने जातिवाद और वर्ग-भेद का विरोध किया। उन्होंने यह मत प्रकट किया कि कोई भी व्यक्ति चाहे वह निम्न जाति का ही क्यों न हो, यदि स्वच्छ हृदय से ईश्वर की भक्ति करता है तो वह सुगमता से ईश्वर को प्राप्त कर सकता है। उनकी दृष्टि में न कोई ऊँचा था और न कोई नीचा था। इन ईश्वर प्रेमियों के लिए ईश्वर की भक्ति ही सर्वश्रेष्ठ थी।

 

(6) हिन्दू मुस्लिम एकता पर बल-भक्तिकाल के सन्तों ने हिन्दू मुस्लिम एकता पर विशेष बल दिया। सन्त कबीर ने हिन्दू और मुसलमानों की धार्मिक कट्टरता को समाप्त करने के लिए दोनों की आलोचना की। सन्त कबीर ने हिन्दू और मुसलमान दोनों की एकता पर बल दिया। उनके हिन्दू और मुसलमान दोनों ही शिष्य थे। सन्त कबीर के समान ही गुरुनानक जी भी हिन्दू मुस्लिम एकता के समर्थक थे। वे दोनों को एक पिता परमेश्वर की सन्तान मानते थे। – इसी प्रकार संत रैदास भी हिन्दू मुस्लिम एकता के पक्षपाती थे। सन्त चैतन्य महाप्रभु और सन्त नामदेव के शिष्यों में हिन्दुओं के साथ-साथ मुसलमान शिष्य भी थे।

 

(7) जनभाषा का प्रयोग – भक्ति आन्दोलन के सन्तों ने अपने उपदेश जनभाषा में दिए। सन्तों ने संस्कृत भाषा के स्थान पर हिन्दी, मराठी, पंजाबी, गुजराती तथा बंगाली आदि भाषाओं में उपदेश दिए। जनसाधारण की भाषा का प्रयोग किए जाने के परिणामस्वरूप भक्ति आन्दोलन के सिद्धान्तों का तीव्रता से प्रचार हुआ।

 

प्रश्न 8. कबीर अथवा गुरुनानक के मुख्य उपदेशों का वर्णन कीजिए। इन उप का किस तरह सम्प्रेषण हुआ ?

उत्तर-(अ) सन्त कबीर के मुख्य उपदेश-कबीर, सन्त कवियों में विशेष स्थान रखते हैं, उनके मुख्य उपदेश निम्नांकित हैं

 

(1) कबीर ने बहुदेववाद तथा मूर्ति पूजा का खण्डन किया।

 

(2) उन्होंने जिक्र और इश्क के सूफी सिद्धान्तों के प्रयोग द्वारा ‘नाम सिमस पर बल दिया।

 

(3) कबीर के अनुसार परम सत्य अथवा परमात्मा एक है, यद्यपि विभिन्न सम्प्रदायों के लोग उसे अलग-अलग नाम से पुकारते हैं।

 

(4) कबीर ने परमात्मा को निराकार बताया।

 

(5) उनके अनुसार भक्ति के माध्यम से मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है। (6) उन्होंने हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों के धार्मिक आडम्बरों का विरोध किया। (7) कबीर जातीय भेदभाव के विरोधी थे।

 

सन्त कबीर के उपदेशों का सम्प्रेषण-सन्त कबीर ने अपने विचारों को काव्य की आम बोलचाल की भाषा में अभिव्यक्त किया, जिसे आसानी से समझा जा सकता था। कभी-कभी उन्होंने बीज लेखन की भाषा का प्रयोग भी किया जो कठिन थी। उनके निधन के उपरान्त उनके अनुयायियों ने अपने प्रचार-प्रसार द्वारा उनके विचारों का सम्प्रेषण किया।

 

(ब) गुरुनानक जी के मुख्य उपदेश- गुरुनानक जी जन्मजात वैरागी, भक्त एवं ज्ञानी थे, उनके मुख्य उपदेश निम्नांकित हैं

 

(1) गुरुनानकजी ने निर्गुण भक्ति का प्रचार किया। उन्होंने धर्म के सभी बाहरी आडम्बरों का खण्डन किया।

 

(2) गुरुनानक जी ने एकेश्वरवाद का प्रबल समर्थन किया। उन्होंने एक ऐसे इष्टदेव की कल्पना की जो अजन्मा तथा स्वयंभू है ।

 

(3) उन्होंने परमात्मा की उपासना के लिए सरल उपाय बताया और वह था उनका निरन्तर स्मरण व नाम का जाप करना।

 

(4) उन्होंने छुआछूत के भेदभाव को मिटाकर भ्रातृत्व का सन्देश दिया।

 

(5) उनका मुख्य उद्देश्य सम्पूर्ण मानव समाज का उत्थान करना था। इसलिए उन्होंने मोक्ष तथा लोककल्याण के निमित्त सेवाधर्म पर अधिक बल दिया।

गुरुनानक जी के उपदेशों का सम्प्रेषण- गुरुनानक जी ने अपने विचार लोक भाषा (पंजाबी) में शब्द के माध्यम से लोगों के सामने रखे। वह ये शब्द अलग-अलग रागों में गाते थे और उनका सेवक मरदाना रबाब बजाकर उनका साथ देता था।

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