CLASS 9TH HINDI MP BOARD NCERT अध्याय 6 गद्य खण्ड परीक्षोपयोगी गद्यांशों की सन्दर्भ एवं प्रसंग सहित व्याख्याएँ Pariksha Adhyayan Hindi 9th

CLASS 9TH HINDI MP BOARD NCERT अध्याय 6 गद्य खण्ड परीक्षोपयोगी गद्यांशों की सन्दर्भ एवं प्रसंग सहित व्याख्याएँ Pariksha Adhyayan Hindi 9th

अध्याय 6
गद्य खण्ड

CLASS 9TH HINDI  MP BOARD NCERT अध्याय 6 गद्य खण्ड परीक्षोपयोगी गद्यांशों की सन्दर्भ एवं प्रसंग सहित व्याख्याएँ  Pariksha Adhyayan Hindi 9th

परीक्षोपयोगी गद्यांशों की सन्दर्भ एवं प्रसंग सहित व्याख्याएँ

1. दो बैलों की कथा
-प्रेमचंद

(1) जानवरों में गधा सबसे ज्यादा बुद्धिहीन समझा जाता है। हम जब किसी आदमी को पहले दरजे का बेवकूफ कहना चाहते हैं, तो उसे गधा कहते हैं। गधा सचमुच बेवकूफ है, या उसके सीधेपन,
उसकी निरापद सहिष्णुता ने यह पदवी दे दी है, इसका निश्चय नहीं किया जा सकता।
सन्दर्भ-यह गद्यांश’ दो बैलों की कथा’ पाठ से लिया गया है। इसके लेखक प्रेमचंद हैं।
प्रसंग-लेखक गधे को बेवकूफ कहने पर प्रश्न करते हैं कि क्या गधे में अवल नहीं होती है, या उसके। सीधेपन ने उसे यह उपाधि दिलवा दी है।
व्याख्या-संसार के सभी जानवरों में गधे को बुद्धिहीन माना गया है। इसीलिए यदि किसी आदमी के मुखं या अज्ञान समझते हैं तो उसे गधा कह दिया जाता है। प्रश्न यह उठता है कि गधे में वास्तव में अक्ल नही होती है अथवा उसके सीधे-सादे एवं सब कुछ सहन करने वाला होने के कारण उसको यह उपाधि प्रदान कर दी गई है। लगता यह है कि वह बुद्धिहीन नहीं है अपितु उसके पूरी तरह सहज और सरल, सब कुछ झेलने वाला होने के कारण ही उसे पूर्णतः मूर्ख मान लिया गया है।
विशेष-(1) यहाँ पर गधे के बुद्धिहीन होने पर प्रश्न उठाया गया है। (2) सरल, सुबोध भाषा तथा विचारात्मक शैली को अपनाया गया है।
(2) बहुत दिनों साथ रहते-रहते दोनों में भाईचारा हो गया था। दोनों आमने-सामने या आस-पास बैठे हुए एक-दूसरे से मूक भाषा में विचार-विनिमय करते थे। एक-दूसरे के मन की बात कैसे समझ
जाता, हम नहीं कह सकते। अवश्य ही उनमें कोई ऐसी गुप्त शक्ति थी, जिससे जीवों में श्रेष्ठता का दाया करने वाला मनुष्य वंचित है।

सन्दर्भ-पूर्ववत्।
प्रसंग-इस गद्यांश में दोनों बैलों-हीरा और मोती के आन्तरिक प्रेम-भाव को बताया गया है।

व्याख्या-हीरा और मोती दोनों बैल बहुत दिनों से एक साथ रह रहे थे, इसी से उनके आपस के सम्बन्ध थवा पास बैठे होते थे तो वे मौन रहकर भी अपने भाई-भाई की तरह हो थे। जब वे एक-दूसरे के सामने विचारों को दूसरे तक पहुँचा देते थे। उनमें विचारों का आदान-प्रदान होता रहता था। वे आपस में दूसरे के मन
की बात किस तरह समझ जाते थे इसका रहस्य पता लगाना कठिन है। लगता यह है कि उनके पास ऐसी कोई अज्ञात शक्ति थी जो सभी प्राणियों में श्रेष्ठ माने जाने वाले आदमी के पास नहीं है।

विशेष-(1) यहाँ पर हीरा-मोती के भावात्मक लगाव को बताया गया है।
(2) सरल, सुस्पष्ट भाषा एवं भावात्मक शैली को अपनाया है।
(3) अगर ईश्वर ने उन्हें वाणी दी होती तो झूरी से पूछते-तुम हम गरीबों को क्यों निकाल रहे हो ?
हमने तो तुम्हारी सेवा करने में कोई कसर नहीं उठा रखी। अगर इतनी मेहनत से काम न चलता था तो और काम ले लेते। हमें तो तुम्हारी चाकरी में मर जाना कबूल था। हमने कभी दाने-चारे की शिकायत नहीं की। तुमने जो कुछ खिलाया वह सिर झुकाकर खा लिया, फिर तुमने हमें इस जालिम के हाथ क्यों बेच दिया?

सन्दर्भ-पूर्ववत् !

प्रसंग-यहाँ पर हीरा-मोती के मन की बात प्रकट की गई है।
व्याख्या-हीरा-मोती में इतनी स्वामिभक्ति थी कि उन्हें उसके पास से दूसरी जगह जाना अखर रहा था। यदि परमात्मा ने उनको अपनी बात कह पाने की शक्ति दी होती तो वे झूरी से पूछते कि हम गरीबों को घर से निकालना उचित नहीं है। हम तुम्हारे सेवक रहे हैं। हमने तुम्हारी सेवा-चाकरी में किसी तरह की कमी नहीं की है और तुम इतने से भी सन्तुष्ट नहीं थे तो हमसे और अधिक काम ले लिया करते । हम तो तुम्हारे प्रति समर्पित थे। तुम्हारी सेवा में हमें मर जाना भी स्वीकार था। हमने तुम्हारे द्वारा दिए दाने-चारे को बिना किसी शिकायत के पेटभर खाया। जो कुछ भी दाना-चारा तुमने हमको दिया, वह हमने चुपचाप खा लिया। इतने पर भी तुम हमको इस दुष्ट व्यक्ति के हाथों क्यों बेच रहे हो। तुम्हारा इस तरह का व्यवहार उचित नहीं है।
विशेष-(1) हीरा-मोती ने पूरी मेहनत से मालिक का काम किया था इसलिए उनके मन में उनके गया है। निकाले जाने पर इस तरह के भाव आना स्वाभाविक है।
(2) विषय के अनुरूप भाषा-शैली का प्रयोग किया

(4) दोनों बैलों का ऐसा अपमान कभी न हुआ था। झूरी उन्हें फूल की छड़ी से भी न छूता था। उसकी टिटकार पर दोनों उड़ने लगते थे। यहाँ मार पड़ी। आहत-सम्मान की व्यथा तो थी ही, उस पर
मिला सूखा भूसा। नाँद की तरफ आँखें न उठाई।

सन्दर्भ-पूर्ववत्।
प्रसंग- यहाँ पर हीरा-मोती के साथ हुए बुरे व्यवहार तथा उसके पीड़ित मन के कष्ट को उजागर किया
गया है।
व्याख्या-हीरा-मोती मेहनती, ईमानदार तथा स्वाभिमानी बैल थे। वे झूरी के यहाँ रहे किन्तु उनके साथ कभी दुर्व्यवहार नहीं हुआ। यहाँ गया ने उनके साथ बहुत बुरा व्यवहार किया। झूरी उनको बड़े प्यार से रखता था। उसने उन्हें कभी नहीं मारा। जैसे ही उसकी टिटकार की आवाज होती बैल तेज चाल से चलने लगते थे। मारने-पीटने का प्रश्न ही नहीं था। यहाँ उन पर मार पड़ी। वे अपमान की पीड़ा से दुखी थे। उनका स्वाभिमान और सम्मान का भाव उमड़ पड़ा। इतने बुरे व्यवहार के बाद खाने के लिए सूखा भूसा दिया गया। अपमानित दोनों बैलों ने भूसे की ओर आँख उठाकर भी नहीं देखा।
विशेष-(1) बैलों की आहत सम्मान स्थिति का स्वाभाविक अंकन किया गया है।
(2) सरल, सुस्पष्ट भाषा तथा मार्मिक शैली का प्रयोग हुआ है।
(5) प्रेम के इस प्रसाद की यह बरकत थी कि दो-दो गाल भूसा खाकर भी दोनों दुर्बल न होते थे, मगर दोनों की आँखों में, रोम-रोम में विद्रोह भरा हुआ था।

सन्दर्भ-पूर्ववत्!
प्रसंग-इसमें दोनों बैलों को आक्रोशपूर्ण दशा तथा बालिका के प्रति कृतज्ञता को उजागर किया गया है।
व्याख्या-गया के यहाँ की एक छोटी लड़को उन दोनों बैलों को एक-एक रोटी खिलाती थी। प्यार भरी उन रोटियों का ही प्रभाव था कि हीरा और मोती सूखा भूसा खाकर भी कमजोर नहीं हो रहे थे। किन्तु उनको आँखों में तथा उनके शरीर के प्रत्येक रोएँ में गया के प्रति विरोध का भाव भरा था। वे क्षोभ से भरे हुए थे।

विशेष-
(1) यहाँ प्रेम भाव के प्रभाव तथा मन के रोष की स्वाभाविक अभिव्यक्ति हुई है।
(2) उर्दू शब्दों से युक्त खड़ी बोली तथा भावात्मक शैली को अपनाया गया है।
(6) जब पेट भर गया, दोनों ने आजादी का अनुभव किया, तो मस्त होकर उछलने-कूदने लगे।
हले दोनों ने डकार ली। फिर सींग हिलाए और एक-दूसरे को ठेलने लगे। मोती ने हीरा को कई कदम पीछे हटा दिया, यहाँ तक कि वह खाई में गिर गया। तब उसे भी क्रोध आया। सँभलकर उठा और फिर मोती से मिल गया। मोती ने देखा, खेल में झगड़ा हुआ चाहता है, तो किनारे हट गया।

सन्दर्भ-पूर्ववत्!

प्रसंग-यहाँ पेट भर जाने पर होरा-मोती द्वारा की गई मौज-मस्ती का चित्रण हुआ है।

व्याख्या-रात में गया के घर से भागे दोनों बैल भूखे थे, जैसे ही उन्हें हरे मटर का खेत मिला उन्होंने चरना प्रारम्भ कर दिया। जब मटर से पेट भर गया तब दोनों को स्वतन्त्रता की अनुभूति हुई। दोनों ने मस्ती करना प्रारम्भ कर दिया। पहले तो उन्होंने पेट भरने की डकार लो फिर आपस में सींग मिलाने लगे। उन्होंने एक-दूसरे को पीछे ठेलना प्रारम्भ कर दिया। मोती ने हीरा को काफी पीछे धकेल दिया। वह खाई में गिर गया। गिरने पर हीरा को क्रोध आ गया। वह सावधान होकर उठा और मोती से भिड़ गया। मोती समझ गया कि अब झगड़ा हो सकता है और वह हटकर एक किनारे हो गया।

विशेष-(1) हीरा और मोती की मौज-मस्ती को चित्रित किया गया है।
(2) व्यावहारिक भाषा तथा वर्णनात्मक शैली का प्रयोग किया गया है।

2. ल्हासा की ओर
-राहुल सांकृत्यायन

(1) तिब्बत में यात्रियों के लिए बहुत सी तकलीफें भी हैं और कुछ आराम की बातें भी। वहाँ जाति-पाँति, छुआछूत का सवाल ही नहीं है और न औरतें परदा ही करती हैं। बहुत निम्न श्रेणी के
भिखमंगों को लोग चोरी के डर से घर के भीतर नहीं आने देते; नहीं तो आप बिल्कुल घर के भीतर चले जा सकते हैं।

सन्दर्भ-प्रस्तुत गद्यांश ‘ल्हासा की ओर’ पाठ से लिया गया हैं इसके लेखक राहुल सांकृत्यायन हैं।
प्रसंग-यहाँ पर तिब्बत के निवासियों के व्यवहार आदि पर प्रकाश डाला गया है।
व्याख्या-जो यात्री तिब्धत जाते हैं उनको कई कठिनाइयाँ होती हैं किन्तु बहुत सी अच्छी बातें हैं। वहीं पर किसी प्रकार का छुआछूत नहीं है। यहाँ की स्त्रियाँ परदा भी नहीं करती हैं। यहाँ घर के भीतर जाने पर भी रोक-टोक नहीं है। कुछ ज्यादा नीचे स्तर के भीख मांगने वालों को चोरी होने के डर की वजह से घर के भीतर
नहीं जाने दिया जाता है। अन्यथा कोई भी आदमी अपरिचित होते हुए भी घर के भीतर तक जा सकता है।

विशेष-(1) यहाँ पर तिब्बत के निवासियों की कई अच्छाइयों को बताया गया है।
(2) व्यावहारिक खड़ी बोली तथा वर्णनात्मक शैली का प्रयोग किया गया है।
(2) अब हमें सबसे विकट डाँडा थोङ्ला पार करना था। डाँड़े तिव्यत में सबसे खतरे की जगह हैं। सोलह-सत्रह हजार फीट की ऊंचाई होने के कारण उनके दोनों तरफ मीलों तक कोई गाँव-गिरांव नहीं होते। नदियों के मोड़ और पहाड़ों के कोनों के कारण बहुत दूर तक आदमी को देखा नहीं जा सकता। डाकुओं के लिए यही सबसे अच्छी जगह है।

सन्दर्भ-पूर्ववत्।
प्रसंग-यहाँ पर तिब्बत के भयंकर डाँडे और निर्जन पहाड़ी क्षेत्र के खतरे के बारे में बताया गया है। व्याख्या-लेखक को ल्हासा की ओर जाने के लिए अब एक भयंकर डाँड़े को पार करना था। उसका नाम घोङ्ल यहा डाँडा काफी ऊँचा था। तिब्बत में डाँड़े बहुत ज्यादा खतरे की जगह हैं। ये सोलह-सत्रह हजार फीट तक ऊँचे हैं। इनके दोनों ओर कई मीलों तक कोई गाँव, वस्ती आदि नहीं है। ये निर्जन स्थान हैं। यहाँ पर हालत यह है कि नदियों के मोड़ों और पर्वतों की चोटियों के कारण काफी दूर तक किसी आदमी को देख पाना सम्भव नहीं है। ये डाँडै डाकुओं के लिए बहुत अच्छी जगहें हैं, क्योंकि यहाँ निर्जन में किसी के मरने
की कोई चिन्ता नहीं करता है।

विशेष-(1) तिब्बत के भयंकर डाँड़ों के निर्जन स्थानों के विषय में बताया गया है। ये स्थान बहुत खतरनाक हैं। यहाँ आदमी के मरने की कोई परवाह नहीं करता है।
(2) सीधी सपाट खड़ी बोलो तथा वर्णनात्मक शैली का प्रयोग हुआ है।

(3) तिब्बत की जमीन बहुत अधिक छोटे-बड़े जागीरदारों में बँटी है। इन जागीरों का बहुत ज्यादा हिस्सा मठों (विहारों) के हाथ में है। अपनी-अपनी जागीर में हरेक जागीरदार कुछ खेती खुद भी करता है, जिसके लिए मजदूर बेगार में मिल जाते हैं। खेती का इंतजाम देखने के लिए वहाँ कोई भिक्षु भेजा जाता है, जो जागीर के आदमियों के लिए राजा से कम नहीं होता।
सन्दर्भ- पूर्ववत्।
प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश में तिब्बत की खेती-बाड़ी की व्यवस्था का परिचय दिया गया है।
व्याख्या-तिब्बत में खेती के मालिक किसान नहीं हैं। वहाँ की जमीन ज्यादातर बड़े-छोटे जागीरदार। को बाँट दी गई है। तिब्बत की जागीरों का बहुत बड़ा भाग बौद्ध धर्म के विहारों, मठों के अधीन है। जागीरदारों की जो जमीन होती है उसमें से कुछ खेती स्वयं जागीरदार भी कराता है। इसके काम के लिए उसे मजदूर नहीं करने पड़ते हैं। इसका काम तो बेगार करने वाले ही कर देते हैं। मठों की खेती की व्यवस्था संभालने के लिए किसी बौद्ध भिक्षु को भेज देते हैं। वही खेती-बाड़ी के कामों की देखरेख करता है। जागीर में काम करने वाले मजदूरों के लिए वह राजा की तरह होता है।
विशेष-(1) इसमें तिब्बत की कृषि व्यवस्था पर प्रकाश डाला गया है।
(2) बोलचाल की व्यावहारिक खड़ी बोली तथा विवरणात्मक शैली का प्रयोग किया गया है।

3. उपभोक्तावाद की संस्कृति
श्यामाचरण दुब

विशेष : कोविड परिस्थितियों के चलते यह पाठ वार्षिक/बोर्ड परीक्षा 2021 के लिए बोर्ड द्वारा पाठ्यक्रम
में से हटा दिया गया है।

4. साँवले सपनों की याद
– जाबिर हुसैन
(1) सालिम अली ने कहा था कि लोग पक्षियों को आदमी की नजर से देखना चाहते हैं। यह उनकी भूल है, ठीक उसी तरह, जैसे जंगलों और पहाड़ों, झरनों ओर आबशारों को वो प्रकृति की नज़र से नहीं, आदमी की नज़र से देखने को उत्सुक रहते हैं। भला कोई आदमी अपने कानों से पक्षियों की आवाज का मधुर संगीत सुनकर अपने भीतर रोमांच का सोता फूटता महसूस कर सकता है।
सन्दर्भ-यह गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक के साँवले सपनों की याद’ शीर्षक पाठ से लिया गया है।इसके लेखक जाबिर हुसैन हैं।
प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश में सालिम अली ने पक्षियों के प्रति मनुष्य के नजरिये (दृष्टिकोण) को सुन्दर ढंग से समझाया है।
व्याख्या-पक्षियों के मर्मज्ञ सालिम अली कहते थे कि मनुष्य का यह नजरिया ठीक नहीं है कि वह पक्षियों को आदमी की नज़र से देखे। पक्षियों को आदमी की नज़र से देखना वैसा ही है जैसे कोई प्रकृति के जंगलों, पहाड़ों,झरनों और निझरों को भी आदमी की नज़र से ही देखने का इच्छुक हो। इन्हें प्रकृति की नज़र से ही देखना उचित है,आदमी की नज़र से नहीं। सामान्य आदमी पक्षियों की आवाज से हृदय में उद्वेलित नहीं होता। वह तो सालिम अली ही थे कि पक्षियों के स्वरों के मीठे संगीत को सुनकर रोमांचित हो उठते थे। पक्षियों की मधुर वाणी उनके हृदय को उद्वेलित कर देती थी क्योंकि वे पक्षियों के स्वरों के मर्म को अनुभव करने की क्षमता रखते थे।
विशेष-
(1) पक्षी विज्ञानी सालिम में पक्षियों के स्वरों के मर्म को अनुभव करने की जो शक्ति थी, उसे बताया गया है।
(2) सरल भाषा में भावात्मक शैली का सौन्दर्य दर्शनीय है।
(2) पता नहीं, इतिहास में कब कृष्ण ने वृन्दावन में रासलीला रची थी और शोख गोपियों को अपनी शरारतों का निशाना बनाया था। कब मक्खन भरे भाँड़े फोड़े थे और दूध-छाली से अपने मुँह भरे थे। कब वाटिका में, छोटे-छोटे किन्तु घने पेड़ों की छाँह में विश्राम किया था। कब दिल की धड़कनों को एकदम से तेज करने वाले अंदाज में बंसी बजाई थी। और पता नहीं, कब वृन्दावन की पूरी दुनिया संगीतमय हो गई थी। पता नहीं, यह सब कब हुआ था। लेकिन कोई आज भी वृन्दावन जाए तो नदी का साँवला पानी उस पूरे घटनाक्रम की याद दिला देगा।

सन्दर्भ-पूर्ववत्।
प्रसंग-यहाँ पर श्रीकृष्ण की लीलाओं का स्मरण करते हुए, वर्तमान में भी उनके प्रभाव का चित्रण किया गया है।
व्याख्या-वृन्दावन श्रीकृष्ण की लीलाभूमि रही है। इतिहास के इन्हीं सन्दर्भो का स्मरण करते हुए लेखक कहते हैं कि श्रीकृष्ण ने पता नहीं कब वृन्दावन में रास रचाया था, ब्रज की चंचल गोपियों के साथ कब शैतानियाँ की थीं। यह भी नहीं पता है कि उन्होंने कब मक्खन के मटके फोड़े थे और दूध-दही लूटकर खाया
था। वे वृन्दावन के बगीचों में घने पेड़ों की छाया में कब लेटते थे और हृदय को उद्वेलित कर देने वाले स्वर में पता नहीं कब वंशी बजाई थी जिसके फलस्वरूप वृन्दावन का समस्त परिवेश संगीत से भर उठा था। यह ज्ञात नहीं है कि ये क्रिया-कलाप कब हुए थे, किन्तु वास्तविकता यह है कि कोई यदि आज भी वृन्दावन जाए तो वहाँ बहने वाली यमुना नदी के नीले जल को देखते ही ये सभी घटनाएँ साकार हो उठेगी। वृन्दावन के परिवेश में ये सभी क्रियाएँ स्मृति रूप में आज भी विद्यमान हैं।
विशेष-
(1) भारतीय साहित्य में वर्णित श्रीकृष्ण की लीलाओं को याद करते हुए उस समय के वृन्दावन के परिवेश को उजागर किया गया है।
(2) उर्दू-हिन्दी मिश्रित भाषा तथा उर्दू प्रभाव से युक्त शैली को अपनाया गया है।
(3) उन जैसा बर्ड वाचर’ शायद ही कोई हुआ हो। लेकिन एकांत क्षणों में सालिम अली बिना दूरबीन भी देखे गए हैं। दूर क्षितिज तक फैली जमीन और झुके आसमान को छूने वाली उनकी नज़रों
में कुछ-कुछ वैसा ही जादू था, जो प्रकृति को अपने घेरे में बाँध लेता है। सालिम अली उन लोगों में थे जो प्रकृति के प्रभाव में आने की बजाए प्रकृति को अपने प्रभाव में लाने के कायल होते हैं। उनके लिए प्रकृति में हर तरफ एक हँसती-खेलती रहस्य भरी दुनिया पसरी थी।

सन्दर्भ-पूर्ववत्।
प्रसंग-इस गद्यांश में सालिम अली की प्रभावशीलता पर प्रकाश डाला गया है।

व्याख्या-पक्षी विज्ञानी सालिम अली में पक्षियों की पहचान करने की अनूठी प्रतिभा थी। उन जैय पक्षियों और विशाल आकाश की, अपनी जादुई नजर से, पहचान कर लेते थे। वे प्रकृति को अपनी नजर के घरे।
समेट लेते थे। अद्भुत क्षमता वाले सालिम अली प्रकृति से प्रभावित न होकर, वे स्वयं प्रकृति को अपने प्रभाव में करने की क्षमता रखते थे। उनके सभी ओर फैली प्रकृति में एक हँसता खेलता रहस्य भरा संसार विखा पड़ा था। वे उन रहस्यों को जानने के लिए प्रयासरत रहते थे।
विशेष-(1) प्रकृति को प्रभावित कर सकने वाले सालिम अली की जिज्ञासा भरी नजरों के अनौखेपर को बताया गया है।
(2) सहज, सुबोध भाषा तथा भावपूर्ण शैली का प्रयोग हुआ है।
नाना साहब की पुत्री देवी मैना को भस्म कर दिया गया

5. चपला देवी

विशेष : कोविड परिस्थितियों के चलते यह पाठ वार्षिक/बोर्ड परीक्षा 2021 के लिए बोर्ड द्वारा पाठ्यक्रम
में से हटा दिया गया है।

6. प्रेमचन्द के फटे जूते
-हरिशंकर परसाई

(1) टोपी आठ आने में मिल जाती है और जूते उस जमाने में भी पाँच रुपये से कम में क्या मिलते होंगे। जूता हमेशा टोपी से कीमती रहा है। अब तो जूते की कीमत और भी बढ़ गई है और पर पच्चीसों टोपियाँ न्योछावर होती हैं। तुम भी जूते और टोपी के आनुपातिक मूल्य के मारे हुए थे। यह विडंबना मुझे इतनी तीव्रता से पहले कभी नहीं चुभी, जितनी आज चुभ रही है, जब मैं तुम्हारा फटा जूता देख रहा हूँ। तुम महान कथाकार उपन्यास सम्राट, युग प्रवर्तक जाने क्या-क्या कहलाते थे, मगर फोटो में भी तुम्हारा जूता फटा हुआ है।
सन्दर्भ-यह गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक के ‘प्रेमचंद के फटे जूते’ शीर्षक निबन्ध से लिया गया है। इसके लेखक हरिशंकर परसाई हैं।
प्रसंग-इसमें टोपी और जूते के तुलनात्मक महत्व पर प्रकाश डाला गया है।
व्याख्या-टोपी तथा जूते की तुलना करते हुए लेखक कहते हैं कि आज के महँगाई के समय में भी टोपी आठ आने (पचास पैसे) में मिल जाती है जबकि जूते प्रेमचंद के समय में भी पाँच रुपये के तो होते ही होंगे। इस तरह टोपी और जूते की कीमत में बहुत बड़ा अन्तर है। जूते की कीमत सदैव टोपी से अधिक रही है।
वर्तमान समय में तो जूते की कीमत और अधिक हो गई है। आज एक जूते पर पच्चीसों टोपियाँ न्यौछावर है। लगता यह है कि प्रेमचंद भी जूते और टोपी के मूल्य के अनुपात से प्रभावित रहे हैं। प्रेमचंद की दृष्टि में टोपी अर्थात् इज्जत का महत्व था जबकि दुनिया जूते अर्थात् ताकत को महत्व दे रही थी। इसी मान्यता ने प्रेमचंद को दुख झेलने के लिए विवश किया। वे नए जूते एक नहीं पहन सके। लेखक को प्रेमचंद की मान्यता को इस मजबूरी का अहसास, आज उनके फोटो में फटे जूते देखकर जितनी गहराई से हो रहा है उतना पहले कभी नहीं हुआ। इसे देखकर उन्हें बहुत पीड़ा हो रही है। कहने के लिए तो प्रेमचंद उत्कृष्ट उपन्यास लिखने वाले अर्थात् उपन्यास सम्राट थे, वे युगवेता रचनाकार माने जाते थे। और न जाने क्या-क उपाधियाँ उन्हें प्राप्त थी। किन्तु वे इतने निर्धन थे कि पैरों में फटे जूते पहनते थे।
विशेष-(1) यहाँ पर सिर पर पहनी जाने वाली टोपी अर्थात् इज्जत तथा पैरों में पहने जाने वाले जूते अर्थात् ताकत की तुलना करते हुए जूते को अधिक महत्वपूर्ण बताया गया है।
(2) सरल, सुबोध भाषा तथा व्यंग्यपरक शैली को अपनाया गया है।

(2) मुझे लगता है तुम किसी सख्त चीज को ठोकर मारते रहे हो। कोई चीज जो परत-पर-परत सदियों से जम गई है, उसे शायद तुमने ठोकर मार-मारकर अपना जूता फाड़ लिया। कोई टीला जो रास्ते पर खड़ा हो गया था, उस पर तुमने अपना जूता आजमाया।

सन्दर्भ-पूर्ववत्।
प्रसंग-यहाँ पर प्रेमचंद द्वारा सामाजिक बुराइयों के दूर करने के प्रयासों की ओर संकेत किया गया है।
व्याख्या-लेखक को लगता है कि प्रेमचंद के जूते किसी कड़ी चीज को ठोकर मारने के कारण फटे हैं। उन्होंने अपने साहित्य के द्वारा समाज में हो रहे शोषण, पाखंड, वर्ग-भेद जैसे वर्षों से चली आ रही बुराइयों को उखाड़ फेंकने का कार्य किया। परत-दर-परत जमी इन सामाजिक कमियों में उन्होंने अपने जूते की बार-बार
ठोकर मारी इसी से जूते फट गए। ये बुराइयाँ समाज के विकास में टीला बनकर बाधक हो रही थीं। उसे तुमने अपने जूते से ठोकर मारी अर्थात् आपने इन बुराइयों को दूर करने के लगातार प्रयत्न किए। इस प्रयास में ही प्रेमचंद का यह हाल हो गया।
विशेष-(1) वर्षों से चली आ रही सामाजिक बुराइयों के टीले को प्रेमचंद ने उखाड़ फेंकने का जो प्रयत्न किया उसे बताया गया है। (2) प्रेमचंद की कलम की ताकत का महत्व प्रतिपादित किया है। (3) लाक्षणिक भाषा तथा विचारात्मक शैली को अपनाया गया है।

(3) तुम मुझ पर या हम सभी पर हँस रहे हो, उन पर जो अंगुली छिपाए और तलुआ घिसाए चल रहे हैं, उन पर जो टीले को बटकाकर बाजू से निकल रहे हैं। तुम कह रहे हो मैंने तो ठोकर मार-मारकर जूता फाड़ लिया, अंगुली बाहर निकल आई, पर पाँव बच रहा और मैं चलता रहा, मगर तुम अँगुली को
ढाँकने की चिन्ता में तलुवे का नाश कर रहे हो। तुम चलोगे कैसे?
सन्दर्भ-पूर्ववत्।
प्रसंग-इस गद्यांश में प्रेमचंद के समाज सुधार सम्बन्धी प्रयासों के महत्व की ओर संकेत करते हुए उन साहित्यकारों को निशाना बनाया गया है, जो अपने दायित्व का पालन न करते हुए पलायन का मार्ग अपनाते हैं।
व्याख्या-फोटो में मुस्कराते हुए प्रेमचंद को सम्बोधित करते हुए लेखक प्रश्न करते हैं कि क्या तुम मेरा अथवा हम सभी का मजाक बना रहे हो, जो ऊपर से ठीक दिखने वाले तलवे घिसे हुए जूते पहनकर अपने पैर का नाश कर रहे हैं अथवा जो बुराइयों के अम्बार से बचकर निकल रहे हैं। तुम हमको बताना चाह
रहे हो कि मैंने तो बार-बार कड़ी चीज में ठोकर मार-मार कर अपना जूता फाड़ लिया जिसके कारण मेरी अंगुली निकल आई है लेकिन मेरा पैर सुरक्षित है। मैं आराम चलने में समर्थ रहा हूँ। परन्तु तुम सभी अपनी अँगुली ढंकने के चक्कर में अपने तलुवे का नाश कर रहे हो। जब तुम्हारा तलुवा नहीं रहेगा तो चलोगे कैसे ?
भाव यह है कि बुराइयों को छिपाते रहोगे तो समाज की प्रगति कैसे होगी। इसलिए बुराइयों को उजागर करना साहित्यकार का दायित्व है।
विशेष-
(1) अँगुली ढंकने का आश्य बनावटीपन से है तथा बचकर निकलना दायित्व से पलायन है, इन्हीं को प्रेमचंद ने माना था पर आज के साहित्यकार इस ओर ध्यान नहीं दे रहे हैं।
(2) व्यावहारिक खड़ी बोली तथा विचारात्मक शैली का प्रयोग हुआ है।

7. मेरे बचपन के दिन

– महादेवी वर्मा
विशेष : कोविड परिस्थितियों के चलते यह पाठ वार्षिक/बोर्ड परीक्षा 2021 के लिए बोर्ड द्वारा पाठ्यक्रम में से हटा दिया गया है।

8. एक कुत्ता और एक मैना

– हजारी प्रसाद द्विवेदी
विशेष : कोविड परिस्थितियों के चलते यह पाठ वार्षिक/बोर्ड परीक्षा 2021 के लिए बोर्ड द्वारा पाठ्यक्रम
में से हटा दिया गया है।

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