MP board Class 10 Sanskrit Chapters solution NCERT Solutions for Class 10 Sanskrit Chapter 7 सौहार्दं प्रकृतेः शोभा

सप्तमः पाठः

सौहार्दं प्रकृतेः शोभा

( प्रकृति की शोभा )

Chapter 7 सौहार्दं प्रकृतेः शोभा
Chapter 7 सौहार्दं प्रकृतेः शोभा

 

पाठ परिचय

आजकल समाज में हम यह देखते हैं कि प्राय: सभी स्वयं को श्रेष्ठ समझकर परस्पर एक-दूसरे का तिरस्कार करते हैं। पारस्परिक व्यवहार में परोपकार के विषय में सोच ही नहीं रही है किसी की सभी स्वार्थ साधना में लगे हैं और जीवन का उद्देश्य ऐसे लोगों के लिए यही बन गया है कि

“नीचैरनी चैरतिनीनीचनीचैः सर्वे उपायैः फलमेव साध्यम्”

अर्थात् “नीच व्यक्ति अपने फल को सिद्ध करने के लिए अत्यंत नीच-से-नीच कार्य करने में भी संकोच नहीं करते अर्थात् नीच-अनीच, अतिनीच सभी के द्वारा फल की भी साधना की जा रही है।”

अतः इस समाज में आपस में प्रेम को बढ़ाने के लिए पशु पक्षियों के माध्यम से यह समझाने का प्रयास है कि समयानुसार सभी का अपना महत्व है और सभी एक-दूसरे पर आश्रित हैं अतः हमें भी अपने कल्याण के लिए परस्पर स्नेह व मित्रतापूर्ण व्यवहार करना चाहिए।

पाठ का हिन्दी अनुवाद

( क ) वनस्य दृश्यं समीपे एवैका नदी वहति । एकः सिंहः सुखेन विश्राम्यते तदैव एकः वानरः आगत्य तस्य पुच्छं धुनाति । क्रुद्धः सिहः तं प्रहर्तुमिच्छति परं वानरस्तु कूर्दित्वा वृक्षमारूढः । तदैव अन्यस्मात् वृक्षात् अपरः वानरः सिंहस्य कर्णमाकृष्य पुनः वृक्षोपरि आरोहति । एवमेव वानराः वारं वारं सिंहं तुदन्ति । क्रुद्धः सिंह: इतस्ततः धावति, गर्जति परं किमपि कर्तुमसमर्थः एव तिष्ठति। वानराः हसन्ति वृक्षोपरि च विविधाः पक्षिणः अपि सिंहस्य एतादृशीं दशां दृष्ट्वा हर्षमिश्रितं कलरवं कुर्वन्ति ।

निद्राभङ्गदुःखेन वनराजः सन्नपि तुच्छजीवै: आत्मनः एतादृश्या दुरवस्थया श्रान्तः सर्वजन्तून् दृष्ट्वा पृच्छति –

शब्दार्थ- पुच्छम् पूँछ को, विश्राम्यते आराम करता है, आकृष्य खींचकर, तुदन्ति तंग करते = हैं, कलरवम् = चहचहाहट, दुरवस्थया बुरी स्थिति से, श्रान्तः थका हुआ, प्रहर्तुम् मारने के लिए। =

अनुवाद – (वन का दृश्य है, पास ही एक नदी बह रही है) एक शेर सुखपूर्वक आराम कर रहा है तभी एक बंदर आकर उसकी दुम को घुमा देता है। क्रोधित शेर उस पर प्रहार करना चाहता है किंतु, बंदर कूदकर पेड़ पर जा बैठा। दूसरे पेड़ से दूसरा बंदर शेर के कान को खींचकर पेड़ पर चढ़ जाता है। इस प्रकार से बंदर बार बार शेर को तंग करते हैं, क्रोधित शेर दहाड़ते हुए इधर-उधर दौड़ता भागता है किंतु लाचार शेर कुछ करने में असमर्थ रहता है। बंदर हँसते हैं और पेड़ों पर दूसरे पक्षी भी मिल-जुलकर चहचहाहट करते हैं।

नींद के टूटने से दुःखी जंगल का राजा होकर भी शेर सभी जीवों को देखकर पूछता है।

(ख) सिंह: (क्रोधेन गर्जन्) भोः अहं वनराजः किं भयं न जायते? किमर्थं मामेवं तुदन्ति सर्वे मिलित्वा ? भवान्

एक: वानरः – यतः त्वं वनराजः भवितुं तु सर्वथाऽयोग्यः । राजा तु रक्षकः भवति भक्षकः । अपि च स्वरक्षायामपि समर्थः नासि तर्हि कथमस्मान् रक्षिष्यसि ?

परं

अन्यः वानरः – किं न श्रुता त्वया पञ्चतन्त्रोक्तिः –

यो न रक्षति वित्रस्तान् पीड्यमाना परैः सदा । जन्तून् पार्थिवरूपेण स कृतान्तो न संशयः ।।

तु
शब्दार्थ – जायते उत्पन्न होता है, गर्जन् दहाड़ना, समर्थः योग्य, तर्हि तो, कृतान्तः = यमराज है। अनुवाद – सिंह – (क्रोध से गरजता हुआ) अरे! मैं जंगल का राजा किसी से डरता नहीं क्यों सब मिलकर मुझे तंग करते हो।

एक बंदर – क्योंकि तुम जंगल के राजा होने के पूरी तरह अयोग्य हो, राजा तो रक्षक होता है, किंतु तुम तो भक्षक हो, और तुम स्वयं की भी रक्षा करने में समर्थ नहीं हो तो कैसे हमारी रक्षा करोगे। दूसरा बंदर – क्या तुमने पञ्चतंत्र का यह कथन नहीं सुना है- जो राजा के रूप में (राजा होकर) डरे हुए को तथा दूसरों द्वारा पीड़ित जंतुओं की रक्षा नहीं करता है वह साक्षात् यमराज होता है, यहाँ कोई संदेह नहीं।

(ग) काकः – आम् सत्यं कथितं त्वया वस्तुतः वनराजः भवितुं तु अहमेव योग्यः । पिक: ( उपहसन् ) कथं त्वं योग्यः वनराजः भवितुं यत्र तत्र का का इति कर्कशध्वनिना वातावरणमाकुलीकरोषि नरूपम् न ध्वनिरस्ति। कृष्णवर्णम् मेध्यामेध्यभक्षकं त्वां कथं वनराजं मन्यामहे वयम् ?

काकः – अरे! अरे! किं जल्पसि? यदि अहं कृष्णवर्णः तर्हि त्वं किं गौराङ्गः ? अपि च विस्मर्यते किं यत् मम सत्यप्रियता तु जनानां कृते उदाहरणस्वरूपा–’अनृतं वदसि चेत् काकः दशेत्’ इति प्रकारेण अस्माकं परिश्रम ऐक्यं च विश्व प्रथितम् अपि च काकचेष्ट: विद्यार्थी एव आदर्शच्छात्रः मन्यते ।

पिकः अलम् अलम् अतिविकत्थनेन। किं विस्मर्यते यत् काकः कृष्णः पिकः कृष्णः को भेदः पिककाकयोः । वसन्तसमये प्राप्ते काकः काकः पिकः पिकः ।।

शब्दार्थ- उपहसन्मजाक करती हुई भवितुम्= होने में, भेदः = अंतर, मन्यामहे मानें, गौराङ्ग: – गोरे रंग की, ऐक्यं एकता, पिककाकयोः = कोयल और कौआ, विस्मर्यते भूल जाती हो।

अनुवाद – कौआ – हाँ तुमने सच कहा, वनराज (जंगल का राजा) होने के लिए तो मैं ही योग्य हूँ। कोयल – ( उपहास करती हुई) कैसे जंगल के राजा होने योग्य हो तुम, यहाँ वहाँ काँव-काँव की करकस ध्वनि से वातावरण को व्याकुल करते हो, (तुम्हारे पास) न तो सुरीली आवाज है, न ही सुंदरता है, काले रंग वाले, खाने योग्य वस्तुओं को न खाने वाले और न खाने देने वालों को हम कैसे जंगल का राजा मान सकते हैं।

कौआ – अरे! अरे! क्या बड़बड़ाती हो ? यदि मैं काले रंग का हूँ तो क्या तुम गोरे रंग की हो ? और भूल जाती हो मेरो सत्यप्रियता तो लोगों के लिए उदाहरण है- यदि झूठ बोलोगे तो कौआ काटेगा, इस प्रकरण में है। हमारा परिश्रम तो संसार में फैला भी है और कौए की चेष्टा वाला छात्र ही आदर्श छात्रा माना जाता है।

कोयल– अपनी स्वयं की डींगें हाँकना बंद करो। क्या भूल जाते हो- कौआ काला है, कोयल काली है। कौआ और कोयल में क्या भेद है। बसंत ऋतु आने पर कौआ, कौआ होता है और कोयल, कोयल होती है।

(घ) काकः – रे परभृत्! अहं यदि तव संततिं न पालयामि तर्हि कुत्र स्युः पिका: ? अतः अहम्

एव करुणापरः पक्षिसम्राट् काकः ।

गजः समीपत: एवागच्छन् अरे! अरे! अरे! सर्वं सम्भाषणं शृण्वन्नेवाहम् अत्रागच्छम् । अहं विशालकायः, बलशाली, पराक्रमी च। सिंहः वा स्यात् अथवा अन्यः कोऽपि, वन्यपशून् तु तुदन्तं जन्तुमहं स्वशुण्डेन पोथयित्वा मारयिष्यामि । किमन्यः कोऽप्यस्ति एतादृशः पराक्रमी । अतः अहमेव योग्यः वनराजपदाय

वानरः – अरे! अरे! एवं वा (शीघ्रमेव गजस्यापि पुच्छं विधूय वृक्षोपरि आरोहति ।) शब्दार्थ–परभृत = दूसरों पर पलने वाली, सन्ततिम् = सन्तान को, तुदन्तम् = तंग करते हुए को, जन्तुम् जीव को, आरोहति = चढ़ जाता है।
अनुवाद – कौआ – अरे! दूसरों पर पलने वाली! यदि मैं तेरी संतान को नहीं पालूँ तो कहाँ की कोयल हो ? इसलिए मैं ही दयालु पक्षियों का राजा हूँ। हाथी– पास से ही आते हुए अरे! अरे! सारी बातें सुनकर ही मैं यहाँ आया हूँ मैं बहुत बड़ा शरीर वाला

व बलवान भी हूँ, वीर भी शेर हो या दूसरा कोई भी वन के पशुओं को तंग या परेशान करते हुए जीव को मैं

अपनी सूँड़ से पटक-पटककर मार डालूँगा। क्या कोई दूसरा वीर है। मैं ही वनराज के पद पर योग्य हूँ।

बन्दर – अरे! अरे! अथवा ऐसे (जल्दी से हाथी की पूँछ को मरोड़कर पेड़ पर चढ़ जाता है)

(ङ) ( गजः तं वृक्षमेव स्वशुण्डेन आलोडयितुमिच्छति परं वानरस्तु कूर्दित्वा अन्यं वृक्षमारोहति

एवं गजं वृक्षात् वृक्षं प्रति धावन्तं दृष्ट्वा सिंहः अपि हसति वदति च । ) सिंह: भोः गज! मामप्येवमेवातुदन् एते वानराः ।

वानरः –

एतस्मादेव तु कथयामि यदहमेव योग्यः वनराजपदाय येन विशालकायं

पराक्रमिण भयंकरं चापि सिहं गजं वा पराजेतुं समर्था अस्माकं जाति: । अतः

वन्यजन्तूनां रक्षायै वयमेव क्षमाः ।

– ( एतत्सर्वं श्रुत्वा नदीमध्यस्थितः एकः बकः ) अरे! अरे! मां विहाय कथमन्यः कोऽपि राजा भवितुमर्हति अहं तु शीतले जले बहुकालपर्यन्तम् अविचल: ध्यानमग्नः स्थितप्रज्ञ इव स्थित्वा सर्वेषां रक्षायाः उपायान् चिन्तयिष्यामि, योजनां निर्मीय च स्वसभायां विविधपदमलंकुर्बाणैः जन्तुभिश्च मिलित्वा रक्षोपायान् क्रियान्वितान् कारयिष्यामि, अतः अहमेव वनराजपदप्राप्तये योग्यः ।

मयूरः ( वृक्षोपरित:- अट्टहासपूर्वकम् ) विरम विरम आत्मश्लाघायाः किं न जानासि यत् यदि न स्यान्तरपतिः सम्यनेता ततः प्रजा अकर्णधारा जलधौ विप्लवेतेह नौरिव ।।

शब्दार्थ- स्वशुण्डेन अपनी सूंड़ से, कूर्दित्वा कूदकर, क्षमाः समर्थ हैं, अतुदन् तंग किया, आरोहति चढ़ जाता है, विहाय छोड़कर, निर्मीय निर्माण करके, जलधौ सागर में नौः नौका,

विप्लवेत् डूब जाए, नरपतिः = राजा । अनुवाद – (हाथी अपनी सूँड़ से उस पेड़ को ही हिलाना चाहता

है, ऐसा एक वृक्ष से दूसरे वृक्ष की ओर दौड़ता देख शेर भी हँसता है।) सिंह – हे हाथी! मुझे भी ऐसे ही इन बंदरों ने तंग किया था।

है किंतु बंदर दूसरे पेड़ पर कूद जाता

बंदर- इसलिए कहता हूँ कि मैं ही वनराज के योग्य हूँ क्योंकि हमारी वानर जाति भारी शरीर वाले वीर और शेर अथवा हाथी को भी पराजित करने में समर्थ हैं। अत: जंगल के जीवों की रक्षा के लिए हम ही योग्य हैं। बगुला- अरे! अरे! मुझे छोड़कर कैसे कोई राजा बन सकता है। मैं तो ठण्डे जल में स्थिर बैठकर योगी की तरह सभी की रक्षा के उपायों को सोचूँगा और योजना बनाकर अपनी सभा में अनेक पदों को सुशोभित करने वाले जीवों से मिलकर उपायों को कार्यान्वित करूंगा। इसलिए मैं ही जंगल के राजा बनने योग्य हूँ।

मोर- (वृक्ष के ऊपर से अट्टहास करते हुए) रूको, रूको अपनी प्रशंसा बस करो, क्या नहीं जानते हो कि यदि राजा अच्छा नेता नहीं हो तो प्रजा बिना नाविक के नौका के समान समुद्र में डूब जाती है।

( च ) को न जानाति तव ध्यानावस्थाम्। ‘स्थितप्रज्ञ’ इति व्याजेन वराकानू मीनान् छलेन अधिगृह्य क्रूरतया भक्षयसि । धिक् त्वाम् । तव कारणात् तु सर्वं पक्षिकुलमेवावमानितं जातम् ।

वानरः – (सगर्वम्) अतएव कथयामि यत् अहमेव योग्यः वनराजपदाय। शीघ्रमेव मम राज्याभिषेकाय तत्पराः भवन्तु सर्वे वन्यजीवाः ।

मयूरः अरे वानर! तूष्णीं भव । कथं त्वं योग्यः वनराजपदाय? पश्यतु पश्यतु मम शिरसि

राजमुकुटमिव शिखां स्थापयता विधात्रा एवाहं पक्षिराजः कृतः, अतः वने निवसन्तं
मां वनराजरूपेणापि द्रष्टुं सज्जाः भवन्तु अघुना। यतः कथं कोऽप्यन्य: विधातुः निर्णयम् अन्यथाकर्तुं क्षमः ।

काकः – (सव्यङ्ग्यम्) अरे अहिभुक् । नृत्यातिरिक्तं का तव विशेषता यत् त्वां

वनराजपदाय योग्यं मन्यामहे वयम् । मयूरः यतः मम नृत्यं तु प्रकृतेः आराधना पश्य ! पश्य! मम पिच्छानामपूर्व सौंदर्यम्

(पिच्छानुद्घाट्य नृत्यमुद्रायां स्थितः सन्) न कोऽपि त्रैलोक्ये मत्सदृशः सुन्दरः ।

वन्यजन्तूनामुपरि आक्रमणं कर्तारं तु अहं स्वसौन्दर्येण नृत्येन च आकर्षितं कृत्वा वनात् बहिष्करिष्यामि । अतः अहमेव योग्यः वनराजपदाय।

शब्दार्थ- जानाति जानता है, जातम् हो गया है, तत्पराः तैयार, पक्षिराजः पक्षियों का राजा, विधातुः = परमात्मा के, पिच्छान् पंखों को, सन् = होता हुआ, शिखाम् चोटी। = अनुवाद – मयूर – तुम्हारी ध्यान की अवस्था को कौन जानता है, योगी के बहाने मछलियों को छल से

पकड़ते हो, आपकी वजह से तो सारा पक्षी परिवार ही अपमानित हो गया है। बंदर – (गर्व के साथ) इसलिए कहता हूँ कि मैं ही वनराज के योग्य हूँ। सभी मेरे राज्याभिषेक की तैयारी

करें।

मोर- अरे बंदर ! चुप हो जा। तू वनराज के योग्य कैसे हो सकता है, देखो! देखो! मेरे सिर के ऊपर राजमुकुट की तरह ईश्वर ने बनाया है इसलिए वन में निवास करने वाले जीवों मुझे राजा के रूप में स्वीकार करो। क्योंकि कोई ईश्वर की व्यवस्था को व्यर्थ नहीं कर सकता।

कौआ – (व्यंग्य के साथ) अरे साँप खाने वाले! नाचने के अलावा तुम्हारी क्या विशेषता है कि तुमको वनराज के पद के योग्य हम मान लें। मोर— मेरा नृत्य प्रकृति की पूजा है। देखो! देखो! मेरे पंखों की अनोखी सुंदरता, कोई भी तीनों लोकों में

मेरी तरह सुंदर नहीं है। जंगल पर आक्रमण करने वाले को मैं सुंदर नाच दिखाकर बाहर भगा दूंगा। इसलिए इस

पद के योग्य मैं ही हूँ।

( छ ) ( एतस्मिन्नेव काले व्याघ्रचित्र कौ अपि नदीजलं पातुमागतौ एतं विवादं शृणुतः वदतः च )

व्याघ्रचित्रको अरे किं वनराजपदाय सुपात्रं चीयते? एतदर्थं तु आवामेव योग्यौ । यस्य कस्यापि चयनं कुर्वन्तु सर्वसम्मत्या । तूष्णीं भव भोः । युवामपि मत्सदृशौ भक्षकौ न तु रक्षकौ एते वन्यजीवाः भक्षक

सिंह:

बक:

रक्षकपदयोग्यं न मन्यन्ते अतएव विचारविमर्शः प्रचलति ।

– सर्वथा सम्यगुक्तम् सिंहमहोदयेन । वस्तुतः एव सिंहेन बहुकालपर्यन्तं शासन कृतम् परमधुना तु कोऽपि पक्षी एव राजेति निश्चेतव्यम् अत्र तु संशीतिलेशस्थापि अवकाशः एव नास्ति ।

शब्दार्थ- एव = इसी / ही, काले समय में, पातुम् पीने के लिए, आगतौ आ गए, तूष्णीम् चुप

होना, अवकाशः स्थान ।

अनुवाद – ( इसी समय बाघ व चीता भी नदी का जल पीने पहुँचे, इस विवाद को सुनते हैं और बोलते हैं) बाघ व चीता – अरे क्या वनराज के पद के लिए अच्छे पात्र का चयन किया जा रहा है ? इसके लिए तो हम दोनों ही योग्य हैं। जिस किसी की भी सहमति से कर लें।

सिंह – अरे तुम चुप हो जाओ तुम दोनों भी मेरी तरह ही भक्षक ही हो, यहाँ रक्षक की बात चल रही है। बगुला— शेर महोदय ने ठीक कहा। वास्तव में शेर ने बहुत समय तक राज किया इसलिए अब कोई पक्षी में से ही राजा बने ऐसा निश्चय करना चाहिए।

(ज) सर्वे पक्षिणः

:- ( उच्चैः ) आम् आम्-कश्चित् खगः एव वनराजः भविष्यति इति । ( परं कश्चिदपि खगः आत्मानं विना नान्यं कमपि अस्मै पदाय योग्यं चिन्तयन्ति

तर्हि कथं निर्णयः भवेत् तदा तैः सर्वैः गहननिद्रायां निश्चिन्तं स्वपन्तम् उलूकं
वीक्ष्य विचारितम् यदेषः आत्मश्लाघाहीनः पदनिर्लिप्तः उलूको एवास्माकं राजा भविष्यति। परस्परमादिशन्ति च तदानीयन्तां नृपाभिषेकसम्बन्धिनः सम्भारा:

इति ।)

सर्वे पक्षिणः सज्जायै गन्तुमिच्छन्ति तर्हि अनायास एव – ( अट्टहासपूर्णेन स्वरेण) – सर्वथा अयुक्तमेतत् यन्मयूर हंस कोकिल

चक्रवाक – शुक-सारसादिषु पक्षिप्रधानेषु विद्यमानेषु दिवान्धस्यास्य कराल

वक्त्रस्याभिषेकार्थं सर्वे सज्जाः । पूर्णं दिनं यावत् निद्रायमाणः एषः कथमस्मान् रक्षिष्यति । वस्तुतस्तु

स्वभावरौद्रमत्युग्रं क्रूरमप्रियवादिनम् । उलूकं नृपतिं कृत्वा का नु सिद्धिर्भविष्यति ।।

शब्दार्थ–उच्चैः = जोर से, वीक्ष्य देखकर, अयुक्तम् अनुचित है, नृपतिम् = राजा, सिद्धि =

सफलता, सम्भाराः = वस्तुएँ ।

अनुवाद – सभी पक्षी – (जोर से) हाँ, हाँ……. . कोई पक्षी ही जंगल का राजा होगा।

(किंतु सभी पक्षी स्वयं को राजा बनाने की सोचते हैं न कि किसी अन्य को, तब निर्णय होना कठिन था। तभी

सब सोचते हैं कि गहरी नींद में सोया हुआ उल्लू आत्मप्रशंसा रहित, पद लालसा मुक्त है यही हमारा राजा होगा)

कौआ – (अट्टहास करता हुआ) यह पूर्णरूपेण गलत है, हम सब पक्षियों के होते हुए इस दिन के अंधे को, भयानक मुख वाले उल्लू को राजा कौन बनाए और यह हमारी रक्षा भी कैसे कर सकता है। भयानक स्वभाव वाला, क्रोधी, निर्दयी और अप्रिय बोलने वाले उल्लू को राजा बनाकर निश्चित रूप से कैसी सफलता मिलेगी।

(झ) (ततः प्रविशति प्रकृतिमाता )

प्रकृतिमाता ( सस्नेहम् ) भोः भोः प्राणिनः । यूयम् सर्वे एव मे सन्ततिः । कथं मिथः कलहं कुर्वन्ति । वस्तुतः सर्वे वन्यजीविनः अन्योन्याश्रिताः । सदैव स्मरत

ददाति प्रतिगृह्णाति, गुह्यमाख्याति पृच्छति । भुङ्क्ते भोजयते चैव षड्-विधं प्रीतिलक्षणम् ।।

( सर्वे प्राणिनः समवेतस्वरेण )

मातः ! कथयति तु भवती सर्वथा सम्यक् परं वयं भवतीं न जानीमः । भवत्याः परिचयः कः ?

प्रकृतिमाता अहं प्रकृतिः युष्माकं सर्वेषां जननी? यूयं सर्वे एव मे प्रियाः । सर्वेषामेव मत्कृते महत्वं विद्यते यथासमयम् न तावत् कलहेन समयं वृथा यापयन्तु अपितु मिलित्वा एव मोदध्वं जीवनं च रसमयं कुरुध्वम् । तद्यथा कथितम् –

प्रजासुखे सुखं राज्ञः, प्रजानां च हिते हितम् । नात्मप्रियं हितं राज्ञः, प्रजानां तु प्रियं हितम् ।।

अपि च –

अगाधजलसञ्चारी न गर्व याति रोहितः । अङ्गुष्ठोदकमात्रेण शफरी फुफुरायते ।। अतः भवन्तः सर्वेऽपि शफरीवत् एकैकस्य गुणस्य चर्चा विहाय, मिलित्वा प्रकृतिसौ वनरक्षायै च

प्रयतन्ताम् ।

सर्वे प्रकृतिमातरं प्रणमन्ति मिलित्वा दृढसंकल्पपूर्वकं च गायन्ति –

प्राणिनां जायते हानिः परस्परविवादतः । अन्योन्यसहयोगेन लाभस्तेषां प्रजायते ।।

शब्दार्थ- शफरी = छोटी-सी मछली, प्राणिनः सारे जीव जंतु, यापयंतु बिताएँ, सम्यक् = ठीक

तरह से, भुङ्क्ते खाता, प्राणिनः = जीवों, स्मरत याद रखो, प्रजायते होता है। = =

अनुवाद – ( उसके बाद प्रकृति माता प्रवेश करती है ) प्रकृतिमाता – ( प्रेमपूर्वक) अरे! अरे! तुम सभी मेरी सन्तान

जीव एक-दूसरे पर आश्रित हैं, सदैव याद रखो

हो, क्यों आपस में झगड़ा करते हो। सभी

काकः
जो देता है, लेता है, गुप्त बातें बताता है अर्थात् सावधान करता है, पूछता है, खाता है, और (खाने के लिए) जोड़ते हैं, ये छः प्रकार के प्रेम के लक्षण (मित्र के लक्षण) हैं।

(सभी एक स्वर में)

हे माता! आप ठीक कहती हैं किंतु हम आपको नहीं जानते, आपका परिचय ?

प्रकृतिमाता – मैं प्रकृति तुम सबकी माँ हूँ। तुम सभी मेरे प्रिय हो। सभी का उचित समय पर मेरे लिए महत्व है। तो लड़ाई करके समय को व्यर्थ न बिताओ बल्कि मिलकर ही प्रसन्न रहो और जीवन को रस से युक्त

करो तो जैसा कहा गया है

राजा का प्रजा के सुख में सुख और हित में अपना हित होता है, राजा का अपना हित प्रिय नहीं होता, प्रजा का हित ही उसका हित होता है। और भी अथाह (अनंत) जल में घूमने वाली रोहू नामक मछली कभी अपनी कुशलता पर घमण्ड नहीं करती किंतु

कम जल में विचरण करने वाली सहरी मछली अधिक फूदकती है।

अतः आप सभी छोटी सहरी मछली की विशेषताओं को छोड़कर प्रकृति की सुंदरता व वन की रक्षा के

लिए प्रयत्न करो ।

सभी जीव प्रकृतिमाता को प्रणाम करते हैं। मिलकर मजबूत संकल्प ‘साथ गाते हैं आपसी झगड़े, विवाद से सभी जीवों की हानि होती है, किंतु परस्पर सहयोग से उनका आपस में लाभ

होता है।

अभ्यास प्रश्नाः

प्रश्न 1. एकपदेन उत्तरं लिखत

(क) वनराजः कैः दुरवस्थां प्राप्तः ?

उत्तरम् – तुच्छजीवैः ।

(ख) कः वातावरणं कर्कशध्वनिना आकुलीकरोति ?

उत्तरम् – काकः ।

(ग) काकचेष्टा : विद्यार्थी कीदृशः छात्र मन्यते ?

उत्तरम् – आदर्शः ।

(घ) कः आत्मानं बलशालिनं, विशालकायं, पराक्रमिणं च कथयति ?

उत्तरम् – गजः ।

(ङ) बकः कीदृशान् मीनान् क्रूरतया भक्षयति ?

उत्तरम् – वराकान् ।

प्रश्न 2. अधोलिखितानां प्रश्नानामुत्तराणि पूर्णवाक्येन लिखत (क) नि:संशयं कः कृतान्तः मन्यते ?

उत्तरम् – यः अपरै वित्रस्तान् पीड्यमानान् जन्तून् सदा न रक्षति पार्थिवरूपेण सः निःसंशयं कृतान्तः

( ख ) बक: वन्यजन्तूनां रक्षोपायान् कथं चिन्तयितुं कथयति ?

उत्तरम् – बकः शीतले जले बहुकालात् पर्यन्तम् अविचल ध्यानमग्नः स्थितप्रज्ञः इव स्थित्वा वन्य

जन्तूनां रक्षोपायान् कथयति ।

(ग) अन्ते प्रकृतिमाता प्रविश्य सर्वप्रथमं किं वदति ?

उत्तरम् – प्रकृतिमाता वदति यत् सर्वे जीवाः एव तस्याः सन्ततिः । कथं मिथः कुलहं कुर्वन्ति । सर्वे जीवाः अन्योन्याश्रिताः सन्ति ।

(घ) यदि राजा सम्यक् न भवति तदा प्रजा कथं विप्लवेत् ?

उत्तरम् – राजा सम्यक् न भवति तदा जलधौअकर्णधारा नौरिव विप्लवेत् ।

मन्यते ।
(ङ) मयूरः कथं नृत्यमुद्रायां स्थितः भवति ? उत्तरम्– मयूरः पिच्छान् उद्घाट्य नृत्यमुद्रायां स्थितः भवति ।

(च) अन्ते सर्वे मिलित्वा कस्य राज्याभिषेकाय तत्पराः भवति ? उत्तरम्–अन्ते सर्वे मिलित्वा उलूकस्य राज्याभिषेकाय तत्पराः भवति

(छ) अस्मिन्नाटके कति पात्राणि सन्ति ?

उत्तरम् – अस्मिन्नाटके द्वादश पात्राणि सन्ति ।

प्रश्न 3. रेखांकितपदमाधृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत ( क ) सिंह: वानराभ्यां स्वरक्षायाम् असमर्थ एवासीत् ।

(ख) गजः वन्यपशून् तुदन्तं शुण्डेन पोथयित्वा मारयति ।

(ग) वानरः आत्मानं वनराजपदाय योग्यः मन्यते ।

(घ ) मयूरस्य नृत्यं प्रकृतेः आराधना ।

(ङ) सर्वे प्रकृतिमातरं प्रणमन्ति ।

उत्तरम् – (क) सिंह: वानराभ्याम् कस्याम् असमर्थः एवासीत ?

(ख) गजः वन्यपशून् तुदन्तं केन पोथयित्वा मारयति ?

(ग) वानरः आत्मानं कस्यै योग्यः मन्यते ? (घ) मयूरस्य नृत्यं कस्याः आराधना ?

(ङ) सर्वे काम प्रणमन्ति ?

प्रश्न 4. शुद्धकथनानां समक्षम् आम् अशुद्धकथनानां च समक्षं न इति लिखत

( क ) सिंह: आत्मानं तुदन्तं वानरं मारयति ।

(ख) का का इति बकस्य ध्वनिः भवति ।

(ग) काकपिकयो: वर्णः कृष्णः भवति ।

(घ) गज: लघुकाय, निर्बलः च भवति।

(ङ) मयूरः बकस्य कारणात् पक्षिकुलम् अवमानितं मन्यते।

(च) अन्योन्यसहयोगेन प्राणिनाम् लाभ: जायते । उत्तरम् – (क) न, (ख) न, (ग) आम्, (घ) न, (ङ) आम्, (च) आम्।

प्रश्न 5 मञ्जूषातः समुचितं पदं चित्वा रिक्तस्थानानि पूरयत ( स्थितप्रज्ञः, यथासमयम्, मेध्यामेध्यभक्षकः, अहिभुक्, आत्मश्लाघाहीनः, पिकः ) (क) काक:.. भवति ।

(ख) – परभृत् अपि कथ्यते ।

(ग) बकः अविचल:.. .इव तिष्ठति ।

(घ) मयूर :..

.इति नाम्नाऽपि ज्ञायते ।

(ङ) उलूक… . पदनिर्लिप्तः चासीत् ।

(च) सर्वेषामेव महत्त्वं विद्यते..

उत्तरम् – (कं) मेध्यामेध्यभक्षकः, (ख) पिकः, (ग) स्थितप्रज्ञः, (घ) अहिभुक्, (ङ) आत्मश्लाघाहीन,

(च) यथासमयम्।

प्रश्न 6. वाच्यपरिवर्तनं कृत्वा लिखत

उदाहरणम् – क्रुद्धः सिंह: इतस्ततः धावति गर्जति च । क्रुद्धेन सिंहेन इतस्ततः धाव्यते गर्ज्यते च ।

(क) त्वया सत्यं कथयति।

(ख) सिंह: सर्वजन्तुन् पृच्छति।

(ग) काकः पिकस्य संततिं पालयति ।

।(घ) मयूर विधात्रा एव पक्षिराज वनराज वा कृतः

(ङ) सर्वैः खगैः कोऽपि खगः एव वनराजः कर्तुमिष्यते स्म

(च) सर्वे मिलित्वा प्रकृतिसौन्दर्याय प्रयत्नं कुर्वन्तु उत्तरम् – (क) त्वमं सत्यं कथयति ।

(ख) सिंहेन सर्वजन्तवः पृच्छयन्ते ।

(ग) काकेन् पिकस्य सन्ततिः पालयते ।

(घ) विधाता मयूरम् एव पक्षिराज वनराजं व अकरोत।

(ङ) सर्वे खगाः कम् अपि खगं वनराजं कर्तुम् ऐच्छम्

(च) सर्वे मिलित्वा प्रकृति सौन्दर्याम् प्रयत्नः क्रियते । प्रश्न 7. समासविग्रहं समस्तपदं वा लिखत –

( क ) तुच्छजीवैः, (ख ) वृक्षोपरि, (ग) पक्षिणां सम्राट्, (घ) स्थिता प्रज्ञा यस्य सः, (ङ) अपूर्वम्, (च) व्याघ्रचित्रका |

उत्तरम् – (क) तुच्छे:जीवैः, (ख) वृक्षस्य उपरी, (ग) पक्षिसम्राट्, (घ) स्थितप्रज्ञः, (ङ) न पूर्वम्, (च) व्याघ्रः च चित्रकः च ।

पठित-अवबोधनम्

प्रश्न 1. अधोलिखितान् गद्यांशान् पठित्वा तदाधारितानां प्रश्नानाम् उत्तराणि लिखत

(क) सिंह: – ( क्रोधेन गर्जन्) भो अहं वनराजः किं भयं न जायते? किमर्थं मामेवं तुदन्ति

सर्वे मिलित्वा ? यतः त्वं वनराजः भवितुं तु सर्वथाऽयोग्यः । राजा तु रक्षकः भवति परं भवान् तु भक्षकः। अपि च स्वरक्षायामपि समर्थः नासि तर्हि कथमस्मान् रक्षिष्यसि ? एक: वानरः

अन्यः वानरः –

किं न श्रुता त्वया पञ्चतन्त्रोक्तिः –

यो न रक्षति वित्रस्तान् पीड्यमानान्परैः सदा ।

(1) एकपदेन उत्तरत जन्तून् पार्थिवरूपेण स कृतान्तो न संशयः ॥

(i) कः कथयति अहं वनराज अस्मि ? (ii) सिंह किं कुर्वम् अवदत् ?

(2) पूर्णवाक्येन उत्तरत

(i) वानरः सिंहम् किम् कथयति ?

(3) भाषिककार्यम् –

(i) ‘भक्षक’ पदस्य विपर्यय पदं किं लिखत ? (ii) ‘त्वया’ इति कर्तृपदस्य क्रियापदम् किम् ?

(iii) वनराजः कः ?

उत्तरम् – (1) (i) सिंह, (ii) क्रोधेन गर्जन्

(2) (i) वानरः सिंहम् त्वं तु वनराजः भवितुम् तु सर्वथाऽयोग्यः । राजा तु रक्षकः भवति परम् भवान्

भक्षकः ।

(3) (i) रक्षक:, (ii) श्रुता, (iii) सिंह ।

(ख) काकः- आम् सत्यं कथितं त्वया वस्तुतः वनराजः भवितुं तु अहमेव योग्यः ।

पिक: ( उपहसन्) कथं त्वं योग्यः वनराजः भवितुं यत्र तत्र का का इति कर्कशध्वनिना वातावरणमाकुलीकरोषि न रूपम् न ध्वनिरस्ति। कृष्णवर्णम् मेध्यामेध्यभक्षकं त्वां कथं वनराजं मन्यामहे वयम् ?
काकः – अरे! अरे! किं जल्पसि? यदि अहं कृष्णवर्णः तर्हि त्वं किं गौराङ्गः? अपि च विस्मर्यते किं यत् मम सत्यप्रियता तु जनानां कृते । उदाहरणस्वरूपा–’अनृतं वदसि चेत् काकः दशेत्’- इति प्रकारेण । अस्माकं परिश्रमः ऐक्यं च विश्व

प्रथितम् । अपि च काकचेष्ट: विद्यार्थी एव आदर्शच्छत्रः मन्यते ।

पिकः अलम् अलम् अतिविकत्थनेन । किं विस्मर्यते यत् काकः कृष्णः पिकः कृष्णः को भेदः पिककाकयोः । वसन्तसमये प्राप्ते काकः काकः पिकः पिकः ।।

(1) एकपदेन उत्तरत

(i) कः वातावरणम् आकुली करोति ? (ii) अनृतं वदसि वेत् कः दशेत् ?

(2) पूर्णवाक्येन उत्तरत् –

(i) काकः स्वविषये किं कथयसि ?

(3) भाषिककार्यम् –

(i) ‘असत्यम्’ पदस्य विपर्ययपदं किं ?

(ii) कृष्ण वर्णः कः ?

(iii) ‘कथितम्’ इति क्रियापदस्य कर्तृपदं किम् ?

उत्तरम् – (1) (i) काकः, (ii) काकः ।

(2) (i) अस्माकम् परिश्रम ऐक्यं च विश्वप्रथितम् । अपि च काकचेष्ट: विद्यार्थी एव आदर्शच्छात्रः मन्यते ।

(3) (i) सत्यं, (ii) काकः, (iii) त्वया ।

प्रश्न 2. अधोलिखितान् श्लोकान् अन्वयं मञ्जूषायाः सहायतया उचितक्रमेण पूरयत (क) स्वभावरौद्रमत्युग्रं क्रूरमप्रियवादिनम् ।

उलूकं नृपतिं कृत्वा का नु सिद्धिर्भविष्यति ।।

मञ्जूषाः – प्रियवादिनम्, सिद्धिः, अतिउग्रं नृपतिं ।

अन्वयः – स्वभाव रौद्रम (i) क्रूरम (ii) उलूकं.. (iii)…….. कृत्वा कानु उत्तरम् – (i) अतिउग्रं, (ii) प्रियवादिनम् (iii) नृपतिं, (iv) सिद्धिः ।

……….(iv)……… भविष्यति ।

(ख) ददाति प्रतिगृह्णाति, गुह्यमाख्याति पृच्छति । भुङ्क्ते भोजयते चैव षड्-विधं प्रीतिलक्षणम् ।।

मञ्जूषा :- भोजयते, पृच्छति, षड्विधं, प्रतिगृह्णाति ।

अन्वयः – ददाति (i) गुह्यम् आख्याति (ii) भुङ्क्ते. ..(iii)… . प्रीति लक्षणम् ।

उत्तरम् – (i) प्रतिगृह्णाति, (ii) पृच्छति, (iii) भोजयते, (iv) षड्विधं

(ग)

प्रजासुखे सुखं राज्ञः, प्रजानां च हिते हितम् ।

नात्मप्रियं हितं राज्ञः, प्रजानां तु प्रियं हितम् ।।

मञ्जूषा :– प्रजानां, न, प्रजासुखे, हितम्, राज्ञः।

अन्वयः – राज्ञः ……..(i) सुखं च (ii)…. हिते हितम् . .(iii).

..(iv).. हितं प्रजानां तु……. (V) प्रियम् उत्तरम् – (i) हितम्, (ii) प्रजानां, (iii) न, (iv) राज्ञः, (v) प्रजासुखे |

. च एव

आत्मप्रियं

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