NCERT class 12 sociology important questions अध्याय 15 सामाजिक आन्दोलन [Social Movements]

अध्याय 15 सामाजिक आन्दोलन [Social Movements]

वस्तुनिष्ठ प्रश्न
बहु-विकल्पीय प्रश्न

1. ‘भारत में सामाजिक आन्दोलन’ पुस्तक के लेखक हैं
(A) महादेव गोविन्द रानाडे,
(B) ज्योतिबा फुले,
(C) एम.एस.ए. राव,
(D) नामदेव धसाल।

2. “सामजिक आन्दोलन समाज अथवा इसके सदस्यों में परिवर्तन लाने अथवा उसका विरोध करने का सामूहिक प्रयास है।” यह कथन है
(A) हरबर्ट ब्लूमर का,
(B) एल्ड्रिज एवं मैरिल का,
(C) हॉर्टन एवं हण्ट का,
(D) इनमें से किसी का नहीं।

3. सामाजिक आन्दोलन का कारक होता है
(A) आर्थिक क्षेत्र में असन्तोष,
(B) स्थिति एवं कार्य में असन्तुलन, में
(C) रीति-रिवाजों की रूढ़िवादिता,
(D) ये सभी।

4. किसानों द्वारा किया गया खेड़ा आन्दोलन का सम्बन्ध भारत के किस राज्य से है ?
(A) बिहार,
(B) झारखण्ड
(C) गुजरात,
(D) पश्चिम बंगाल।

5. भारत में पारिस्थितिकीय आन्दोलन का उदाहरण है
(A) चिपको आन्दोलन,
(B) किसान आन्दोलन
(C) दलित आन्दोलन,
(D) ये सभी।

6. निम्नांकित में से कौन भारत में श्रमिक आन्दोलन के पहले बड़े नेता रहे है ?
(A) डॉ. आम्बेदकर,
(B) वी. वी. गिरि,
(C) जयप्रकाश नारायण,
(D) जे.सी. कामथ ।

7. निम्नांकित में से किस संगठन का सम्बन्ध महिला आन्दोलन से है ?
(A) अखिल भारतीय महिला संघ,
(B) अखिल भारतीय महिला संघर्ष मोर्चा,
(C) महिला कल्याण फेडरेशन,
(D) भारतीय महिला सुरक्षा परिषद् ।

8. भारत में जनजातीय आन्दोलन का प्रकार है
(A) मसीही आन्दोलन,
(B) आर्थिक शोषण से प्रेरित आन्दोलन,
(C) विशुद्ध राजनीतिक चिन्तन,
(D) उपर्युक्त सभी प्रकार के आन्दोलन।

9. तेलंगाना आन्दोलन का उद्देश्य क्या था ?
(A) बंधुआ मजदूरी का विरोध,
(B) ग्रामीण बेरोजगारी का विरोध,
(C) जागीरदारों के शोषण का विरोध,
(D) लगान की माफी की माँग

10. ‘दि इण्डियन वूमेन्स मूवमेन्ट’ की लेखिका हैं
(A) मैत्रेयी चौधरी,
(B) इलीना सेन,
(C) शर्मिला रेगे
(D) इनमें से कोई नहीं।

उत्तर- 1. (C) 2. (C), 3. (D), 4. (C), 5. (A), 6. (B) 7. (A), 8. (D), 9. (C), 10. (A).

रिक्त स्थान पूर्ति
1. सामाजिक आन्दोलन विरोध की…………………घटना नहीं होती।
2. सामाजिक आन्दोलन के लिए एक विशेष………………………….. और नेतृत्व की जरूरत होती है।
3. प्रत्येक सामाजिक आन्दोलन में दबाव का कुछ-न-कुछ ……………………जरूर होता है।
4. किसान आन्दोलन……………………से पहले के दिनों में शुरू हुआ।
5. चंपारन आन्दोलन……………………की खेती के विरुद्ध था।
6. सर्वप्रथम मजदूर संघ की स्थापना सन्……………….. में बी.पी. वाडिया ने की।
7. भारत में अन्य पिछड़े वर्गों को आरक्षण देने की नीति………………. आयोग की सिफारिश पर लागू की गई।
8. नर्मदा आन्दोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली महिला का नाम …………………..है।
9. भारत सरकार द्वारा पर्यावरण संरक्षण कानून सन् …………………से लागू किया गया।
10. वोडो और मिजो आन्दोलन का सम्बन्ध भारत के………………. क्षेत्र से है।
उत्तर – 1. व्यक्तिगत, 2. संगठन, 3. तत्व, 4. औपनिवेशिक काल, 5. नील, 6. 1918, 7. मण्डल, 8पूर्वोत्तरकर, 9. 1986, 10. पूर्वोत्तर

सत्य/असत्य
1. सामाजिक आन्दोलन किसी विशिष्ट उद्देश्य की ओर निर्देशित नहीं होते।
2. सामूहिक कार्यवाही को संगठित करने तथा सतत रूप से गतिशील रखने के लिए,शिकायतों की चर्चा तथा विश्लेषण आवश्यक नहीं है।
3. झारखण्ड आन्दोलन का संचालन भारत की भील जनजाति द्वारा किया गया।
4. भारत में श्रमिक आन्दोलन सन् 1947 के बाद शुरू हुए।
5. उत्तर प्रदेश एक कृषि प्रधान राज्य है।
6. 19वीं सदी में राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान गाँधीजी ने अस्पृश्यता उन्मूलन को राष्ट्रीय आन्दोलन का प्रमुख अंग बनाया।
उत्तर- 1. असत्य, 2. असत्य, 3. असत्य, 4, सत्य, 5. सत्य, 6. असत्य

● जोड़ी मिलाइए
1. भारत में सामाजिक आन्दोलन
2. गौरा देवी
3. रामास्वामी नायकर
4. ऑल इण्डिया वूमैन्स
5. नक्सली आन्दोलन
6. स्वामी सहजानन्द

(i) कृषक आन्दोलन
(ii) एक राष्ट्रीय महिला संगठन
(iii) पश्चिम बंगाल
(iv) एम.एस.ए. राव
(v) आत्म सम्मान आन्दोलन
(vi) चिपको आन्दोलन

उत्तर 1. (iv), 2. → (vi). 3. → (v). 4. (ii) 5. (iii), 6. → (i).

एक शब्द/वाक्य में उत्तर
1. पिछड़े वर्गों के उत्थान के लिए श्री नारायण धर्म परिपालन आन्दोलन’ भारत के किस राज्य में हुआ ?
2. शोषित महिलाओं को न्याय दिलवाने के लिए भारत सरकार द्वारा नियुक्त आयोग का नाम क्या है ?
3. चिपको आन्दोलन के साथ किसका नाम जुड़ा हुआ है ?
4. बम्बई (मुम्बई) में ऑल इण्डिया ट्रेड यूनियन की स्थापना कब हुई थी ?
5. ‘द लॉजिक ऑफ कलैक्टिव एक्शन’ के लेखक कौन हैं ?
6. भारत में किसान आन्दोलन’ पुस्तक के लेखक कौन हैं ?
7. मजदूर संघ अधिनियम कब पारित हुआ ?
8. झारखण्ड राज्य का गठन हुआ?
9. जाति आधारित एक आन्दोलन का नाम बताइए।
उत्तर- 1. केरल, 2. राष्ट्रीय महिला आयोग, 3. सुन्दरलाल बहुगुणा, 4. सन् 1920, 5. मनकर ओल्सन, 6. डी.एन. धनागरे, 7. सन् 1926, 8. 15 नवम्बर, 2000, 9. दलित आन्दोलन।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. आन्दोलन से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर- आन्दोलन से तात्पर्य एक संगठित सत्ता तन्त्र या व्यवस्था द्वारा शोषण और अन्याय किए जाने के बोध से उसके खिलाफ पैदा हुआ संगठित और सुनियोजित स्वतः स्फूर्त सामूहिक संघर्ष है जिसका उद्देश्य सत्ता या व्यवस्था में सुधार या परिवर्तन होता है। यह राजनीतिक सुधारों या परिवर्तन की आकांक्षा के अलावा सामाजिक, धार्मिक, पर्यावरणीय या सांस्कृतिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए भी चलाया जाता है।

प्रश्न 2. सभी आन्दोलन कुछ प्रबुद्ध व्यक्तियों के नेतृत्व में ही चलते हैं, स्पष्ट कीजिए।
उत्तर- प्रत्येक आन्दोलन का नेतृत्व कोई-न-कोई प्रबुद्ध व्यक्ति ही करता है। इस प्रकार के नेतृत्व का कार्य व्यक्तियों का समूह भी कर सकता है। भारत में शुद्धि आन्दोलन का नेतृत्व स्वामी दयानन्द ने किया। समाज-सुधार आन्दोलनों में महात्मा गाँधी ने नेतृत्व किया तथा स्वतन्त्रता के लिए राष्ट्रीय आन्दोलन में नेतृत्व की भूमिका मुख्य रूप से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की रही।

प्रश्न 3. समाज कल्याण तथा समाज सुधार में कोई एक अन्तर बताइए।
उत्तर- समाज कल्याण में समाज की निम्न जातियों, पिछड़े वर्गों के सर्वांगीण विकास के लिए कार्य किए जाते हैं जबकि समाज सुधार के अन्तर्गत समाज में फैली हुई कुरीतियों को दूर कर उनमें बदलाव लाने के प्रयास किए जाते हैं।

प्रश्न 4. समाज कल्याण के क्या उद्देश्य होते हैं ?
उत्तर- (1)समाज के सदस्यों के हितों की पूर्ति उनकी जरूरतों के अनुसार होती रहे।
(2) ऐसे सामाजिक सम्बन्ध स्थापित करना जिससे लोग अपनी शक्तियों का पूरी तरह विकास कर सकें।

प्रश्न 5. सामाजिक आन्दोलन की अवस्थाएँ बताइए।
उत्तर-(1) सामाजिक असन्तोष,
(2) जन-उत्तेजना,
(3) औपचारीकरण,
(4) संस्थाकरण।

प्रश्न 6. जाति आन्दोलन क्यों चलाए गए थे?
उत्तर- समाज में प्रबुद्ध जातियों द्वारा निम्न जातियों पर किए जाने वाले अत्याचारों के विरोध में तथा जाति स्तरीकरण में अपनी जाति की स्थिति को ऊपर उठाया जा सके, इसलिए जाति आन्दोलन चलाए गए थे।

प्रश्न 7. आर्थिक क्षेत्र में असन्तोष से प्रायः आन्दोलन भड़क उठते हैं, कैसे ?
उत्तर- आर्थिक क्षेत्र में असन्तोष की भावना यदि प्रबल हो जाए, तो सम्बन्धित वर्ग परेशान हो जाता है तथा अपनी आर्थिक दशा को सुधारने के लिए आन्दोलन करने को बाध्य हो जाता है। भारतीय समाज में श्रमिकों तथा महिलाओं की आर्थिक स्थिति खराब थी। अतः उन्होंने अपनी आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिए विभिन्न प्रकार के आन्दोलन किए।

लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. सामाजिक आन्दोलन का अध्ययन समाजशास्त्र के लिए महत्त्वपूर्ण क्यों है ?
उत्तर- प्रारम्भ से ही समाजशास्त्र सामाजिक आन्दोलनों के अध्ययन में रुचि लेता रहा है। औद्योगिक क्रान्ति से समाज में हुए उतार-चढ़ावों के परिणामस्वरूप ही समाजशास्त्र का विकास हुआ। आन्दोलनकारियों में भी नैतिक व्यवस्था होती है, अर्थात् उनमें भी अपनी गतिविधियों के विषय में सही और गलत की साझी समझ होती है। नगरीय क्षेत्रों में गरीब लोगों के पास विरोध करने के लिए उपयुक्त कारण होते हैं। वे प्राय: सार्वजनिक रूप से विरोध करते हैं क्योंकि उनके पास वंचन के विरुद्ध अपना गुस्सा और क्षोभ प्रकट करने का कोई दूसरा तरीका नहीं होता। समाजशास्त्र में सामाजिक आन्दोलनों की व्याख्या सापेक्षिक वंचन के सिद्धान्त के आधार पर दी गई है।

प्रश्न 2. समाज सुधार आन्दोलनों की मदद से हम क्या परिवर्तन ला सकते हैं ?
उत्तर- प्रत्येक समाज का उद्देश्य होता है कि वह समाज में एकता तथा समानता की स्थिति लाकर मानव के कल्याणकारी हितों का ध्यान रखें। परन्तु यह तभी सम्भव है जब समाज में फैली कुरीतियाँ, अन्धविश्वासों को दूर कर दिया जाए। इनको दूर सिर्फ समाज सुधार आन्दोलन ही कर सकते हैं। समाज की असमानता को दूर करने के लिए कानूनों का निर्माण होने के साथ-साथ कानूनों को विधिवत् रूप से लागू किया जाए; जैसे-बाल-विवाह, विधवा विवाह, दहेज प्रथा, बाल मजदूरी पर रोक इत्यादि। अगर हमें समाज का विकास करना है, तो हमें समाज सुधार आन्दोलनों
की जरूरत है। इसलिए हम समाज सुधार के महत्त्व को भूल नहीं सकते।

प्रश्न 3. सामाजिक आन्दोलन की कोई चार विशेषताएँ बताइए।
उत्तर-(1) सामाजिक आन्दोलन प्राय: शासन विरोधी होते हैं।
(2) सामाजिक आन्दोलन सामूहिक प्रयत्नों पर आधारित होते हैं, क्योंकि एक व्यक्ति समाज में परिवर्तन नहीं ला सकता है।
(3) इसका निर्माण पुरानी व्यवस्थाओं में गड़बड़ी के कारण होता है इसलिए यह पुरानी व्यवस्थाओं में परिवर्तन करके समाज में सुधार कार्य करता है।
(4) सामाजिक आन्दोलन हमेशा नियोजित तथा जानबूझकर किया गया प्रयत्न है।

प्रश्न 4. नक्सली आन्दोलन क्या है ?
उत्तर- नक्सलवाद कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों के उस आन्दोलन का अनौपचारिक नाम है। जो भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन के फलस्वरूप उत्पन्न हुआ। नक्सली आन्दोलन की शुरूआत 25 मई, 1967 से मानी जाती है जब कम्युनिस्ट नेता चारू मजूमदार, कानू सान्याल और जगत सान्याल के नेतृत्व ने उत्तरी बंगाल के नक्सलबाड़ी गाँव के कृषकों ने विद्रोह किया। मजूमदार चीन के कम्युनिस्ट नेता माओत्से तुंग के बहुत बड़े प्रशंसकों में से थे और उनका मानना था कि भारतीय मजदूरों और किसानों की दुर्दशा के लिए सरकारी नीतियाँ जिम्मेदार हैं जिसकी वजह से उच्च वर्गों का शासन तन्त्र और फलस्वरूप कृषि तन्त्र पर वर्चस्व स्थापित गया है। इस न्यायहीन दमनकारी वर्चस्व को केवल सशस्त्र क्रान्ति से ही समाप्त किया जा सकता है। कालान्तर में नक्सली आन्दोलन ने हिंसक रूप धारण कर लिया और आज इससे अनेक राज्य पीड़ित हैं।

प्रश्न 5. चिपको आन्दोलन क्या है ?
उत्तर- चिपको आन्दोलन एक पर्यावरण रक्षा का आन्दोलन है। यह भारत के उत्तराखण्ड राज्य में किसानों ने वृक्षों की कटाई का विरोध करने के लिए किया था। वे राज्य के वन विभागविभाग के ठेकेदारों द्वारा वनों की कटाई का विरोध कर रहे थे और उस पर अपना परम्परागत अधिकार जता रहे थे। वन विभाग ने खेल सामग्री निर्माण के लिए एक निर्माता को व्यावसायिक इस्तेमाल के लिए आबंटित कर दिया इससे गाँव वालों में रोष उत्पन्न हो गया।

प्रश्न 6. क्रान्तिकारी आन्दोलन किसे कहते हैं ?
उत्तर- जब शोषण की दशा के विरुद्ध किसी वर्ग या समुदाय द्वारा सम्पूर्ण व्यवस्था में परिवर्तन लाने के लिए कोई आन्दोलन किया जाता है, तब इसे क्रान्तिकारी आन्दोलन कहते हैं। क्रान्तिकारी आन्दोलन प्रचलित पुरानी व्यवस्था को उखाड़ कर उसकी जगह नई व्यवस्था को लागू करना है। क्रान्तिकारी आन्दोलन हमेशा निरंकुश शासन में तथा उसे खत्म करने के लिए चलाए जाते हैं।

दीर्घ उत्तरीय / विश्लेषणात्मक प्रश्न
प्रश्न 1. सामाजिक आन्दोलन की अवधारणा स्पष्ट कीजिए। सामाजिक आन्दोलन की प्रमुख विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर-जब एक समूह या समुदाय कुछ विशेष सामाजिक नियमों और व्यवहार से • असन्तुष्ट रहने के कारण संगठित होकर कोई ऐसा परिवर्तन लाने की कोशिश करता है जो लोगों की वर्तमान आवश्यकताओं के अनुकूल हो, इस तरह के प्रयत्न को सामाजिक आन्दोलन कहते हैं। सामाजिक आन्दोलनों का उद्देश्य समाज के वर्तमान जीवन में कोई न कोई परिवर्तन लाना है। इस प्रकार सामाजिक आन्दोलन परिवर्तन करने का सामूहिक प्रयत्न है। हैं सामाजिक आन्दोलन की विशेषताएँ-सामाजिक आन्दोलन की विशेषताएँ निम्नलिखित
(1) सामाजिक लक्ष्य-सामाजिक आन्दोलन किसी न किसी सामाजिक लक्ष्य को लेकर उत्पन्न होते हैं और इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए ही कार्य करते हैं। सामाजिक लक्ष्य से तात्पर्य सामाजिक संरचना, सामाजिक संस्था अथवा सामाजिक जीवन में परिवर्तन के लक्ष्य से है।
(2) सामाजिक परिवर्तन- सामाजिक आन्दोलन का लक्ष्य सामाजिक परिवर्तन लाना है। इस परिवर्तन का प्रकार और मात्रा भिन्न-भिन्न होती है। जनसमुदाय के सामूहिक कार्य के द्वारा सामाजिक संरचना में जानबूझकर परिवर्तन लाने का चेतन प्रयास है।
(3) विरोधी प्रवृत्ति प्रत्येक सामाजिक आन्दोलन किसी न किसी वर्तमान स्थिति, सामाजिक व्यवस्था अथवा सामाजिक संस्था के रूप, प्रथा या परम्परा के विरोध में उत्पन्न होता है और उसमें परिवर्तन करना चाहता है। इस प्रकार सामाजिक आन्दोलन में विरोध की प्रवृत्ति होती है।
(4) संगठन-सामाजिक आन्दोलन आरम्भ में छोटे रूप में शुरू होकर क्रमश: संगठित रूप ग्रहण कर लेते हैं। इस संगठन के बिना वे अपने लक्ष्यों को प्राप्त नहीं कर सकते।
(5) प्रासंगिक – मूक आन्दोलन किसी न किसी बात के विरोध में उत्पन्न होते हैं, इसलिए ये प्रासंगिक होते हैं। विशेष प्रसंग के कारण ही उनका जन्म होता है और यह प्रसंग बदल जाने पर ये समाप्त हो जाते हैं। अतः किसी भी सामाजिक आन्दोलन को स्थायी नहीं माना जाना चाहिए।
(6) भौगोलिक क्षेत्र – प्रत्येक सामाजिक आन्दोलन किसी न किसी विशिष्ट भौगोलिक क्षेत्र में सीमित होता है। उदाहरण के लिए, भारतवर्ष में कुछ सामाजिक आन्दोलन किसी विशेष राज्य और कुछ सम्पूर्ण देश में सीमित रहे हैं। शायद ही कोई सामाजिक आन्दोलन समस्त विश्व में फैला हो।
(7) गतिशीलता-सामाजिक आन्दोलन सामाजिक लक्ष्यों को लेकर उत्पन्न होते हैं। इन सामाजिक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए ये आन्दोलन सदैव गतिशील रहते हैं और देशकाल के परिवर्तन के साथ-साथ बदलते जाते हैं।
(8) नेता की भूमिका-सामाजिक आन्दोलन का जन्म आरम्भ में किसी न किसी नेता के विचार में होता है। बाद में प्रत्येक आन्दोलन में छोटे-बड़े अनेक नेतागण दिखायी पड़ते हैं। सामाजिक आन्दोलनों को निर्देश देने के लिए इन नेताओं की भूमिका महत्वपूर्ण होती है।

प्रश्न 2. भारत में पुराने तथा नए सामाजिक आन्दोलनों में स्पष्ट भेद करना कठिन है, चर्चा कीजिए।
उत्तर भारत में महिलाओं, कृषकों, दलितों, आदिवासियों तथा अन्य सभी प्रकार के सामाजिक आन्दोलन हुए हैं। क्या इन आन्दोलनों को ‘नए सामाजिक आन्दोलन’ समझा जा सकता है? गेल ऑमवेट ने अपनी पुस्तक ‘रीइन्वेन्टिंग रिवोल्यूशन’ में दर्शाया है कि सामाजिक असमानता तथा संसाधनों के असमान्य वितरण के बारे में चिन्ताएँ इन आन्दोलनों में भी आवश्यक तत्त्व बने हुए हैं। कृषक आन्दोलनों ने अपने उत्पादन हेतु बेहतर मूल्य तथा कृषि सम्बन्धी सहायता के हटाए जाने के विरुद्ध लोगों को गतिशील किया है। दलित मजदूरों ने सामूहिक प्रयास करके सुनिश्चित किया है कि उच्च जाति के भू-स्वामी तथा महाजन उनका शोषण न कर पाएँ। महिलाओं के आन्दोलनों ने लिंगभेद के मुद्दों पर कार्यस्थल तथा परिवार के जैसे विभिन्न दायरों में काम किया है। अन्दर साथ-ही-साथ ये नए सामाजिक आन्दोलन आर्थिक समानता के पुराने’ मुद्दों के बारे में ही नहीं हैं। न ही ये वर्गीय आधार पर संगठित हैं। पहचान की राजनीति, सांस्कृतिक चिंताएँ तथा अभिलाषाएँ सामाजिक आन्दोलनों की रचना करने के आवश्यक तत्त्व हैं तथा इनकी उत्पत्ति वर्ग-आधारित असमानता में ढूँढ़ना कठिन है। प्राय: ये सामाजिक आन्दोलन वर्ग की सीमाओं के आर-पार से भागीदारों को एक जुट करते हैं। उदाहरण के लिए, महिलाओं के आन्दोलन में नगरीय, मध्यवर्गीय महिलावादी तथा गरीब कृषक महिलाएँ सभी शामिल होती हैं। पृथक् राज्य के दर्जे की माँग करने वाले क्षेत्रीय आन्दोलन व्यक्तियों के ऐसे विभिन्न समूहों को अपने साथ शामिल करते हैं जो एक सजातीय वर्ग की पहचान नहीं रखते। सामाजिक आन्दोलन में सामाजिक असमानता के प्रश्न, दूसरे समान रूप से महत्त्वपूर्ण मुद्दों के साथ शामिल हो सकते हैं।

प्रश्न 3. सामाजिक आन्दोलनों के प्रकारों की चर्चा कीजिए।
उत्तर- सामाजिक आन्दोलन कई प्रकार के होते हैं। उन्हें निम्न प्रकार से वर्गीकृत किया जा सकता है
(1) प्रतिदानात्मक अथवा रूपान्तररा आन्दोलन- प्रतिदानात्मक सामाजिक आन्दोलन का लक्ष्य अपने व्यक्तिगत सदस्यों को व्यक्तिगत चेतना तथा गतिविधियों में परिवर्तन लाना होता है। उदाहरण के लिए, केरल के इजहावा समुदाय के लोगों ने नारायण गुरु के नेतृत्व में अपनी सामाजिक प्रथाओं को बदला।
(2) सुधारवादी आन्दोलन-सुधारवादी सामाजिक आन्दोलन वर्तमान सामाजिक तथा राजनीतिक विन्यास को धीमे, प्रगतिशील चरणों द्वारा बदलने का प्रयास करता है। एक सुधारवादी आन्दोलन वर्तमान सामाजिक व्यवस्था के दायरे में रहकर तथा बिना किसी मौलिक संरचना में बदलाव किए समाज की अवस्था को सुधारने का प्रयास करता है। सुधार प्रायः लोगों के विश्वासों, परम्पराओं तथा जीवन-शैली के साथ जुड़े होते हैं। भारत में सुधारवादी आन्दोलन के कई उदाहरण हैं। सन् 1960 के दशक में भारत के राज्यों को भाषा के आधार पर पुनर्गठित करने तथा हाल में सूचना के अधिकार का अभियान सुधारवादी आन्दोलनों के उदाहरण हैं। इन आन्दोलनों ने लोगों के जीवन में उल्लेखनीय परिवर्तन किया है।
(3) क्रान्तिकारी आन्दोलन- क्रान्तिकारी आन्दोलन सामाजिक सम्बन्धों के आमूल रूपान्तरण का प्रयास करते हैं। प्राय: राजसत्ता पर अधिकार के द्वारा रूस की बोल्शेविक क्रान्ति जिसने जार को अपदस्थ करके साम्यवादी राज्य की स्थापना की तथा भारत में नक्सली आन्दोलन जो दमनकारी भूस्वामियों तथा राज्य अधिकारियों को हटाना चाहते हैं, की क्रान्तिकारी आन्दोलनों के रूप में व्याख्या की जा सकती है। बहुत से आन्दोलनों में प्रतिदानात्मक, सुधारवादी तथा क्रान्तिकारी तत्व एक साथ मिले होते हैं। एक सामाजिक आन्दोलन की अभिमुखता समय के साथ इस प्रकार से बदलती है कि हो सकता है कि वह प्रारम्भ में क्रान्तिकारी अभिमुखता वाला हो तथा बाद में सुधारवादी बन जाए। एक आन्दोलन जन-गतिशीलता तथा सामूहिक विरोध की अवस्था से प्रारम्भ होकर अधिक संख्यात्मक बन सकता है।

प्रश्न 4. निम्नलिखित पर लघु टिप्पणी लिखिए
(i) महिलाओं के आन्दोलन, (ii) जनजातीय आन्दोलन, (iii) कृषक आन्दोलन, (iv) नवकिसान आन्दोलन ।
उत्तर- (i) महिलाओं के आन्दोलन-20वीं सदी के प्रारम्भ में राष्ट्रीय तथा स्थानीय स्तर पर महिलाओं के संगठनों में वृद्धि देखी गई। भारतीय महिला एसोसिएशन (डब्ल्यू.आई.ए. 1971), अखिल भारतीय महिला कॉन्फ्रेन्स (ए.आई.डब्ल्यू.सी., 1926), नेशनल काउंसिल फॉर वुमेन इन इण्डिया (एन.सी.डब्ल्यू, आई.) इत्यादि महिला आन्दोलनों को पहचान कर बता सकते हैं। इनमें से कई की शुरुआत सीमित कार्यक्षेत्र से हुई। इनका कार्यक्षेत्र समय के साथ विस्तृत हुआ ऐसा अक्सर माना जाता है कि केवल मध्यम वर्ग की शिक्षित महिलाएँ ही इस प्रकार के आन्दोलनों में शरीक होती हैं। किन्तु संघर्ष का एक भाग महिलाओं की सहभागिता का रहा है। औपनिवेशिक काल में जनजातीय तथा ग्रामीण क्षेत्रों में प्रारम्भ होने वाले संघर्षों तथा क्रान्तियों में महिलाओं ने पुरुषों के साथ भाग लिया। अतएव न केवल शहरी महिलाओं ने बल्कि ग्रामीण तथा जनजातीय क्षेत्रों की महिलाओं ने भी राजनीतिक आन्दोलनों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। शिक्षित महिलाओं ने सक्रियतापूर्वक जमीनी राजनीति में हिस्सा लिया। इसके साथ ही उन्होंने महिला आन्दोलनों को भी प्रोत्साहित किया। महिलाओं से सम्बन्धित नए मुद्दों पर अब ध्यान केन्द्रित किए जाने लगे; जैसे-महिलाओं के ऊपर हिंसा, विद्यालय फार्म पर माता-पिता दोनों के नाम, कानूनी परिवर्तन; जैसे-भूमि अधिकार, रोजगार, दहेज तथा गिक प्रताड़ना के विरुद्ध अधिकार इत्यादि इसके उदाहरण हैं।
(ii) जनजातीय आन्दोलन-अधिकांश जनजातीय आन्दोलन मध्य भारत के जनजातीय बेल्ट में स्थित रहे हैं; जैसे-संथाल, ओरांव तथा मुंडा। झारखण्ड के सामाजिक आन्दोलन के नेता बिरसा मुंडा थे जो एक आदिवासी थे। इन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध एक बड़े विद्रोह का नेतृत्व किया। जनजातियों के शिक्षित मध्यम वर्ग ने अपनी जातिगत जागरूकता, अपनी पहचान, संस्कृति तथा परम्पराओं को विकसित किया। सरकारी पदों पर विराजमान आदिवासियों ने एक बौद्धिक नेतृत्व का विकास किया तथा पृथक् राज्य के निर्माण में चलाए जा रहे आन्दोलनों को गति प्रदान की। पूर्वोत्तर राज्यों के आदिवासियों ने अपनी पृथक् जनजातीय पहचान पारम्परिक स्वायत्तता प्रदान करने की माँग की। किसी कारणवश जनजातियाँ भारत की मुख्यधारा से पृथक् रह गईं। इस खाई को पाटने की आवश्यकता है। वनों की जमीन के खोने से जनजातियों के गुस्से का निराकरण किया जाए। जनजातीय आन्दोलन सामाजिक आन्दोलन का एक अच्छा उदाहरण है। इसमें कई मुद्दे शामिल हैं; जैसे-आर्थिक, सांस्कृतिक, पारिस्थितिकी आदि। (iii) कृषक आन्दोलन-भारत में कृषक आन्दोलन औपनिवेशिक काल के पहले के दिनों में प्रारम्भ हुए। अधिकांश कृषक आन्दोलन भूमिपतियों, नौकरशाहों, साहूकारों, पुलिस व सेना द्वारा कृषकों के शोषण के परिणामस्वरूप उभरते हैं। भारत में हुए कृषक आन्दोलनों में पंजाब के कृषक आन्दोलन, चम्पारन आन्दोलन, गुजरात कृषक आन्दोलन, उत्तर प्रदेश तथा दक्षिण भारत के कृषक आन्दोलन इत्यादि प्रमुख हैं।
(iv) नव किसान आन्दोलन- स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद नव किसान आन्दोलन भी विकसित हुए जो मुद्दे औपनिवेशिक काल में प्रभावी थे, वे स्वतन्त्रता के बाद परिवर्तित हो गए। आन्दोलनों की मौलिक विचारधारा मजबूत राज्य विरोधी तथा नगर विरोधी थी। नव किसान आन्दोलनों में माँगों के केन्द्र में मूल्य और सम्बन्धित मुद्दे थे। इन आन्दोलनों में उपद्रव के नए तरीके अपनाए गए जिनमें सड़कों एवं रेलमार्गों को बन्द करना, राजनीतिज्ञों और प्रशासकों के लिए गाँव में प्रवेश की मनाही आदि प्रमुख थे। अतः स्वतन्त्रता पूर्व अनेक कृषक आन्दोलन हुए जो मुख्य रूप से भूमिपतियों, नौकरशाहों, साहूकारों, इत्यादि द्वारा किए जाने वाले शोषण के विरुद्ध थे। इससे भिन्न स्वतन्त्रता प्राप्ति के उपरान्त जो आन्दोलन हुए उन्हें नव किसान आन्दोलनों के रूप में जाना गया। इनके मुख्य कारण उपज के मूल्य से सम्बन्धित हैं।

 

 

 

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