12 निबन्ध-लेखन for class 10th mp board ncert hindi

12 निबन्ध-लेखन


1. परोपकार
(३) भारतीय संस्कृति का मूलाधार, (4) प्रकृति में परोपकार की
सापरेखा-(1) प्रस्तावना, (2) परोपकार की महत्ता,
भावना,(5) परोपकार से लाभ, (6) उपसहार।
प्रस्तावना-परोपकार शब्द ‘पर’ एवं ‘उपकार’ दो शब्दों
मेल से बना है। पर का आशय है-दूसरा एव उपकार का
अर्थ है-भलाई। इस तरह परोपकार का अर्थ दूसरों की भलाई
करना है। परोपकार की भावना मानव को इन्सान से फरिश्ता बना
देती है। यथार्थ में सज्जन दूसरों के हित साधन में अपनी सम्पूर्ण
जिन्दगी को समर्पित कर देते हैं।
परोपकार की महत्ता-परोपकार एक उत्तम आदर्श का
प्रतीक है। पर पीड़ा के समान कुछ भी अधम एवं निकृष्ट नहीं है।
गोस्वामी तुलसीदास ने परोपकार के बारे में लिखा है-
“परहित सरिस धर्म नहीं भाई।
पर पीड़ा सम नहीं अधमाई।”
भारतीय संस्कृति का मूलाधार- भारतीय संस्कृति की
भावना का मूलाधार परोपकार है। दया, प्रेम, अनुराग, करुणा
एवं सहानुभूति आदि के मूल में परोपकार की भावना है। गाँधी,
सुभाषचन्द्र बोस, जवाहरलाल नेहरू तथा लालबहादुर शास्त्री का
नाम आज बड़े आदर के साथ लिया जाता है। इन महापुरुषों ने
इन्सान की भलाई के लिए अपने घर-परिवार का त्याग कर दिया
पा। सन्त कबीर के शब्दों में-
“परमारथ के कारण साधुनि धरा शरीर।”
प्रकृति में परोपकार का भाव-प्रकृति मानव के हित साधन
में निरन्तर जुटी हुई है। परोपकार के लिए वृक्ष फलते-फूलते हैं,
सरिताएँ प्रवाहित हैं। सूर्य एवं चन्द्रमा प्रकाश लुटाकर मानव के
पथ को आलोकित करते हैं। बादल पानी बरसाकर धरती को
हा-भरा बनाते हैं, जीव-जन्तुओं को राहत देते हैं।
परोपकार से लाभ-परोपकारी मानव के हृदय में शान्ति
तथा सुख का निवास है। इससे हृदय में उदारता की भावना
पनपती है। सन्तों का हृदय नवनीत के समान होता है। उनमें किसी
के प्रति द्वेष तथा ईर्ष्या नहीं होती। परोपकारी स्वयं के विषय में

चिन्तित न होकर दूसरों के सुख दु:ख में भी सहभागी होता है।
परोपकारी के हृदय में कटुता की भावना नहीं होती है। समस्त
पृथ्वी ही उनका परिवार होती है। शिव, दधीचि, गुरु नानक, ईसा
मसीह आदि ऐसे महान् पुरुष अवतरित हुए जिन्होंने परोपकार के
निमित्त अपनी जिन्दगी तक को कुर्बान कर दिया।
उपसंहार-परोपकारी मानव किसी बदले की भावना
अथवा प्राप्ति की आकांक्षा से किसी के हित में रत नहीं होता,
वरन् इन्सानियत के नाते दूसरों की भलाई करता है। “सर्वे भवन्तु
सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामया:” के पीछे भी परोपकार की भावना
ही प्रतिफलित है। परोपकार सहानुभूति का पर्याय है। यह सज्जनों
की विभूति है। परोपकार आन्तरिक सुख का अनुपम साधन
है। यह हमें ‘स्व’ की संकुचित भावना से ऊपर उठाकर ‘पर’
के निमित्त बलिदान करने को प्रेरित करता है। इसी हेतु धरती
अपने प्राणों का रस संचित करके हमारी उदर पूर्ति करती है।
मेघ प्रत्युपकार में पृथ्वी से अन्न नहीं माँगते। वे युगों-युगों से
धरती के सूखे तथा शुष्क आँगन को जलधारा से हरा-भरा तथा
वैभव सम्पन्न बनाते रहे हैं। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त भी
हमें परोपकार करने की निम्नलिखित शब्दों में प्रेरणा दे रहे हैं;
देखिए-
“यही पशु प्रवृत्ति है कि आप-आप ही चरे।
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे॥”

2. दूरदर्शन
रूपरेखा-(1) प्रस्तावना, (2) दूरदर्शन का प्रारम्भ,
(3) भारत में दूरदर्शन, (4) दूरदर्शन की उपयोगिता, (5) दूरदर्शन
से हानियाँ, (6) उपसंहार।
प्रस्तावना-दूरदर्शन ने आज सारे संसार को एक परिवार
बना दिया है। संसार के किसी भी कोने में घटित होने वाली किसी
भी बात की जानकारी दूरदर्शन चित्रों सहित सारे संसार में तुरन्त
पहुँचा देता है। दूरदर्शन आज हर क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण हो गया है।
दूरदर्शन का प्रारम्भ-25 जनवरी, सन् 1927 ई. को
इंग्लैण्ड में एक इंजीनियर जॉन बेयर्ड ने रॉयल इन्स्टीट्यूट के
सदस्यों के समक्ष दूरदर्शन का पहला प्रदर्शन किया था। उसने

कठपुतली का चेहरा रेडियो की तरंगों की सहायता से पास के
कमरे में बैठे वैज्ञानिकों के सामने निर्मित कर सभी को विस्मित
कर दिया था। इस प्रकार सर्वप्रथम बेयर्ड ने ही इसकी खोज
कर हजारों सालों के सपने को साकार रूप दिया। आज तो न
केवल भारतवर्ष, बल्कि सम्पूर्ण विश्व में टी. वी. चैनलों का एक
जाल-सा बिछ गया है। गाँव-गाँव और नगर-नगर में इसने अपनी
घुसपैठ कर ली है। दूरदर्शन की तकनीक कुछ कुछ रेडियो पर
आधारित है। जिस प्रकार रेडियो किसी ध्वनि को विद्युत् तरंगों में
बदलकर दूर-दूर तक प्रसारित कर देता है और प्रसारित विद्युत्
तरंगों को पुन: ध्वनि में बदल देता है। उसी प्रकार दूरदर्शन प्रकाश
को विद्युत् तरंगों में बदल कर प्रसारित करता है। रेडियो द्वारा
प्रसारित ध्वनि को हम सुन सकते हैं और दूरदर्शन द्वारा प्रसारित
ध्वनि-दृश्य को देख सकते हैं।
भारत में दूरदर्शन-1927 में इंग्लैण्ड में आविष्कृत
दूरदर्शन धीरे-धीरे सन् 1959 ई. में भारत में प्रवेश कर गया।
भारत में पहला दूरदर्शन केन्द्र नई दिल्ली में 15 सितम्बर, 1959
को स्थापित किया गया था। इसके पश्चात् 1972 ई. में बम्बई
और 1973 ई. में कश्मीर (श्रीनगर) में दूरदर्शन केन्द्र स्थापित
किए गए। 1980 ई. से तो इस कार्य में और भी प्रगति हुई और
21 सालों में देश के कोने-कोने में दूरदर्शन पहुँच गया। इस समय
देश में दूरदर्शन के 542 ट्रान्समीटर कार्य कर रहे हैं।
दूरदर्शन की उपयोगिता-दूरदर्शन को मात्र एक वैज्ञानिक
चमत्कार समझकर नहीं छोड़ा जा सकता है, बल्कि यह तो
वैज्ञानिक प्रगति और मानवीय विकास की दृष्टि से काफी
उपयोगी सिद्ध हुआ है। मनोरंजन के साथ-ही-साथ शिक्षा के
क्षेत्र में भी दूरदर्शन ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है। विभिन्न
विषयों के शिक्षण कार्यक्रम दूरदर्शन पर दिखाये जाते हैं। इसके
अतिरिक्त अन्य कई ज्ञानवर्द्धक कार्यक्रम दिखाए जाते हैं। इसी
तरह चिकित्सा आदि के क्षेत्रों में नयी-नयी खोजों को दूरदर्शन
दिखाकर लोगों को जानकारी दी जाती है। दूरदर्शन, उद्योगों
की उन्नति के लिए विज्ञापनों द्वारा सहायक है। इसके अतिरिक्त
अन्य अनेक राजनीतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक
कार्यक्रमों को दूरदर्शन पर देख सकते हैं और लाभान्वित हो
सकते हैं और होते भी हैं। भारतीय अन्तरिक्ष अनुसन्धान के क्षेत्र
में दूरदर्शन की विशेष भूमिका रही है। मानसून, ग्रहों, नक्षत्रों,
प्राकृतिक आपदाओं आदि की सही जानकारी हमें इसी के माध्यम
से प्राप्त होती है। अत: दूरदर्शन हर क्षेत्र में हमारे लिए उपयोगी
सिद्ध हुआ है।
दूरदर्शन से हानियाँ-दूरदर्शन से जहाँ हमें अनेक लाभ
हैं, वहीं उससे कुछ हानियाँ भी हैं। इससे स्वास्थ्य पर बुरा असर

वन तापमान का सामान्य बनने में सहायक है। यमिट्टी के
कटाव पर अंकुश लगाते हैं। दूषित वायु को ग्रहण करके शुद्ध
एवं जीवनदायक वायु हमें प्रदान करते हैं। मानव की जिन्दगी के
लिए जितनी वायु तथा जल अपरिहार्य है, उतने वृक्ष भी आवश्यक
है। तुलसी, पीपल तथा वट वृक्ष कोटि-कोटि मानवों के
श्रद्धा-पात्र हैं। गीता में पीपल वृक्ष का उल्लेख भगवान श्रीकृष्ण
वृक्षों के कटने से हानियाँ-आज मानव भौतिक प्रगति
के लिए आतुर है। वह वृक्षों को अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए
निष्ठुरता तथा बेदर्दी से काट रहा है। औद्योगिक प्रतिस्पर्धा
तथा जनसंख्या की वृद्धि के फलस्वरूप वना का क्षेत्रफल
ने किया है।
दिन-प्रतिदिन घटता चला आ रहा है। वृक्षों पर चहचहाने वाले
पक्षियों का कलरव समाप्त सा हो चला है। पक्षी प्राकृतिक
सन्तुलन स्थिर रखने के प्रमुख कारक हैं। इनके अभाव में यह
सन्तुलन लड़खड़ा जायेगा। अगर मानव ने इसी प्रकार वृक्षों की
कटाई जारी रखी तथा नये वृक्ष नहीं लगाये तो इसके अस्तित्व पर
ही प्रश्न चिह्न लग जायेगा। वृक्षारोपण की योजना नई नहीं है।
हमारे राजा-महाराजाओं ने मानव की सुविधा हेतु सड़कों के दोनों
ओर छायादार वृक्ष लगाये थे।
वृक्षारोपण कार्यक्रम-वृक्षारोपण के महत्त्व को भूतपूर्व
केन्द्रीय खाद्य-मन्त्री श्री कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने
स्वीकारा था। इसके पश्चात् इस कार्यक्रम को दिन-प्रतिदिन
विस्तृत किया जाता रहा है।
उपसंहार-आज हमारे देशवासी वनों तथा वृक्षों की महत्ता
को एक स्वर से स्वीकार कर रहे हैं। वन महोत्सव हमारे राष्ट्र
की अनिवार्य आवश्यकता है। देश की समृद्धि में वृक्षों का अपूर्व
योगदान है। ये आर्थिक उन्नति के साधन हैं। इसलिए राष्ट्र के हर
नागरिक का यह कर्त्तव्य बनता है कि वह वृक्षों को लगाकर धरती
को हरा-भरा बनाये।
4. कम्प्यूटर
रूपरेखा-(1) प्रस्तावना-कम्प्यूटर
परिचय,
(2) कम्प्यूटर का विकास एवं इतिहास, (3) कम्प्यूटर क्या है ?,
(4) कम्प्यूटर के विविध प्रयोग, (5) उपसंहार।
का
प्रस्तावना-आज का युग वैज्ञानिक युग है। तकनीक के
नित नये आविष्कार निरन्तर सामने आ रहे हैं। ‘कम्प्यूटर’ इन्हीं
खोजों में से एक है। संस्थाओं तथा उद्योग-धन्धों में कम्प्यूटर का
प्रयोग विशाल पैमाने पर हो रहा है। कम्प्यूटर सूचनाएँ एकत्र करने
बहुत लाभकारी तथा मार्गदर्शक प्रमाणित होते हैं। ये एक प्रकार से
के साथ ही उनसे निष्कर्ष भी निकालता है जो मानव के लिए
मानव के मस्तिष्क का ही प्रतिरूप है। जो कार्य मानव मस्तिष्क
सम्पादित करता है, वही काम कम्प्यूटर करता है।
कम्प्यूटर का विकास एवं इतिहास-यह बात 1000 ई.
पू. की है जब जापान के अन्तर्गत ऐवेकस नामक यन्त्र तैयार
किया गया। इसके माध्यम से गणित के प्रश्नों को हल किया जाता
था। फ्रांस में एक प्रतिभाशाली युवक का जन्म हुआ जिसका नाम
ब्लेन पैसकल था। इसने सन् 1673 ई. में कम्प्यूटर को बनाकर
तैयार किया। इस कम्प्यूटर से छोटे-छोटे पहिए सम्बद्ध थे।
आधुनिक कम्प्यूटर के आविष्कार का श्रेय इंग्लैण्ड के
चार्ल्स बैबेज को जाता है। यह बहुत ही कुशल गणितज्ञ था। उन्होंने
यह कार्य 1833 ई. में सम्पन किया। कम्प्यूटर की लोकप्रियता
एवं दूरगामी परिणामों से प्रभावित होकर भारत सरकार ने भी सन्
1965 में इसका आयात किया। उस समय इसका मूल्य बहुत
बढ़ा-चढ़ा था। 1985 में निजी कम्प्यूटर का आगमन हुआ
जो बहुत ही महँगा साबित हुआ। सौभाग्यवश सन् 1986 ई. में
पूर्व के लगभग आधे मूल्य में इसका आयात किया गया। अब
इसका उपयोग शिक्षा क्षेत्र में भी व्यापक रूप में विशाल पैमाने
पर किया जा रहा है।
कम्प्यूटर खुद गणना करके दुरूह समस्याओं का निपटारा
चन्द मिनटों में कर रहा है।
कम्प्यूटर क्या है ?-कम्प्यूटर एक यान्त्रिक मस्तिष्क है,
जिसमें अनेक प्रकार के गणित विषयक सूत्रों एवं तथ्यों का
संचालन कार्यक्रम पहले से ही सम्पादित कर देना पड़ता है।
कम्प्यूटर बहुत ही अल्पावधि में गणना करके तथ्यों को नेत्रपटल
के समक्ष उपस्थित कर देता है।
कम्प्यूटर के विविध प्रयोग
(1) औद्योगिक क्षेत्र में मशीनों तथा कारखानों का संचालन
करने के लिए कम्प्यूटर को प्रयोग में लाया जा रहा है। इससे
विविध प्रकार के कार्य किये जा रहे हैं।
(2) सूचना एवं समाचार के सन्दर्भ में-सूचना एवं
समाचार प्रेषण के सन्दर्भ में भी कम्प्यूटर महती सेवा कर रहा है।
‘कम्प्यूटर नेटवर्क’ के द्वारा विश्व भर के नगर एक-दूसरे से एक
परिवार की भाँति जुड़ गये हैं।
(3) बैंकिंग के क्षेत्र में बैंकों में हिसाब-किताब रखने के
लिए कम्प्यूटर का पर्याप्त मात्रा में प्रयोग हो रहा है। यही नहीं, घर
के कम्प्यूटरों को बैंकों के कम्प्यूटरों से सम्बद्ध कर दिया जाता है।
(4) विज्ञान के क्षेत्र में आज अन्तरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र
में कम्प्यूटर राम बाण सिद्ध हुआ है। इसके द्वारा अन्तरिक्ष के
विशाल पैमाने पर चित्र एकत्र किये जा रहे हैं।
आज जिन्दगी का कोई भी ऐसा पहलू शेष नहीं बचा है
जिसमें कम्प्यूटर का प्रयोग नहीं हो रहा हो। इससे वायुयानों
तथा रेलों में आरक्षण सम्पन्न किया जा रहा है। चाहे चिकित्सा
हो, चुनाव हो, युद्ध का मैदान हो एवं मौसम विषयक जानकारी
हासिल करनी हो, कम्प्यूटर एक स्वाभाविक सेवक की भाँति
आपकी प्रतिपल सेवा करने को उद्यत है।
यद्यपि कम्प्यूटर मानव मस्तिष्क की तुलना में कार्य को
बहुत कम समय में सम्पन्न कर लेता है, परन्तु यह यंत्र मात्र है।
अतः इसमें मानवीय भावनाओं, विचारों तथा संवेगों का नितान्त
अभाव रहता है।
उपसंहार-आज भारतवर्ष में एक प्रकार से कम्प्यूटर युग
का आगमन हो गया है। भविष्य में व्यवहार, दोस्ती, मिलन
तथा आपसी शिष्टाचार का ढंग भी हमें कम्प्यूटर प्रदान करेगा।
आवश्यकता इस बात की है कि हम उसे अपना सहयोगी समझकर
अपनाएँ। इसके सहयोग से देश विज्ञान, उद्योग, कृषि, संचार
आदि सभी क्षेत्रों में आगे बढ़ेगा, विश्व में अपना गौरव बढ़ाएगा।
5. समाचार-पत्र
अथवा
समाचार पत्रों का महत्त्व
रूपरेखा-(1) प्रस्तावना, (2) समाचार-पत्रों का इतिहास,
(3) समाचार-पत्रों के प्रकार, (4) समाचार-पत्रों की उपयोगिता,
(5) दुरुपयोग से हानियाँ, (6) उपसंहार।
प्रस्तावना-विज्ञान के आविष्कारों ने आज मानव को
विश्वव्यापी दायरे में खड़ा कर दिया है। इसीलिए संसार को
जानने के लिए मानव प्रतिपल लालायित रहता है। प्रात:काल
निद्रा त्यागने पर सबसे प्रथम समाचार जानने की अभिलाषा तीव्र
हो उठती है। दरवाजे की ओर प्रतिपल निगाहें लगी रहती हैं कि
कब अखबार देने वाला आए तथा अखबार डाले। उसकी आवाज
जागृति का सन्देश देने वाले के समकक्ष लगती है।
समाचार-पत्रों का इतिहास-समाचार-पत्रों का इतिहास
बहुत पुराना है। संसार का प्रथम समाचार-पत्र सोलहवीं शताब्दी
के प्रारम्भ में इटली के वेनिस नगर में प्रकाशित हुआ था। सत्रहवीं
शताब्दी में समाचार-पत्रों के महत्त्व को इंग्लैण्ड ने जाना तथा
इनको प्रारम्भ कर दिया। भारत में समाचार-पत्रों का प्रारम्भ
मुगलकाल में ‘अखबारात-इ-मुअल्ले’ नामक अखबार से
हुआ। हिन्दी में सबसे पहला समाचार-पत्र ‘उदन्त मार्तण्ड’
कलकत्ता से प्रकाशित होना प्रारम्भ हुआ। समाज-सुधारक राजा
राममोहन राय, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर आदि ने इस दिशा में विशेष
सहयोग किया। निरन्तर विकसित समाचार-पत्र आज जीवन का
आवश्यक अंग बन गया है।

मासिक, त्रैमासिक, पदमासिक, वार्षिक आदि प्रकार हैं।
समाचार-पत्रों के प्रकार- आज समाचार-पत्रों के विविध
प्रकार हैं। समयावधि के आधार पर दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक,
के आधार पर स्थानीय, प्रादेशिक, राष्ट्रीय तथा अन्तराष्ट्रीय
समाचार-पत्र होते हैं। विषय के आधार पर हम उन्हें मनीरजक,
साहित्यिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनीतिक आदि।
। स्थान
प्रकारों में विभाजित कर सकते हैं।
समाचार-पत्रों की उपयोगिता-समाचार-पत्र मानव के
सर्वांगीण विकास का सशक्त माध्यम है। इसक द्वारा संसार
भर की घटनाओं, स्थितियों तथा प्रगतियों की जानकारी प्राप्त
होती है। विचार शक्ति बढ़ती है। आज राजनीतिक, सामाजिक,
सांस्कृतिक सभी प्रकार की चेतना के आधार समाचार पत्र है।
पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित कहानियाँ, कविताएँ, निबन्ध आदि
मनोरंजन के साथ-साथ हमारे ज्ञान की वृद्धि करते हैं। सामाजिक
परिवर्तन, परिवर्द्धन की जानकारी भी समाचार-पत्रों के माध्यम
से समय-समय पर प्राप्त होती है। हम स्वयं को उसी के अनुरूप
विकसित रख सकते हैं। इस प्रकार समाचार-पत्र ज्ञानवर्द्धन,
समाज-सुधार, मनोरंजन, विज्ञापन आदि अनेक प्रकार से उपयोगी
हैं। बीचर के अनुसार, “समाचार-पत्र साधारण जनता के
शिक्षक हैं।”
दुरुपयोग से हानियाँ-राष्ट्र को शिक्षा देने वाले इन
समाचार-पत्रों सम्पादकों का विशेष उत्तरदायित्व है। यदि
वे नियन्त्रण रहित होकर प्रकाशन करेंगे तो समाज अफवाह,
अश्लीलता, कुरीति, आतंक, भ्रष्टाचार आदि से ग्रस्त हो जायेगा।
इसके परिणामस्वरूप राष्ट्र, समाज तथा मानव विनाश की ओर
अग्रसर होंगे। यदि दुराचारों को महत्त्व देते हुए प्रकाशित किया।
जायेगा या दुराचार को किसी प्रकार का संरक्षण देने का भाव
रहेगा, तो समाचार-पत्र बेईमानी करके अपनी विश्वसनीयता का
दुरुपयोग करेगा।
उपसंहार-स्वाधीनता आन्दोलन में समाचार-पत्रों ने जिस
भूमिका का निर्वाह किया, वह प्रशंसनीय है। ये हमें विश्व के
साथ सम्बद्ध करते हैं। जनता की पीड़ा को वाणी देते हैं। शासन
की निरंकुशता पर अंकुश लगाते हैं। जागृति तथा ज्ञान की
पारावार लहराते हैं।
सृजनात्मक भाव से देश तथा समाज का कल्याण चाहने
वाले समाचार-पत्र ही मानव जाति के सच्चे हितैषी हो सकेंगे। वे
ही समाज तथा राष्ट्र की दृढ़ आधारशिला रखेंगे।

6. विज्ञान के चमत्कार
अथवा
विज्ञान के बढ़ते चरम
आवश्यकता।
रूपरेखा-(1) प्रस्तावना-विज्ञान से अभिप्राय,(2) विज्ञान
(5) व्यवसाय, (6) मनोरंजन, (7) चिकित्सा, (8) विज्ञान का
की व्यापकता, (3) विज्ञान के अनेक उपयोग, (4) यातायात,
विनाशकारी रूप, (9) उपसंहार-विज्ञान के सदुपयोग की
प्रस्तावना-आज जल, थल तथा नभ में विज्ञान की पताका
लहरा रहा है। जीवन तथा विज्ञान एक-दूसरे के पर्याय बन गए
हैं। विज्ञान से मानव को असीमित शक्ति मिली है। आज वह
आकाश में पक्षी की भाँति विहार कर सकता है। पर्वतों को लाँच
सकता है तथा सागर की छाती को चीरकर जलयान द्वारा अपने
उत्थान पर इठला सकता है। प्रकृति को उसने अपनी दासी बना
लिया है। दूरियाँ सिमट कर रह गई हैं। सम्पूर्ण विश्व एक परिवार
के सदश हो गया है। काल की छाती पर करारा घूसा मारकर
विज्ञान मन्द-मन्द गति से मुस्करा रहा है।
विज्ञान की व्यापकता-विज्ञान की व्यापकता सभी क्षेत्रों
में हुई है। विश्व के देशों में आगे बढ़ने की परस्पर होड़ लगी
है। यही कारण है कि हमारी इच्छाएँ तथा आराम की सीमाएँ
भी बढ़ती जा रही हैं। भोजन, आवास, यातायात, चिकित्सा,
मनोरंजन, कृषि, युद्ध, उद्योग आदि सभी क्षेत्र विज्ञान से प्रभावित
हैं। आधुनिक युग में विज्ञान के बिना मानव के अस्तित्व को
कल्पना भी असम्भव प्रतीत होती है। विज्ञान की सहायता से
मनुष्य भौतिक शक्तियों पर विजय प्राप्त कर रहा है और प्रकृति के
गूढ़ रहस्यों को प्रकाश में ला रहा है। आकाश में उड़ते हुए विमान,
चन्द्रयान उसका यशगान करते हैं। समुद्र की छाती पर तीव्र
गति से तैरते हुए जलयान और पनडुब्बियाँ उसकी कीर्ति-पताका
फहराते प्रतीत होते हैं।
विज्ञान के अनेक उपयोग-ईंधन, उपकरण आदि ऐसे
साधन विज्ञान ने दिये हैं कि जीवन बहुत सक्रिय हो गया है।
बिजली द्वारा संचालित पंखे, बल्ब, हीटर, कूलर आदि साधन
प्राप्त हैं। अब तो विद्युत् से झाड़ लगाना, कपड़े धोना, सुखाना
और प्रेस करना आदि भी सम्भव है। कम्प्यूटर
मस्तिष्क का कार्यभार संभाल लिया है।
यातायात-विज्ञान ने मानव-जीवन में दूरियों को नजदीकी
ने मनुष्य
के
में बदल दिया है। मानव जिस दूरी पर अपार जन-धन की हानि
के बाद वर्षों में पहुँच पाता था, आज उसे अल्प समय में ही
तय कर सकता है। साइकिल, स्कूटर, कार, मोटर, रेलगाड़ी,
हवाई जहाज और रॉकेट जैसे वाहन आज मनुष्य के पास है। वह
चन्द्रमा का भ्रमण कर चुका है और अन्य ग्रहों पर जाने की तैयारी
व्यवसाय-विज्ञान ने कृषि, उद्योगों, कल-कारखानों आदि
का असीमित विकास किया है। कृषि को विकसित बना दिया है।
विज्ञान के द्वारा तैयार इस्पात, खाद उपकरण, खाद्य पदार्थ, वस्त्र,
वाहन आदि बनाने के असीमित कारखाने हैं। लघु एवं कुटीर
उद्योगों में भी विज्ञान की सहायता से पर्याप्त विकास हुआ है।
मनोरंजन-मनुष्य को श्रम करके थकने के बाद मनोरंजन
की आवश्यकता होती है। आज रेडियो, टेपरिकॉर्डर, वी. सी. आर.,
टेलीविजन, सिनेमा आदि वैज्ञानिक साधन मनुष्य के मनोरंजन के
लिए हर समय तैयार हैं। मनोरंजन के साथ-साथ इनसे विभिन्न
स्थानों, विषयों, संस्कृतियों, कार्यक्रमों आदि का ज्ञान भी प्राप्त
होता है। इनसे दूर स्थित कार्यक्रम घर बैठे ही देखे सुने जा
सकते हैं।
चिकित्सा-औषधि विज्ञान और शल्य विज्ञान आज इतना
विकसित हो गया है कि शरीर के अन्दर के प्रत्येक रोग को
एक्स-रे आदि द्वारा पता कर सकते हैं। वैज्ञानिक साधनों से कैंसर
जैसे दुस्साध्य रोगों का उपचार सम्भव हो गया है। परखनली द्वारा
शिशु को जन्म देकर विज्ञान आज जीवनदाता बन गया है।
विज्ञान का विनाशकारी रूप-विज्ञान ने युद्ध के क्षेत्र में
बहुत अधिक प्रगति की है। हम ऐसे हथियारों को तैयार करके बैठे
हैं जिनसे वर्तमान की वनस्पतियाँ और मनुष्य ही नष्ट नहीं होंगे,
आगे आने वाली सन्तानें भी विकलांग पैदा होंगी। वैज्ञानिक अस्त्रों
के आविष्कारों के कारण मनुष्य का अस्तित्व ही खतरे में पड़
गया है। हाइड्रोजन या एटम बमों की सहायता से आज संसार को
पल भर में नष्ट किया जा सकता है। आज समस्त विश्व विज्ञान
के भय से प्रकम्पित है।
उपसंहार-अन्त में कहा जा सकता है कि विज्ञान ने दोनों
प्रकार की वस्तुएँ प्रदान की हैं-संरचनात्मक और विनाशात्मक।
आज वैज्ञानिकों, राजनीतिज्ञों तथा समाजसेवियों का कर्तव्य है
कि वे विज्ञान के उपयोगी स्वरूप को ही महत्व दें। अन्तरिक्ष की
खोज के लिए विज्ञान का प्रयोग हो, परस्पर लड़ने हेतु नहीं। अब
आवश्यक है कि विज्ञान की ऐसी उपलब्धियाँ हों जो मनुष्य में
आत्मसन्तोष, धैर्य आदि की वृद्धि कर सकें। इस दिशा में विज्ञान
को सक्रिय होना चाहिए। स्थान की दूरी कम करने के साथ ही
मानव हृदयों की दूरी भी कम करना आवश्यक है। तभी ‘वसुधैव
कुटुम्बकम्’ की स्थापना हो सकेगी और तब यह विज्ञान की
महान् उपलब्धि होगी।

7. अनुशासन
अथवा
विद्यार्थी और अनुशासन
रूपरेखा-(1) प्रस्तावना, (2) अनुशासन का महत्त्व,
(3) विद्यार्थी और अनुशासन, (4) अनुशासन की शिक्षा,
(5) अनुशासन के लाभ, (6) अनुशासनहीनता एक अभिशाप,
(7) अनुशासन की आवश्यकता, (8) उपसंहार।
प्रस्तावना-‘अनुशासन’ शब्द का अर्थ है-नियम के पीछे
चलना। अनुशासन का अर्थ परतन्त्रता कदापि नहीं है। समय,
स्थान तथा परिस्थितियों के अनुरूप सामान्य नियमों का पालन
करना ही अनुशासन कहलाता है। अनुशासन मानव जीवन का
आधार है।
अनुशासन का महत्त्व-अनुशासन का जीवन में विशेष
महत्त्व है। समस्त प्रकृति एक अनुशासन में बँधकर चलती है,
इसलिए उसके किसी भी क्रियाकलाप में बाधा नहीं आती है।
दिन-रात नियमित रूप से आते रहते हैं। इससे स्पष्ट है कि
अनुशासन के द्वारा ही जीवन को सार्थक बनाया जा सकता है।
अनुशासन से भटक जाने पर व्यक्ति चरित्रहीन, दुराचारी तथा
निन्दनीय हो जाता है। समाज में उसका कोई सम्मान नहीं रहता
है।
विद्यार्थी और अनुशासन-विद्यार्थी जीवन मनुष्य के भावी
जीवन की आधारशिला है। विद्यार्थी अनुशासन में रहकर ही
स्वास्थ्य, शिक्षा, व्यवहार तथा आचार ग्रहण कर सकता है।
नियमित रूप से अध्ययन करना, विद्यालय जाना, व्यायाम करना,
गुरुजनों से सद्व्यवहार करना ही विद्यार्थी जीवन का अनुशासन
है।
अनुशासन की शिक्षा-बच्चे का प्रथम सम्पर्क अपने
माता-पिता तथा परिवार से होता है। अन्य प्रकार की शिक्षा के
समान अनुशासन की शिक्षा भी बच्चे को यहीं से प्राप्त होती है।
इसके बाद विद्यालय तथा बाह्य समाज से अनुशासन की शिक्षा
मिलती है। अनुशासन का पालन आत्म-नियन्त्रण तथा भय से
होता है। आत्म-नियन्त्रण से होने वाला अनुशासन स्थिर माना
गया है। इसकी शिक्षा संस्कारों से मिलती है। दूसरे प्रकार का
अनुशासन बाहर के आतंक के कारण होता है। यह शासन चलाने
का प्रकार है, अनुशासन का नहीं।
अनुशासन के लाभ-अनुशासन के द्वारा ही सफल
जीवन-यापन किया जा सकता है। अध्ययन, व्यवहार, खेलकूद,
व्यायाम, शासन आदि आत्मानुशासन के उपकरण हैं। इन्हीं के द्वारा
तन तथा मन स्वस्थ रहते हैं, अनुशासन के कारण ही मनुष्य उच्च
आदर्शों की ओर बढ़ता है। अनुशासन के द्वारा हा ज्ञान प्राप्ति
सम्भव है। पवित्र मन तथा बुद्धि से ही ज्ञान का सचार होता है।
चरित्र के निर्माण में अनुशासन का विशेष योग रहता है।
अनुशासनहीनता एक अभिशाप-अनुशासनहीनता एक
अभिशाप है। यह समाज को नष्ट कर देती है। दुभाग्यवश आज
अनुशासनहीनता बढ़ रही है। विद्यालय, छात्रावास, बाजार, घर,
समाज आदि सभी में अनुशासन का अभाव दिखाया पड़ता है।
धर्म तथा समाज के नियन्त्रण समाप्त हो रहे हैं। साथ ही शासन
का प्रभुत्व भी घट रहा है। प्रशासन में अधिकारी, कर्मचारी आदि
स्वयं ही अनुशासनहीन हो गये हैं।
अनुशासन की आवश्यकता-अनुशासन म रहकर ही
शक्ति का संचार होता है जो राष्ट्र जितना अधिक अनुशासित
होता है, वह उतना ही अधिक विकास कर पाता है। अनुशासित
कल-कारखाने, विद्यालय, कृषि, मजदूरी, नौकरी आदि सभी के
द्वारा ही देश तथा समाज को सुखी एवं सम्पन्न बनाया जा सकता
है। दूसरे राष्ट्रों से सुरक्षित रहने के लिए भी अनुशासन आवश्यक
है। सेना अनुशासन में रहकर ही युद्ध कर पाती है, विद्यार्थी
अनुशासन में रहकर ही ज्ञान प्राप्त कर पाता है तथा व्यापारी एवं
उद्योगपति भी अनुशासन का पालन करके ही अपना उत्तरदायित्व
निभा पाता है।
उपसंहार-बिना अनुशासन के मानव-जीवन का कोई भी
क्रिया-कलाप नहीं चल सकता है। विद्यार्थी जीवन तो इसकी धुरी
है। छात्रों के भविष्य को अनुशासन भव्य तथा मंगलमय बनाता
है। अनुशासनप्रिय छात्र सफलता को प्राप्त होता है। सफलता
अथवा असफलता का मापदण्ड अनुशासन है। ये दैनिक जीवन
को व्यवस्थित करता है। गुणों का बीजारोपण करने वाला है।
सद्भावना का विस्तार करके विश्व जीवन को भव्यता प्रदान
करता है। अनुशासनमय जीवन ही महान् जीवन का परिचायक
है।
8. भारतीय नारी
रूपरेखा-(1) प्रस्तावना, (2) प्राचीन भारत में नारी,
(3) मध्यकाल में नारी की स्थिति, (4) आधुनिक नारी,
(5) उपसंहार।
प्रस्तावना- “मैं कवि की कविता कामिनी हूँ,
मैं चित्रकार का रुचिर चित्र।
मैं जगत-नाट्य की रसाधार,
अभिलाषा मानव की विचित्र॥”
ब्रह्मा के पश्चात् इस भूतल पर मानव को अवतरित करने
वाली नारी का स्थान सर्वोपरि है। माँ, बहिन, पुत्री एवं पत्नी के
रूपों में वह देती ही है। वह ही मानव का समाज से सम्बन्ध
स्थापित करने वाली है, किन्तु दुर्भाग्य यह रहा है कि इस जगत
धात्री को समुचित सम्मान न देकर पुरुष ने प्रारम्भ से अपने
वशीभूत रखने का प्रयत्न किया।
प्राचीन भारत में नारी-प्राचीन काल में नारी की स्थिति
अच्छी थी। वैदिककाल में नारी का सम्मानजनक स्थान था।
रोमशा, लोपामुद्रा आदि नारियों ने बाग्वेद के सूक्तों को रचा, तो
कैकेयी, मन्दोदरी आदि की वीरता एवं विवेकशीलता विख्यात
है। सीता, अनुसुइया, सुलोचना आदि के आदर्शों को आज भी
स्वीकार किया जाता है। महाभारत काल की गान्धारी, कुन्ती,
द्रौपदी के महत्त्व को भुलाया नहीं जा सकता है। उस काल में
नारी वन्दनीय रही-
“यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता।”
मध्यकाल में नारी की स्थिति-मध्यकाल नारी के लिए
अभिशाप बनकर आया। मुगलों के आक्रमणों के फलस्वरूप
नारी की करुण कहानी का प्रारम्भ हुआ। मुगल शासकों की
कामुकता ने उसे भोग की वस्तु बना दिया। वह घर की सीमाओं
में ही बन्दी बनकर रह गयी थी। वह पुरुष पर आश्रित होकर
अबला बन गयी थी-
“अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी।
आँचल में है दूध और आँखों में पानी।”
भक्तिकाल में भी नारी को समुचित सम्मान न मिल सका।
सीता, राधा आदि के आदर्श रूपों के अतिरिक्त नारियों को
कबीर, तुलसी आदि कवियों ने नागिन, भस्म करने वाली तथा
पतन की ओर ले जाने वाली माना। रीतिकाल में तो वह पुरुष के
हाथों का खिलौना बनकर रह गयी।
आधुनिक नारी-आधुनिक काल नारी चेतना तथा नारी
उद्धार का काल रहा है। राजा राममोहन राय, महर्षि दयानन्द,
महात्मा गाँधी आदि ने नारी को गरिमामय बनाने का सफल प्रयास
किया। कविवर पन्त के शब्दों में जन-मन ने कहा-
“मुक्त करो नारी को मानव, चिर वन्दिनि नारी को।
युग-युग की निर्मम कारा से, जननि, सखी, प्यारी को॥”
वस्तुतः स्त्री तथा पुरुष जीवन-रथ के दो पहिए हैं। नारी
तथा पुरुष का एकत्व सार्थक मानव जीवन का आदर्श है। अत:
उसे वन्दिनि मानना भूल है।
उपसंहार-नारी पराधीनता से मुक्त होकर आज पुनः अपनी
प्रतिष्ठा एवं गरिमा को पा रही है। पाश्चात्य प्रभाव के कारण
नारी समाज के एक वर्ग में विलासिता की भावना अवश्य बढ़ी
है, किन्तु वह दिन दूर नहीं जब वह सद्मार्ग पर आ जायेगी। वह
हिन्दी | 129
अपने रूप को वरण करेगी। वस्तुत: नारी मानवता की प्रतिमूर्ति,
“मानवता की मूर्तिवती तू भव्य-भाव-भूषण-भण्डार।
दया-क्षमा-ममता की आकार विश्व प्रेम की है आधार॥”
9.बेरोजगारी की समस्या एवं समाधान
रूपरेखा-(1) प्रस्तावना, (2) बेरोजगारी के प्रमुख कारण,
(3) बेरोजगारी के प्रकार, (4) बेरोजगारी के परिणाम, (5) समस्या
के समाधान हेतु सुझाव, (6) उपसंहार।
प्रस्तावना-आज देश के कर्णधार, मनीषी तथा
समाज-सुधारक न जाने कितनी समस्याओं की चर्चा करते हैं,
परन्तु सारी समस्याओं की जननी बेरोजगारी है। इसी की कोख
से भ्रष्टाचार, अनुशासनहीनता, चोरी, डकैती तथा अनैतिकता का
विस्तार होता है। बेकारों का जीवन अभिशाप की लपटों से घिरा
है। यह समस्या अन्य समस्याओं को भी जन्म दे रही है। चारित्रिक
पतन, सामाजिक अपराध, मानसिक शिथिलता, शारीरिक क्षीणता
आदि दोष बेकारी के ही परिणाम हैं।
बेरोजगारी के प्रमुख कारण-बेरोजगारी के विभिन्न
कारणों में से प्रमुख निम्न प्रकार हैं-
(1) जनसंख्या वृद्धि-विगत वर्षों में भारत की जनसंख्या
तीव्र गति से बढ़ी है। यही कारण है कि पंचवर्षीय योजनाओं के
अन्तर्गत रोजगार के अनेक साधनों के उपलब्ध होने के बावजूद
बेरोजगारी का अन्त नहीं हो सका है।
(2) लघु एवं कुटीर उद्योग-धन्धों का अभाव-ब्रिटिश
सरकार की नीति के कारण देश में लघु एवं कुटीर उद्योगों में
समुचित प्रगति नहीं हुई है। काफी उद्योग बन्द हो गए हैं। फलत:
इन धन्धों में लगे हुए व्यक्ति बेकार हो गए हैं, नए रोजगार नहीं
पा रहे हैं।
(3) औद्योगीकरण का अभाव-स्वतन्त्रता प्राप्ति के
पश्चात् देश में बड़े उद्योगों का विकास हुआ, परन्तु लघु उद्योगों
की उपेक्षा रही। फलस्वरूप यन्त्रों ने मनुष्य का स्थान ले लिया।
(4) दूषित शिक्षा प्रणाली-लिपिक बनाने वाली भारतीय
शिक्षा प्रणाली में शारीरिक श्रम का कोई महत्व नहीं है। शिक्षित
वर्ग के मन में शारीरिक श्रम के प्रति घृणा उत्पन्न होने से बेकारी
में वृद्धि होती है। शिक्षित व्यक्ति स्वयं को समाज के अन्य
व्यवितयों से बड़ा मानकर काम करने में कतराता है। वह शासन
करने वाली नौकरी की तलाश में रहता है, जो उसे प्राप्त नहीं हो
पाती है।
(5) पूँजी का अभाव-देश में पूँजी का अभाव है। इसलिए
उत्पादन में वृद्धि न होने से भी बेकारी बढ़ रही है।
6) कुशल एवं प्रशिक्षित श्रमिकों का अभाव-दीक्षा
विद्यालयों एवं कारखानों की कमी के कारण देश में कुशल
एवं प्रशिक्षित श्रमिकों का अभाव है। इसलिए कुशल कर्मचारी
विदेशों से भी बुलाने पड़ते हैं, इससे बेरोजगारी बढ़ती है।
बेरोजगारी के प्रकार भारत में बेरोजगारी के दो प्रकार
(अ) ग्रामीण बेरोजगारी-इस श्रेणी में अशिक्षित एवं
निर्धन कृषक और ग्रामीण मजदूर आते हैं, जो प्रायः वर्ष में
5 माह से लेकर 9 माह तक बेरोजगार रहते हैं।
(ब) शिक्षित बेरोजगारी-शिक्षा प्राप्त करके बड़ी-बड़ी
उपाधियों को लेकर अनेक सरस्वती के वरद् पुत्र और पुत्रियाँ
बेकार दृष्टिगोचर होते हैं। इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा।
बेरोजगारी के परिणाम-भारत में ग्रामीण तथा नगरीय स्तर
पर बढ़ती हुई बेरोजगारी की समस्या से देश में शान्ति-व्यवस्था
आदि को भयंकर खतरा उत्पन्न हो गया है। उसे रोकने के लिए
यदि समायोजित कदम नहीं उठाया गया, तो भारी उथल-पुथल
का भय है।
समस्या के समाधान हेतु सुझाव-समस्या के समाधान हेतु
कुछ सुझाव निम्नलिखित हैं-
(1) जनसंख्या पर नियन्त्रण-जनसंख्या की वृद्धि को
रोकने के लिए पंचवर्षीय योजनाओं में परिवार कल्याण को
अधिक-से-अधिक प्रभावशाली बनाया जाये।
(2) लघु एवं कुटीर उद्योग का विकास-उद्योगों के
केन्द्रीकरण को प्रोत्साहन न देकर, गाँवों में लघु और कुटीर
उद्योग-धन्धों का विकास करना चाहिए। कम पूँजी से लगने वाले
ये उद्योग ग्रामों तथा नगरों में रोजगार देंगे। इन उद्योगों का बड़े
उद्योगों से तालमेल करना भी आवश्यक है।
(3) बचत एवं विनियोग की दर में वृद्धि-प्रो. कीन्स
के अनुसार, “पूर्ण रोजगार की समस्या देश में बचत एवं
विनियोग की दर से परस्पर सम्बन्धित है।” अत: देश में घरेलू
बचत एवं विनियोग की दर में वृद्धि करके भी बेरोजगारी की
समस्या को हल किया जा सकता है।
(4) शिक्षा प्रणाली में परिवर्तन-आज की शिक्षा प्रणाली
में आमूल-चूल परिवर्तन करके पाठ्यक्रम में अध्ययन के
साथ तकनीकी और व्यावहारिक ज्ञान पर बल देना आवश्यक
है। इससे छात्र श्रम के महत्त्व को समझ सकें और रोजगार
पा सकें।
(5) कृषि में स्पर्द्धा-कृषकों में कृषि प्रणाली का सुधार
करके अधिकाधिक खाद्य-सामग्री पैदा करने की स्पर्धा उत्पन्न
करनी चाहिए। उन्हें उन्नत बीज, पूँजी, अच्छे हल-बैल तथा अन्य
आधुनिक मशीनें और सुविधाएँ देनी चाहिए।
उपसंहार-देश की वर्तमान परिस्थितियों में बेरोजगारी
की समस्या को दूर करने के लिए व्यक्तिगत और सामूहिक
दोनों प्रकार के प्रयास होने चाहिए। प्रसन्नता का विषय है कि
भारत सरकार इस समस्या के प्रति पूर्णरूपण जागरूक है।
लघु एवं विशाल उद्योग-धन्धों की स्थापना इस दिशा में
सक्रिय कदम है। शिक्षा को रोजगार से सम्बद्ध किया जा रहा
एक
है। स्वरोजगार योजना के अन्तर्गत युवकों को ऋण दिया जा रहा
है। कुटीर उद्योग-धन्धों को प्रोत्साहन देना होगा। जनसंख्या की
वृद्धि पर रोक लगेगी तभी बेरोजगारी की समस्या का समाधान
सम्भव है।
10. पर्यावरण संरक्षण
अथवा
प्रदूषण समस्या
रूपरेखा-(1) प्रस्तावना, (2) वैज्ञानिक प्रगति और
प्रदूषण, (3) औद्योगिक प्रदूषण, (4) प्रदूषण का घातक प्रभाव,
(5) पर्यावरण शुद्धि, (6) उपसंहार ।
प्रस्तावना-ईश्वर ने प्रकृति की गोद में उज्ज्वल प्रकाश,
निर्मल जल और स्वच्छ वायु का वरदान दिया है। प्रकृति पर
अपना आधिपत्य जमाने की धुन में वैज्ञानिक प्रगति के नाम पर
प्रकृति को स्वामिनी के महत्त्वपूर्ण पद से हटाकर सेविका के
स्थान पर प्रतिष्ठित कर दिया। प्रकृति की गोद में विकसित होने
वाले प्रसून, सुन्दर लताएँ, हरे-भरे वृक्ष तथा चहचहाते विहंग
अब उसके आकर्षण के केन्द्र-बिन्दु नहीं रहे। प्रकृति का उन्मुक्त
वातावरण अतीत के गर्भ में विलीन हो गया। मानव मन को
जिज्ञासा और नयी-नयी खोजों की अभिलाषा ने प्रकृति के सहज
कार्यों में हस्तक्षेप करना प्रारम्भ किया है। अतः पर्यावरण में
प्रदूषण होता जा रहा है। यह प्रदूषण मुख्यत: तीन रूपों में दिखायी
देता है-
(1) ध्वनि प्रदूषण, (2) वायु प्रदूषण, (3) जल प्रदूषण ।
वैज्ञानिक प्रगति और प्रदूषण-वैज्ञानिक प्रगति के नाम
पर मनुष्य ने प्रकृति के सहज-स्वाभाविक रूप को विकृत करने
का प्रयास किया है। इससे पर्यावरण में अनेक प्रकार से प्रदूषण
हुआ है और प्राणीमात्र के लिए यह किसी भी प्रकार हितकर नहीं है।
पर्यावरण एक व्यापक शब्द है, जिसका सामान्य अर्थ है-प्रकृति
द्वारा प्रदान किया गया समस्त भौतिक और सामाजिक वातावरण।
इसके अन्तर्गत जल, वायु, भूमि, पेड़-पौधे, पर्वत तथा प्राकृतिक
सम्पदा और परिस्थितियाँ आदि का समावेश होता है।
औद्योगिक प्रदूषण-मानव ने खनिज और कच्चे माल के
लिए खानों की खुदाई की, धातुओं को गलाने के लिए कोयले
की भट्टियाँ जलायीं तथा कारखानों को स्थापना करके चिमनियों
में ढेर सारा धुआँ आकाश में पहुँचाकर वायुमण्डल को प्रदूषित
किया। फर्नीचर और भवन-निर्माण के लिए, उद्योगों और ईंधन
आदि के लिए जंगलों की कटाई करके स्वच्छ वायु का अभाव
उत्पन्न कर दिया। इससे भूमिक्षरण और भूस्खलन होने लगा तथा
नदियों के जल से बाढ़ की स्थिति उत्पन हुई। कल-कारखानों
और शोधक कारखानों के अवशिष्ट गन्दे नालों में बहकर पवित्र
नदियों के जल को दूषित करने लगे। विज्ञान निर्मित तेज गति के
वाहनों को दूषित धुआँ तथा तीव्र ध्वनि से बजने वाले हॉर्न और
साइरनों की कर्ण भेदी ध्वनि से वातावरण प्रदूषित होने लगा।
कृषि में रासायनिक खादों के प्रयोग से अनेक प्रकार के रोगों
और विषैले प्रभावों को जन्म मिला। इस प्रकार वैज्ञानिक प्रगति
पर्यावरण प्रदूषण में सहायक बनी।
प्रदूषण का घातक प्रभाव-आधुनिक युग में सम्पूर्ण
संसार पर्यावरण के प्रदूषण से पीड़ित है। हर साँस के साथ इसका
जहर शरीर में प्रवेश पाता है और तरह-तरह की विकृतियाँ पनपती
जा रही हैं। इस सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता है कि
प्रदूषण की इस बढ़ती हुई गति से एक दिन यह पृथ्वी प्राणी तथा
वनस्पतियों से विहीन हो सकती है और सभ्यता तथा प्रगति एक
बीती हुई कहानी बनकर रह जायेगी।
पर्यावरण शुद्धि-दिनों-दिन बढ़ने वाले प्रदूषण की
आपदा से बचाव का मार्ग खोजना आज की महती आवश्यकता
है। इसके लिए सबका सम्मिलित प्रयास अपेक्षित है। वृक्षों की
रक्षा करके इस महान् संकट से छुटकारा पाया जा सकता है। ये
हानिकारक गैसों के प्रभाव को नष्ट करके प्राण-वायु प्रदान करते
हैं, भूमि के क्षरण को रोकते हैं, जल संग्रहण में सहायता करते हैं
और पर्यावरण को शुद्धता प्रदान करते हैं।
उपसंहार-पर्यावरण को सुरक्षा और उचित सन्तुलन के
लिए हमें जागरूक और सचेत होना परम आवश्यक है। वायु,
जल, ध्वनि तथा पृथ्वी के प्रत्येक प्रकार के प्रदूषण को नियन्त्रित
कर धीरे-धीरे उसे समाप्त करना आज के युग की पुकार है।
11.रुपये की आत्मकथा
रूपरेखा-(1) प्रस्तावना, (2) मेरा जन्म, (3) मेरा
परिसंस्कार एवं यात्रा-चक्र, (4) मेरी महिमा, (5) उपसहार।
प्रस्तावना-मैं रुपया अर्थात् रूपवान किसको प्रिय नहीं हूँ।
छोटे से परन्तु सन्तुलित एव सुदृढ़ आकार वाला, स्वरूप परिवर्तन
का शौकीन मैं किसी को महत्त्व नहीं देता हूँ। यदि में स्वयं से
हिन्दी। 131
महान् खोजूं भी तो, है कहाँ ? सभी मेरे भक्त हैं, याचक हैं,
सेवक हैं। मेरे कारण प्राचीन-से-प्राचीन परम्परा, बड़े-से-बड़े
जीवन मूल्य, घनिष्ठ-से-घनिष्ठ सम्बन्ध ताक पर रख दिये जाते
हैं। संसार भर में मनुष्य मुझसे साक्षात्कार करने में अपना जीवन
तक गँवा रहे हैं। उनमें से काफी मुझ तक आने से पूर्व ही विश्व
से विदा ले लेते हैं। इस प्रकार मेरा प्रभाव अत्यन्त व्यापक है।
मेरा जन्म-इस जगत् में आने से पूर्व मैंने बड़ी साधना की
है। वर्षों तक पृथ्वी के गर्भ में छिपा रहकर मैंने कठिन यातनाएँ
सहीं। मेरा अन्तर्मन बाहर की खुली हवा में आने को लालायित
था, किन्तु किसी ने मेरी नहीं सुनी। संयोग से एक भूचाल ने
मेरी चिर इच्छा की पूर्ति की और मैं भू-गर्भ से बाहर वैज्ञानिकों
के हाथों पड़कर नए-नए रूप पाने लगा। मेरे रत्न, हीरा, सोना,
चाँदी आदि नामकरण हुए। मेरे चारों ओर पहरे रहते तथा युवराज
की भाँति मेरी देखभाल की जाती रही। शोधन, परिशोधन को
प्रतिक्रियाओं को पार करके आए, मुझमें निष्ठुरता पर्याप्त मात्रा
में बढ़ गयी थी।
मेरा परिसंस्कार एवं यात्रा चक्र-धरती पर आने के बाद
जब मैंने सभी को अपनी और लालायित देखा तो मुझे अपने
महत्त्व का अहसास हुआ। मेरे विविध रूप परिवर्तित किये गये,
सोने, चाँदी धातुओं में मुझे विविध आकार-प्रकार दिये गये। सन्
1661 ई. में स्वीडन के ‘बैंक ऑफ स्टॉक होम’ में मुझे कागज
में रूपायित किया। कागज के नोट के रूप में भारत में मेरा उदय
सन् 1928 में हुआ। भारतीय नोट रूप में मेरा जन्म इण्डिया
सिक्युरिटी प्रेस नासिक, महाराष्ट्र में हुआ तथा बाद में दूसरा प्रेस
देवास (मध्य प्रदेश) में कार्यरत है। मैं हरे, नीले, लाल आदि रंगों
में तीन सिंहों की सुरक्षा में सुशोभित हूँ।
मेरी महिमा-सागर मंथन से प्राप्त लक्ष्मी जी मेरी देवी
हैं। उन्होंने मुझे अपार महिमा प्रदान की है। सृष्टि के कोने-कोने
तक मेरी महिमा व्याप्त है। जन्म, विवाह, समारोह, मरण आदि.
सभी में मेरी आवश्यकता होती है। यदि मैं न पहुँचूँ तो सभी
रूखे तथा व्यर्थ दिखायी देते हैं। जो भक्त मुझे प्रसन्न कर
लेते हैं, उनका सभी पर प्रभाव रहता है। मैं किसी को भी हाथ
खोलने का अवसर नहीं देता हूँ। मेरी इच्छा के विरुद्ध यदि
कोई हाथ खोलकर चलता है तो मैं वहाँ से पलायन करके उसे
दण्डित करता हूँ।
आज का युग मेरा ही है। देश, विदेश, साहित्य, संस्कृति,
कला सभी में मेरी महिमा है। मेरे अभाव में पता नहीं कितनी
किशोरियाँ अविवाहित रह जाती हैं, अपने प्राण गँवाती हैं।
दूसरी ओर जिन्हें मेरा वरद आशीष मिल जाता है, वे सोल्लास
जीवन-यापन करते हैं।

उपसंहार-बालक, युवा-युवती, प्रौढ़-वृद्ध, सभा मुझ
करते हैं और स्पष्ट कहते हैं।-‘बाप बड़ा न भैया, सबसे बड़ा
रुपय्या’। संसार का कोई भी काम मेरे होने पर रकता नहीं
है-‘दाम करे सब काम’। आप ध्यान रखें कि मैं किसी एक
से स्थायी सम्बन्ध रखने का अभ्यस्त नहीं हूँ। मैं गतिमान रहता
हूँ। मेरी कथा बहुत व्यापक है। इतने से ही समझ गए होंगे मैं
कितना महान् हूँ।
12. किसी खेल का आँखों देखा वर्णन
अथवा
क्रिकेट मैच
रूपरेखा-(1) प्रस्तावना, (2) खेल की तैयारियाँ (3) खेल
का प्रारम्भ, (4) खेल के विविध दृश्य, (5) खेल का समापन,
(6) पुरस्कार वितरण, (7) उपसंहार।
प्रस्तावना-शारीरिक एवं मानसिक दोनों ही दृष्टियों से
खेलों का विशेष महत्त्व है। खेल मानव विकास की आधारशिला
होते हैं। यही कारण है कि शिक्षा के साथ खेल आवश्यक रूप से
जोड़े गये हैं। इनको सभी तरह बढ़ावा दिया जा रहा है।
आज वही बालक जीवन संग्राम में आगे कदम बढ़ा रहे हैं,
जिनको खेल के प्रति विशेष लगाव होता है। क्रीड़ा स्थल इस
प्रकार का उपवन होता है जहाँ सहयोग, स्पर्धा तथा बन्धुत्व के
सुरभित पुष्प विकसित होते हैं।
खेल की तैयारियाँ-हमारा विद्यालय नगर के मध्य स्थित
है। विद्यालय का खेल का मैदान बड़ा विशाल एवं अच्छा है।
हमारे क्रीड़ा अध्यापक जी बड़े परिश्रमी एवं सक्रिय हैं। एक दिन
राजकीय इण्टर कॉलेज की ओर से क्रिकेट मैच का प्रस्ताव आया
जो हमारे अध्यापक जी ने स्वीकार कर लिया तथा कॉलेज के
क्रिकेट दल (टीम) को बुलाकर बता दिया। यह मैच हमारे ही
मैदान में होना था। यहाँ सभी तैयारियाँ थीं। खेल के लिए रविवार
का दिन निश्चित किया गया।
खेल का प्रारम्भ-रविवार के दिन प्रात: 8 बजे ही खेल
के मैदान पर दोनों विद्यालयों के दल विद्यमान थे। मैदान में पिच
तैयार थी। निर्णायक महोदय बाहर के विद्यालयों से आमन्त्रित
थे। दोनों दलों के कप्तान मैदान में पहुँचे, निर्णायकों ने टॉस
उछाला जो हमारे विद्यालय के कप्तान ने जीता। हमारे विद्यालय
की टीम के कप्तान ने पहले बल्लेबाजी करने का निर्णय लिया।
खेल प्रारम्भ हो गया।
खेल के विविध दृश्य-हमारे विद्यालय के प्रारम्भिक
बल्लेबाज सुनील एवं सुशील मैदान में थे। राजकीय इण्टर
सागर कॉलेज के खिलाड़ी मैदान में फैले थे। उनके कप्तान ने गेट
फेंकने का दायित्व राकेश को सौंपा। खेल की पहली गेंद पर है।
सुनील ने चौका जमाया। इस तरह हमारी टीम की शुरुआत बड़ी
अच्छी हुई। खेल जमने लगा और तीस रन बने थे कि सुशील
बाहर हो गया। तीन खिलाड़ी और बाहर चले गये। रमेश की गेंद
पर सुनील को राकेश ने कैच करके बाहर कर दिया, उसक
रन बने थे। इसी प्रकार खेल चलता रहा। बीच-बीच में चौकों
और छक्कों का आनन्द भी मिल रहा था। सभी प्रसन्नथे। हमारी।
टीम के 5 खिलाड़ी बाहर हुए और चालीस ओवरों में हमारे दल
के 200 रन हो गये।
बीच में भोजन के पश्चात् राजकीय इण्टर कॉलेज का
खेलने आया। उनकी भी शुरुआत बहुत अच्छी हुई। पहले दर
ओवरों में उन्होंने 45 रन बना लिए, जिसमें चार चौके तथा हो ।
छक्के भी लगाये। हमारी टीम के तेज गेंदबाज कुछ कर पाने में
असमर्थ रहे। फिर हमारे स्पिनरों ने दायित्व सँभाला और एक के
बाद एक उन्होंने विरोधी दल के चार खिलाड़ी 25 ओवर होने
तक बाहर कर दिए। अब तक उनके रन मात्र 93 ही बन पाये।
थे। उनके पाँचवें तथा छठे खिलाड़ी कुछ जमे, परन्तु जैसे ही गेंद
वायें हाथ के गेंदबाज धीरज ने सँभाली वे दोनों ही उखड़ गये।
उनके जाते ही विरोधी दल ऐसा निराश हुआ कि 35 ओवरों में ही
उनकी समस्त टीम सिमट गयी, जबकि उनके रन 168 मात्र ही
थे। इस प्रकार हमारा दल विजयी रहा।
खेल की समाप्ति-इस प्रकार 5 ओवर शेष रहते हुए में
राजकीय इण्टर कॉलेज का दल अपने खिलाड़ी गँवाकर हार गया
और निर्णायकों ने विकेट उखाड़ दिये। इस तरह खेल समाप्त हो
गया। दोनों दल मण्डप में लौट रहे थे। दर्शक तालियों से विजय
दल का स्वागत कर रहे थे।
पुरस्कार वितरण-सभी खिलाड़ी स्टेडियम में आ गये थे।
दर्शक उत्सुकता से पुरस्कार पाने वालों के विषय में जानने को
बेचैन थे। शील्ड, कप आदि सजे रखे थे। उद्घोषक ने घोषणा
की कि अब हमारे मुख्य अतिथि जिला विद्यालय निरीक्ष
महोदय विजेताओं को पुरस्कार देंगे। इसके बाद श्रेष्ठ गेंदबान
का पुरस्कार धारज की, श्रेष्ठ बल्लेबाज का पुरस्कार सुनील को
तथा श्रेष्ठ क्षेत्ररक्षण का पुरस्कार राकेश को मिला। शील्ड हमारे
विद्यालय को प्रदान की गयी।
उपसंहार-पुरस्कार वितरण के निर्णयों की सभी प्रशंसा कर
रहे थे। हमारे प्रधानाचार्य जी ने खिलाड़ियों को बधाई दी। हन
सभी आनन्दित होकर खेल की चर्चा करते हुए घर लौट आये।
इस मैच को स्मरण करने मात्र से ही मन-मयूर नृत्य करने
लगता है। हृदय-वीणा झंकृत होकर आनन्द का तराना छेड़ती है।
स्फूर्ति तथा शान्ति का नया संचार होता है। यथार्थ में जीवन को
खिलाड़ी की भावना से जीना ही उत्तम तथा श्रेयस्कर है।
13. दीपावली पर्व
अथवा
किसी त्योहार का वर्णन
रूपरेखा-(1) प्रस्तावना-हमारे त्योहार, (2) मनाने के
आधार-व्यापारिक, सामाजिक और सांस्कृतिक, (3) दीपावली
का महत्त्व, (4) दीपावली मनाने की विधि तथा संलग्न त्योहारों
का वर्णन, (5) उपसंहार।।
प्रस्तावना-मनुष्य उत्सव प्रिय है, इसलिए समाज में प्रत्येक
ऋतु में आमोद-प्रमोद के लिए किसी न किसी त्योहार या मेले
के आयोजन का विधान किया है। शरद ऋतु का महत्त्वपूर्ण
त्योहार दीपावली है, जो कार्तिक की अमावस्या को मनाया जाता
है। दीपावली शब्द का अर्थ है-दीप + अवलि अर्थात् दीपों की
पंक्ति। इस दिन घर, गली, नगर, ग्राम सभी दीपकों के आलोक
से प्रकाशित होते हैं।
दीपावली जोश, आनन्द तथा स्वच्छता का त्योहार है। यह
जागृति तथा स्फूर्ति का अग्रदूत है। अन्धकार से आवृत्त विश्व
को प्रकाश का सन्देश देता है। निरन्तर प्रकाश स्रोत बनकर आगे
कदम बढ़ाने की प्रेरणा प्रदान करता है।
त्योहार मनाने के आधार-दीपावली मनाने के कारण
अनेक हैं। व्यापारी इस दिन को व्यवसाय के लिए शुभ मानते हैं।
इस शुभ दिन से नवीन बही आरम्भ करते हैं।
दीपावली जिस समय मनायी जाती है, उस समय खरीफ
की फसल तैयार होती है। ज्वार, बाजरा, मक्का आदि किसान के
घर आते हैं। उसका हृदय उल्लास से भरा होता है। उसी उल्लास
में वह दीपावली का उत्सव मनाता है। 14 वर्ष के बाद वनवास
की अवधि समाप्त करके,रावण विजय प्राप्त कर रामचन्द्रजी
इसी दिन अयोध्या लौटे थे। उनके स्वागत में अयोध्यावासियों ने
भारी हर्ष और उल्लास के साथ खुशियाँ मनायीं और अपने घरों
पर दीपक जलाकर प्रकाश किया था।
इसी दिन गौतम बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ था। जैन धर्म
के चौबीसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी का निर्वाण दिवस यही
था। इस कारण से इस त्योहार पर दीप जलाकर प्रकाश किया
जाता है।
दीपावली मनाने का महत्त्व-दीपावली मनाने के कारण
कुछ भी हों, परन्तु विविध दृष्टियों से यह त्योहार विशेष महत्त्व का
है। सफाई की दृष्टि से विचार करें तो वर्षा ऋतु में विभिन्न प्रकार
मी रे जो जीव तथा जीवाणमा सो जाते है। अता सा।
जीवाणुओं को मार कर देती है और रोग को जीवाणुओं को भारती
यह पर्व भौतिक और आयातिक प्रकाश का सन्देश लेवार
आता है। दीपावली मनुष्य को सम्पन्नता तथा प्रगति का त्योहार
है। उल्लास, आनन्द और कल्याण का अवसर है।
त्योहार पचाने की विधि यह त्योहार पाँच दिन तक
मचाया जाता है। इसका पास न तेरस से होता है। यह वैद्यराज
धन्वन्तरि का अवतार दिवस है। चतुर्दशी को तो दीपावली
मनाते हैं। तीसरे दिन अमावस्या को मुख्य त्योहार होता है। इस
दिन जुस, युवा तथा बच्चों में पात:काल से ही उत्साह होता
है। बड़े लोग अपने दायित्वपूर्ण कार्यों में लगते हैं। बालकों
को घिवयाँ, खिलौने, आतिशबाजी मुग्ध कर देती है। पराखे
चलाकर धूम मचाते बच्चे अपना आनन्द पार करते हैं। इस दिन
विविध प्रकार के व्यंजन बनाये जाते हैं। सधी सुन्दर, स्वचा और
नवीन कपड़े पहनते हैं। शाम के समय दीपमालाओं से घरों में
प्रकाश किया जाता है। रात्रि को घर को सभी लोग लक्ष्मीजी का
पूजन करके धन की वृद्धि की कामना करते हैं।
त्योहार के चौथे दिन गोवर्धन पूजा होती है। इस दिन
अन्नकूट तैयार किया जाता है। पसिय है कि जब जज को विनाश
के लिए इन्दकोधित होकर वर्षा करने लगे तब समस्त बजमण्डल
में गोषसंग की पूजा की गयी, जिससे बज की रक्षा हुई और
इन्द्रदेव का अभिमान चूर हुआ। पाँच दिन प्रात-द्वितीय को
सम्मान करते हैं। इससे स्नेहभाव में वृद्धि होती है।
उपसंहार- इस त्योहार के साथ-साथ समाज में कुछ दोष
भी आ गये हैं। इस अवसर पर लोग जुआ खेलते हैं, शराब पीते
हैं। इस बुरे वातावरण को समाज से दूर करना चाहिए जिससे
त्योहार की पवित्रता तथा उपयोगिता स्थिर रह सके। दीपावली
का त्योहार सुख, समृद्धि एवं आलोक (प्रकाश) का त्योहार है।
हमें इस दिन व्रत लेना होगा कि हम केवल बाहरी स्वसा ही न
करें अपितु सदय को भी स्वच्छ तथा पवित्र बनायें। धरा पर कहीं
अन्धकार की त्वया दृषिगोचर न हो। कविवर नीरज के शब्दों में-
“जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना।
धरा पर अंधेरा कहीं रहप जाए।”

14. मेरा प्रिय कवि
अथवा
महाकवि तुलसीदास
रूपरेखा-(1) प्रस्तावना,
(2)
जीवन-परिचय,
(3) साहित्यिक परिचय, (4) भक्ति का रूप, (5) लोक नायकत्व,
(6) काव्य-सौष्ठव, (7) उपसंहार।
प्रस्तावना-गोस्वामी तुलसीदास ने राम का लोकव्यापी
मंगलमयी रूप प्रस्तुत कर त्रसित जनता को ‘राम-राम’ का
कष्ट निवारक मन्त्र दिया। तुलसी की वाणी के रस द्वारा सिंचित
होकर भक्ति की पवित्र कल्पना ने काल-ग्रीष्म की तपन से
संतप्त भारतीय जीवन को सरस एवं राममय बनाया। समाज को
आशाप्रद अनुभूति प्रदत्त की।
जीवन-परिचय-तुलसीदास का जन्म सं. 1554 श्रावण
शुक्ला, सप्तमी को बाँदा जिले के राजापुर ग्राम में हुआ था। कुछ
विद्वान एटा के सोरों को इनकी जन्मस्थली मानते हैं। इनके पिता
का नाम आत्माराम दुबे और माता का नाम हुलसी था-
“गोद लिये हुलसी फिरै, तुलसी सो सुत होय।”
अभुक्त मूल नक्षत्र में जन्म होने के कारण तुलसी का बचपन
बड़े कष्ट से बीता। इनके गुरु श्री नरहरिदास थे। इनका विवाह
दीनबन्धु पाठक को विदुषी कन्या रत्नावली से हुआ। ये अपनी
पत्नी पर इतने आसक्त थे कि उनके मायके जाने पर आधी रात
के समय ससुराल पहुँच गये। इस पर पत्नी ने इन्हें फटकार
लगायी-
“अस्थि-चर्म-मय देह मम, ता में ऐसी प्रीति।
तैसी जो श्रीराम में, होत न तौ भय-भीति ॥”
तुलसी को पत्नी की बात लग गयी। वे उसी क्षण घर
त्यागकर राम की खोज में निकल पड़े। इन्होंने स्वयं को राम
के चरणों में समर्पित कर या। तुलसी ने काशी में रहकर
रामचरित का बखान किया। सम्वत् 1680 में आपका देहान्त हो
गया-
“संवत् सोलह सौ असी, असी अंग के तीर।
श्रावण कृष्णा तीज शनि, तुलसी तज्यौ शरीर॥”
साहित्यिक परिचय-महाकवि तुलसीदास ने अनेक ग्रन्थों
की रचना की। उनमें रामचरितमानस, विनय-पत्रिका, दोहावली
और कवितावली अधिक प्रसिद्ध हैं। तुलसीदास का कीर्ति स्तम्भ
रामचरितमानस है। यह हिन्दू धर्म का महान ग्रन्थ है। इसमें,
का आदर्श चरित्र अंकित है। सात काण्डों में विभाजित इसका
कथानक अत्यन्त व्यवस्थित एवं नाटकीय है । तुलसीदास में मार्षिक
स्थलों को पहचानने की अपूर्व क्षमता है। राम का अयोध्या त्याग,
वन-गमन, केवट-मिलन, भरत-भेंट, शबरी-आतिथ्य,सीता:
को
तुलसी
मुद्रिका प्राप्ति, लक्ष्मण शक्ति आदि ऐसे स्थल हैं, जिनमें
की सहृदयता, भावुकता, विचार-पटुता का परिचय मिलता
विनय-पत्रिका में कवि की भक्ति-भावना व्यक्त हुई है।
है।
तुलसी के राम में सत्य, शिव एवं सुन्दरम् का अद्भुत समन्वय
है। लोक-संग्रह, मानव मर्यादा और मानवीय प्रकृति रहस्योद्घाटन
करने में तुलसी की कला अद्वितीय है। ‘रामचरितमानस’ भवित
ज्ञान के प्लावित तथा सत्य से विभूषित सरिता है।
भक्ति का रूप-तुलसी के मर्यादा पुरुषोत्तम राम शक्ति,
शील और सौन्दर्य के अवतार हैं। वे लोकरक्षक तथा भक्त-वत्सल
हैं। वे परित्राणाय साधूनाम विनाशाय व दुष्कृताम्’ अवतरित हैं।
दीन-हीन तुलसी उन्हीं के प्रति समर्पित हैं। तुलसी की भक्ति
दैन्य भाव है।
लोकनायकत्व-लोकनायक तुलसी के काव्य की प्रमुख
विशेषता समन्वय है। इसमें विरोधी प्रवृत्तियों, अनेक संस्कृतियाँ,
विविध धर्मो तथा सम्प्रदायों, नाना विचारधाराओं में समन्वय
स्थापित किया गया है। डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी का कथन
सत्य है कि, “तुलसीदास ने तत्कालीन समाज की विकृत दशा
को कुशल वैद्य के समान जान लिया था।” उन्होंने उसी के
अनुरूप समाधान प्रस्तुत कर सशक्त समाज की रचना का सन्देश
दिया। सगुण-निर्गुण, भक्ति एवं कर्म का समन्वय करते हुए वे
लिखते हैं-
“अगुनहिं सगुनहिं नहिं कछु भेदा।
गावहि श्रुति पुराण बुध वेदा॥
अगुन, अरूप, अलख अज जोई।
भगत प्रेमबस सगुन जो होई॥”
काव्य-सौष्ठव तुलसी के काव्य में भाव और कला
दोनों का मणिकांचन संयोग हुआ है। तुलसी रससिद्ध कवि हैं।
उनके साहित्य में शान्त, वीर, शृंगार, रौद्र आदि सभी रसों का
परिपाक हुआ है। पात्र एवं प्रसंग के अनुरूप तुलसी की भाषा
में प्रसाद, माधुर्य और ओज गुणों का सुन्दर संगम है। सर्वत्र
प्रवाह, सरसता, सुबोधता एवं भाव-सबलता का निर्वाह है
हुआ।
है।
उनका शब्द-चयन श्रेष्ठ है। सभी प्रचलित शैलियाँ उनके काव्य
में विद्यमान हैं। भाव के अनुरूप छन्द-चयन में वे पारंगत हैं।
उपसंहार-तुलसीदास हिन्दी साहित्याकाश में शशि के
समान दैदीप्यमान हैं। वे सहृदय, समाज-सुधारक, युग-द्रष्टा और
युग-सृष्टा थे। तुलसी मात्र कवि न होकर जन-जागरण के
थे। वे भारतीय पुनरुत्थान के स्तम्भ थे। यही कारण है कि मर्यादा
पुरुषोत्तम राम के भक्त तुलसी का मैं भक्त हु

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