NCERT Imp Questions for Class 12 Sociology Indian Society Chapter 3 सामाजिक संस्थाएँ–निरन्तरता एवं परिवर्तन [Social Institutions-Continuity and Change]

अध्याय 3 सामाजिक संस्थाएँ–निरन्तरता एवं परिवर्तन [Social Institutions-Continuity and Change]

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

बहु-विकल्पीय प्रश्न

1. निम्नांकित में से कौन-सी एक विशेषता जाति व्यवस्था से सम्बन्धित नहीं है ?

(A) खण्डनात्मक विभाजन,

(B) अन्तर्जातीय विवाह,

(C) जातियों के बीच संस्तरण,

(D) आनुवंशिक व्यवसाय

2. परम्परागत भारतीय समाज में सामाजिक स्तरीकरण का बुनियादी आधार क्या रहा है ?

(A) धन एवं सम्पत्ति,

(B) जाति,

(C) संयुक्त परिवार,

(D) धर्म।

3. निम्नांकित में से किसने अतीत की जाति व्यवस्था को इसकी छः विशेषताओं के आधार पर स्पष्ट किया ?

(A) जी. एस. घुरिये,

(B) डी. एन. मजूमदार,

(C) एस. सी. दुबे,

(D) एम. एन. श्रीनिवास

4. अंग्रेजी शब्द ‘कास्ट’ (Caste) की उत्पत्ति हुई

(A) ग्रीक मूल के शब्द से,

(B) पुर्तगाली मूल के शब्द से,

(C) फ्रेंच मूल के शब्द से,

(D) यूरोपीय मूल के शब्द से

5. “कास्ट इन इण्डिया” पुस्तक के लेखक का क्या नाम है ?

(A) जी. एस. घुरिये,

(B) इमाइल दुर्खीम,

(C) जे. एच. हट्टन,

(D) मैक्स बेवर।

6. जाति एक है- है

(A) अन्तर्विवाही समूह,

(B) बहुर्विवाही समूह,

(C) परिवार का एक प्रकार,

(D) विवाह का एक प्रकार

7. किसने कहा कि ‘जाति एक बन्द वर्ग’ है ?

(A) डी. एन. मजूमदार,

(B) एस. सी. दुबे,

(C) टी. एन. मदान,

(D) ए. आर. देसाई।

8. भारत में अनुसूचित जाति’ शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम किसके द्वारा किया गया ?

(A) महात्मा फुले,

(B) साइमन कमीशन,

(C) डॉ. आम्बेदकर,

(D) महात्मा गाँधी।

9. उस व्यवस्था को क्या कहा जाता है, जो एक सामाजिक प्राणी को अन्य व्यक्तियों के साथ जोड़ती है ?

(A) नातेदारी,

(B) जजमानी,

(C) जमींदारी,

(D) महालबारी।

10. उस नातेदार को किस श्रेणी में रखा जाता है जिसके साथ व्यक्ति के प्रत्यक्ष सम्बन्ध होते हैं ?

(A) प्राथमिक,

(B) द्वितीयक,

(C) तृतीयक,

(D) इनमें से कोई नहीं।

उत्तर- 1. (B), 2. (B) 3. (A) 4. (B) 5. (C), 6. (B) 7. (A), 8. (B), 9. (A), 10. (A).

रिक्त स्थान पूर्ति

1. जाति एक सामाजिक संस्था है जिसका निर्धारण व्यक्ति के……………………से होता है।

2. भारत में जाति तथा वर्ग’ पुस्तक के लेखक का नाम ………………….. है।

3. ‘जाति’ शब्द की उत्पत्ति का पता 1665 में………………….नामक विद्वान ने लगाया।

4. शिक्षा के द्वारा ………………….शक्तियों का सन्तुलित विकास होता है।

5. नातेदारी व्यवस्था की अवधारणा को सर्वप्रथम…………………..ने प्रस्तुत किया।

6. संयुक्त परिवार की संरचना में सर्वोच्च स्थान ……………… का होता है

7. संयुक्त परिवार की प्रकृति…………………………होती है।

8. ……………….ने जनजातियों को पिछड़े हिन्दू नाम से सम्बोधित किया।

9. उत्तर और दक्षिण भारत में नातेदारी संगठन के अन्तर को……………………….ने विस्तार से

स्पष्ट किया।

10. भारत में………………….. सर्वाधिक है। राज्य की जनसंख्या में अनुसूचित जनजातियों की जनसंख्या सर्वाधिक है

उत्तर – 1. जन्म, 2. जी. एस. घुरिये, 3. ग्रेसिया डी ऑरटा, 4. बौद्धिक, 5. मरडॉक, 6. कर्ता का, 7. समाजवादी, 8. जी. एस. घुरिये, 9. इरावती कर्वे, 10. मध्यप्रदेश।

सत्य/असत्य

1. जोतिराव गोविन्दराव फुले ने जाति व्यवस्था के अन्याय की भर्त्सना की।

2. पारम्परिक तौर पर जातियाँ व्यवसाय से जुड़ी होती थीं।

3. जाति की सदस्यता के साथ विवाह सम्बन्धी कठोर नियम शामिल नहीं होते हैं।

4. उपनिवेशवाद की प्रमुख देन जाति व्यवस्था है।

5. जनगणना के कार्य को सर्वप्रथम 1861 के दशक में प्रारम्भ किया गया।

6. ई. वी. रामास्वामी नायकर के अनुसार हर व्यक्ति को स्वतन्त्रता और समानता का अधिकार है।

7. ब्राह्मणों में 800 से अधिक उपजातियाँ हैं। 8. भारत में अस्पृश्यता (अपराध) अधिनियम सन् 1958 में पास हुआ।

9. भारत में सरकारी नीति के अनुसार जनता के उस समुदाय को अल्पसंख्यक माना जाता है, जिसकी जनसंख्या अपेक्षाकृत कम है।

10. वंचित समूह सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक रूप से कमजोर होते हैं, इसलिए इन्हें दुर्बल वर्ग भी कहा जाता है।

उत्तर- 1. सत्य, 2. सत्य, 3. असत्य, 4. सत्य, 5. असत्य, 6. सत्य, 7. सत्य, 8. असत्य, 9. सत्य, 10. सत्य ।

जोड़ी मिलाइए

I.

1. सामाजिक संस्था

2. हिन्दू विवाह अधिनियम

3. भारत में नातेदारी व्यवस्था

4. मुस्लिम विवाह

5. साइमन कमीशन

6. हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम

(i) एक समझौता

(ii) अनुसूचित जाति

(iii) 1956

(iv) इरावती कर्वे

(v) 1955

(vi) विवाह

उत्तर- 1. (vi), 2. → (v), 3. → (iv), 4. (i), 5. (ii), 6. →(iii)

II. 1. ज्योतिबा फुले

2. सावित्री बाई फुले

3. श्री नारायण गुरु

4. मैसूर नरसिंहाचार श्रीनिवास

5. काका कालेलकर

6. वी. पी. मण्डल

(i) सामाजिक क्रान्ति

(ii) संस्कृतिकरण, प्रबल जाति

(iii) प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग

(iv) दलित जातियाँ

(v) प्रथम बालिका विद्यालय की प्रधान अध्यापिका

(vi) मण्डल आयोग

उत्तर- 1. → (iv), 2. (v) 3. → (i). 4. (ii), 5. (iii), 6.→ (vi).

एक शब्द/वाक्य में उत्तर

1. ‘जाति’ शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के किस शब्द से हुई है ?

2. व्यक्ति की जाति का निर्धारण किससे होता है ?

3. जाति व्यवस्था का सबसे कठोर नियम कौन-सा है ?

4. जनजातियों के पृथक्करण का सुझाव किसने दिया है ?

5. सन् 1935 में सरकार ने किन जातियों को अनुसूचित जातियों का नाम दिया ?

6. दलितों को सार्वजनिक सड़कों पर चलने और बच्चों को विद्यालय में दाखिला दिलाने की आजादी किसने दिलवायी ?

7. सन् 1979 में नियुक्त दूसरे पिछड़ा वर्ग आयोग को किस नाम से जाना जाता है ?

8. वंशानुक्रम की दृष्टि से परिवार कैसा होता है ?

9. मूल परिवार में कौन-कौन शामिल होता है ?

10. राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग की स्थापना कब की गई ?

उत्तर- 1. जात, 2. जन्म से, 3. अन्तर्विवाह, 4. प्रो. हट्टन ने, 5. दलित जातियों को, 6. अयनल्ली, 7. मण्डल आयोग, 8. मातृवंशीय अथवा पितृवंशीय, 9. माता-पिता और उनके बच्चे, 10. सन् 1992 में

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. जाति क्या है ?

उत्तर- जाति एक प्राचीन संस्था है, जोकि हजारों वर्षों से भारतीय इतिहास एवं संस्कृति का एक हिस्सा है।

प्रश्न 2. जाति का क्या अर्थ है ?

उत्तर- जाति शब्द की उत्पत्ति पुर्तगाली मूल के शब्द कास्टा (Casta) से हुई है। पुर्तगाली कास्टा का अर्थ है-विशुद्ध नस्ल ।

प्रश्न 3. हरबर्ट रिजले की जनगणना का क्या महत्त्व है ?

उत्तर- 1901 में हरबर्ट रिजले की जनगणना ने जाति के सामाजिक अधिक्रम के बारे में जानकारी इकट्ठी करने का प्रयत्न किया। जाति के सामाजिक बोध से गणना करना आसान हो गया।

प्रश्न 4. प्रजाति का क्या अर्थ है ?

उत्तर- प्रजाति से तात्पर्य मनुष्यों के ऐसे आनुवंशिक शारीरिक लक्षणों से है जिनके आधार पर हम विश्व के मनुष्यों को विभिन्न श्रेणियों में बाँटते हैं।

प्रश्न 5. जाति किस प्रकार संस्कृति का हस्तांतरण करती है ?

उत्तर- एक जाति में जन्म लेने वाला व्यक्ति उस जाति विशेष के रहने सहने, खाने-पीने काम करने के ढंग को बचपन से सीखता है और बड़े होने पर वही ढंग अपनी अगली पीढ़ी को सिखाता है, जिससे संस्कृति का हस्तांतरण होता है।

प्रश्न 6. औपनिवेशिक शासन का जाति व्यवस्था पर क्या प्रभाव पड़ा ?

उत्तर- औपनिवेशिक शासन द्वारा किए गए हस्तक्षेपों से उच्च जातियों के रूढ़िगत अधिकारों को वैध मान्यता प्रदान की गई तथा सन् 1850 में ‘जाति अनर्हता उन्मूलन अधिनियम’ जाति-प्रथा के प्रभावों को रोकने के लिए भी सरकार ने कदम उठाया।

प्रश्न 7. अनुसूचित जनजाति का क्या अर्थ है ?

उत्तर – अनूसूचित जनजाति भारत के आदिवासियों के लिए इस्तेमाल होने वाला एक वैधानिक पद है, जो अब भी राज्य के बाहर है।

प्रश्न 8. नातेदारी किसे कहते हैं ?

उत्तर- सामाजिक मान्यताओं के अनुसार वे सभी सम्बन्ध, जो विवाह और रक्त सम्बन्ध पर आधारित होते हैं इनमें निकट तथा दूर के, घनिष्ठ तथा कम, मधुर या कटु हर प्रकार के सम्बन्धियों का समावेश रहता है।

प्रश्न 9. नातेदारी की कितनी श्रेणियाँ होती हैं ?

उत्तर- नातेदारी की तीन श्रेणियाँ होती हैं

(i) प्राथमिक नातेदार- पिता-पुत्र, भाई बहन, माता-पुत्र, पति-पत्नी आदि।

(ii) द्वितीयक नातेदार- चाचा, ताऊ, जीजा साला।

(iii) तृतीयक नातेदार- ममेरे, फुफेरे, मौसेरे भाई-बहन आदि ।

प्रश्न 10. संयुक्त परिवार की परिभाषा दीजिए।

उत्तर- संयुक्त परिवार में परिवार की कई पीढ़ियों के सदस्य एक ही छत के नीचे इकट्ठे रहते हैं तथा एक ही रसोई में बना भोजन खाते हैं। परिवार पर सबसे बड़े सदस्य का पूर्ण अधिकार होता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. जाति सामाजिक एकता में बाधक है, कैसे ?

उत्तर – जातिवाद एक ऐसी विचारधारा है जिसमें एक जाति के लोग दूसरी की अपेक्षा अपने को श्रेष्ठ मानते हैं। एक जाति के लोग दूसरी जाति को बुरा-समझकर घृणा करते हैं। एक जाति दूसरी जाति को नीचा दिखाने की कोशिश करती है। यह भेदभाव समाज की एकता को भंग करता है। कोई व्यक्ति योग्यता के आधार पर अपनी जात परिवर्तित नहीं कर सकता। जाति व्यवस्था के यही प्रतिबन्ध सामाजिक ढाँचे का सन्तुलन बिगाड़ते हैं और यही समाज की उन्नति में बाधक हैं।

प्रश्न 2. जाति प्रथा के चार लाभों का वर्णन कीजिए। उत्तर- जाति प्रथा के लाभ निम्नलिखित हैं

(1) सामाजिक स्थिरता प्रदान करना-प्रत्येक जाति के व्यवसाय, उसकी स्थिति निश्चित होती है, जिससे उनके सम्बन्ध स्थिर रहते हैं।

(2) हिन्दू समाज का बचाव-मध्य काल में मुगलों के हमले के समय हिन्दू समाज की रक्षा जाति व्यवस्था के प्रतिबन्ध से ही सम्भव हुई। अगर विवाह, खाने-पीने के प्रतिवन्ध न होते, तो हिन्दू समाज मुसलमानों में मिल जाता।

(3) धार्मिक आधार- प्रत्येक जाति के कर्त्तव्य धार्मिक भावना से जुड़े थे। प्रत्येक को अपने धार्मिक संस्कारों की रक्षा की शिक्षा दी जाती थी।

(4) निश्चित व्यवसाय-जाति व्यवस्था में हर जाति के व्यवसाय निश्चित किए हैं। इससे प्रत्येक जाति के पास व्यवसाय थे।

प्रश्न 3. जाति व्यवस्था में पृथक्करण (Separation) और अधिक्रम (Hierarchy) की क्या भूमिका है ?

उत्तर भारतीय समाज में जाति व्यवस्था में पृथक्करण और अधिक्रम ही महती भूमिका है क्योंकि इनके माध्यम से प्रत्येक जाति का अलग अस्तित्व तथा प्रत्येक वर्ग का समाज में विशेष स्थान का पता चला है। पृथक्करण (Separation)- जाति व्यवस्था का पहला सिद्धान्त भिन्नता व अलगाव पर आधारित होता है। प्रत्येक जाति एक-दूसरे से भिन्न है तथा इस पृथकता का कठोरता से पालन किया जाता है। इस तरह के प्रतिबन्धों में विवाह, खान-पान तथा सामाजिक अन्तसंवन्ध से लेकर व्यवसाय तक शामिल हैं। सभी जातियाँ एक-दूसरे से पूर्णतया पृथक् होती हैं, परन्तु इनका अस्तित्व सम्पूर्ण जाति-व्यवस्था के कारण ही सम्भव है। अधिक्रम (Hierarchy)-जाति व्यवस्था का दूसरा सिद्धान्त सम्पूर्णता और अधिक्रम पर आधारित है। अधिक्रम का अर्थ है-प्रत्येक वर्ग अथवा जाति का समाज में विशेष स्थान होता है। यह एक सीढ़ीनुमा व्यवस्था है। प्रत्येक जाति के बीच कुछ अन्तर होते हैं। ये अन्तर शुद्धता तथा अशुद्धता पर आधारित होते हैं। वे जातियाँ जिन्हें कर्मकाण्ड की दृष्टि से शुद्ध माना जाता है, उनका स्थान उच्च होता है और जिन जातियों को अशुद्ध समझा जाता है, उन्हें निम्न स्थान प्राप्त होता है। इस अधिक्रम में उच्च स्थान ब्राह्मणों को, फिर क्षत्रियों को, फिर वैश्यों को तथा सबसे अन्तिम स्थान शूद्रों को प्राप्त होता है।

प्रश्न 4. वे कौन-से नियम हैं जिनका पालन करने के लिए जाति व्यवस्था बाध्य करती है ? कुछ के बारे में बताइए। उत्तर- जाति व्यवस्था के द्वारा समाज पर आरोपित सर्वाधिक सामान्य नियम निम्नलिखित हैं में

(1) समाज के प्रत्येक व्यक्ति की जाति उसके जन्म के आधार पर ही निश्चित हो जाती है। व्यक्ति अपनी जाति का निर्धारण स्वयं नहीं कर सकता। जन्मजात जाति में ही उसे ताउम्र बितानी होती है।

(2) जाति के सदस्यों को खान-पान के नियमों का पालन करना होता है।

(3) जाति की सदस्यता के साथ विवाह सम्बन्धी कठोर नियम शामिल होते है। जाति समूह सजातीय होते हैं तथा विवाह समूह के सदस्यों के साथ ही हो सकते हैं।

(4) जाति प्रथा में व्यक्ति उस जाति से जुड़े व्यवसाय को ही अपना सकता था; जैसे-लुहार, बढ़ई, नाई, कुम्हार इत्यादि को अपने परम्परागत कार्यों को ही करना होता था। (5) जाति में स्तर तथा स्थिति का अधिक्रम होता है। समाज को कई भागों में बाँटा गया था और हर हिस्से के सदस्यों का दर्जा, स्थान और कार्य निश्चित कर दिए गए थे। (6) जातियों का उपविभाजन भी होता था। जाति प्रथा में अनुलोम विवाह को भी स्वीकृति प्राप्त थी।

प्रश्न 5. उपनिवेशवाद के कारण जाति व्यवस्था में क्या-क्या परिवर्तन आए ? उत्तर-औपनिवेशिक शासनकाल के समय जाति व्यवस्था में निम्नलिखित प्रमुख परिवर्तन आए

(1) सर्वेक्षण एवं जनगणना करना- अंग्रेज प्रशासकों ने देश पर कुशलतापूर्वक शासन करने के उद्देश्य से जाति व्यवस्था की जटिलताओं को समझने के प्रयत्न शुरू किए। 1860 के दशक में महत्वपूर्ण सरकारी प्रयत्न प्रारम्भ हुए। सन् 1901 में हरबर्ट रिजले के निर्देशन में जनगणना की गई जिसमें माध्यम से सामाजिक अधिक्रम के बारे में जानकारी एकत्रित करने का प्रयत्न किया।

(2) भूमि की बन्दोबस्ती- भू-राजस्व बन्दोबस्ती तथा अन्य कानूनों ने उच्च जातियों के जाति आधारित अधिकारों को वैध मान्यता प्रदान करने का कार्य किया। बड़े पैमाने पर सिंचाई की योजनाएँ प्रारम्भ की गई तथा लोगों को बसाने का कार्य प्रारम्भ किया गया।

(3) समाज सुधार-उपनिवेशकाल में कई भारतीय समाज सुधारकों ने काम शुरू किए जिसका मुख्य उद्देश्य जाति प्रथा को समाज से खत्म करना था। निम्न जातियों के कल्याण, अन्तर्जातीय विवाह, विधवा-विवाह तथा बाल विवाह को समाप्त करने के लिए कानून बनाए गए।

(4) व्यवसायों में विविधता- पूँजीवाद और आधुनिकता के प्रसार के कारण नए-नए उद्योगों को जन्म मिला, लोगों ने अपनी पसन्द तथा योग्यता के अनुसार कार्य करने शुरू किए। परम्परागत व्यवसायों के प्रतिबन्ध में भी कमी आई।

प्रश्न 6. किन अर्थों में नगरीय उच्च जातियों के लिए जाति अपेक्षाकृत ‘अदृश्य’ हो गई ?

उत्तर- स्वतन्त्रता के पश्चात् राष्ट्र की विकासात्मक नीतियों का लाभ शहरी मध्यम वर्ग तथा उच्च वर्ग को मिला। इन समूहों के लिए विकास के समस्त संसाधन उपलब्ध थे और जातिगत अवस्था के कारण इन वर्गों ने भरपूर आर्थिक तथा शैक्षणिक संसाधनों का पूरा-पूरा लाभ उठाया। प्रौद्योगिकी, चिकित्सा तथा प्रबन्धन के क्षेत्र में, व्यावसायिक शिक्षा से लाभान्वित हुए। स्वतन्त्रता प्राप्ति के प्रारम्भिक दशकों में राजकीय क्षेत्र की नौकरियों में हुए विस्तार ने भी विशेषाधिकार की स्थिति प्राप्त की। नगरीय उच्च जातियों को यह विश्वास हो गया कि उनकी प्रगति का जाति से कुछ लेना-देना नहीं है। उनकी आर्थिक व शैक्षणिक पूँजी उन्हें जीवन के सर्वोत्तम अवसर देती रहेगी। इस कारण इन समूहों में सार्वजनिक जीवन में जाति का महत्त्व धीरे-धीरे सीमित हो गया। जाति अब केवल धार्मिक रीति-रिवाज, नातेदारी के व्यक्तिगत क्षेत्र तक ही दिखाई देती है। अतः यह कहा जाता है कि नगरीय उच्च जातियों के लिए जाति अपेक्षाकृत अदृश्य हो गयी।

प्रश्न 7. मातृवंश (Matriliny) और मातृतन्त्र (Matriarchy) में क्या अन्तर है ? व्याख्या कीजिए।

उत्तर – भारतीय समाज में कई प्रकार के परिवार पाए जाते हैं। आवास के नियम के अनुसार, कुछ समाज विवाह और पारिवारिक प्रथाओं के मामले में पत्नी स्थानिक और कुछ पति-स्थानिक होते हैं। पत्नी स्थानिक परिवार में नवविवाहित जोड़ा बधू के माता-पिता के साथ रहता है और पति स्थानिक परिवार में नवविवाहित जोड़ा वर के माता-पिता के साथ रहता है। उत्तराधिकार के नियम के अनुसार, मातृवंश समाज में जायदाद माँ से बेटी को प्राप्त होती है। मातृतन्त्रात्मक परिवार संरचना में स्त्रियाँ समान प्रभुत्वकारी भूमिका निभाती हैं।

मातृतन्त्र एक अनुभविक संकल्पना के स्थान पर एक सैद्धान्तिक कल्पना है। मातृतन्त्र का कोई ऐतिहासिक या मानवशास्त्रीय प्रमाण नहीं है, अर्थात् ऐसा समाज नहीं है, जहाँ स्त्रियाँ प्रभुत्वशाली हों हालांकि मातृवंशीय समाज अवश्य पाए जाते हैं, जहाँ स्त्रियाँ अपनी माताओं से उत्तराधिकार के रूप में जायदाद प्राप्त करती हैं। मेघालय की खासी, जयन्तिया तथा गारो जनजातियों तथा केरल के नयनार जाति के परिवार में सम्पत्ति का उत्तराधिकार माँ से बेटी को प्राप्त होता है।

प्रश्न 8. परिवार के विभिन्न रूप क्या हो सकते हैं ?

उत्तर-परिवार एक महत्वपूर्ण सामाजिक संस्था है। विभिन्न समाजों में विविध प्रकार के परिवार पाए जाते हैं, जैसे-आवास के नियम के अनुसार, पारिवारिक प्रथाओं के अनुसार, उत्तराधिकार के नियम के अनुसार आदि। परिवार के गठन की यह संरचना आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक तथा शैक्षिक जैसे बहुत सारे कारकों पर निर्भर करती हैं। परन्तु अगर हम ध्यान से देखें, तो आधुनिक समाज में मुख्य दो प्रकार के परिवार पाए जाते हैं, जो निम्नलिखित हैं

(1) एकाकी परिवार-साधारणतया यह एक छोटी इकाई है जिसमें पति-पत्नी व उनके अविवाहित बच्चे रहते हैं। एकल परिवार के सदस्य अधिक आत्मनिर्भर होते हैं, स्वयं निर्णय लेने के लिए स्वयं उत्साहित होते हैं। जहाँ कोई समाज अधिक औद्योगिक व शहरी बन जाता है, वहाँ एकल परिवार होने की सम्भावना होती है।

(2) संयुक्त परिवार संयुक्त परिवार उन व्यक्तियों का समूह है जो सामान्यतया एक मकान में रहते हैं, एक ही रसोई में पका भोजन करते हैं, जो सामान्य सम्पत्ति के भागी होते हैं तथा जो किसी-न-किसी प्रकार से एक-दूसरे के रक्त सम्बन्धी होते हैं। संयुक्त परविार में श्रम विभाजन करके सभी सदस्य एक-दूसरे के काम में हाथ बँटाते हैं तथा परिवार में सदस्यों के बीच सद्गुणों का विकास होता है।

प्रश्न 9. नातेदारी व्यवस्था क्या है ?

उत्तर- मानव समाज में अकेला नहीं होता, जन्म से लेकर मृत्यु तक वह अनेक व्यक्तियों से घिरा होता है, अर्थात् उसका सम्बन्ध एकाधिक व्यक्तियों से होता है। परन्तु इनमें से सबसे महत्वपूर्ण सम्बन्ध उन व्यक्तियों के साथ होता है, जो विवाह बन्धन और रक्त सम्बन्ध के आधार पर सम्बन्धित हैं। इनमें भी निकट तथा दूर के, घनिष्ठ तथा अघनिष्ठ, मधुर और कठोर हर प्रकार के सम्बन्धियों का समावेश रहता है।

प्रश्न 10. नातेदारी के प्रकारों का वर्णन कीजिए।

उत्तर- नातेदारी मुख्यतः दो प्रकार की होती है

(1) विवाह सम्बन्धी नातेदारी- जब एक व्यक्ति विवाह करता है, तो विवाह से न केवल दो स्त्री-पुरुष के बीच सम्बन्ध स्थापित होता है, बल्कि इन दोनों से सम्बन्धित अन्य अनेक व्यक्ति एक-दूसरे से सम्बद्ध हो जाते हैं, जैसे-विवाह के पश्चात् एक पुरुष पति बनने के अलावा बहनोई दामाद, जीजा, फूफा, मौसा, साढ़ आदि भी बन जाता है। इसी प्रकार एक स्त्री पत्नी बनने के साथ पुत्रवधु, भाभी, देवरानी, जेठानी, चाची, मामी आदि भी बन जाती है। इसमें से प्रत्येक सम्बन्ध के आधार पर दो व्यक्ति होते हैं, जैसे-साला-बहनोई, सास-दामाद, साली जीजा, सास-बहू आदि।

(2) रक्त सम्बन्धी-इसके अन्तर्गत ये लोग आते हैं जो समान रक्त के आधार पर एक-दूसरे से सम्बन्धित हो। उदाहरण के लिए, माता-पिता और उनके बच्चों के बीच सम्बन्ध रक्त के आधार पर ही हैं।

दीर्घ उत्तरीय / विश्लेषणात्मक प्रश्न

प्रश्न 1. जाति व्यवस्था का अर्थ एवं परिभाषा बताइए तथा जाति व्यवस्था की प्रमुख विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।

उत्तर- जाति शब्द संस्कृत के शब्द ‘जन’ से लिया गया है। जिसका अर्थ है-जन्म। जाति शब्द अंग्रेजी के शब्द ‘CASTE’ का हिन्दी रूपान्तर है, जो कि पुर्तगाली शब्द ‘Casta’ से लिया गया है जिसका अर्थ है ‘नस्ल’। जाति की परिभाषाएँ विभिन्न विद्वानों ने जाति व्यवस्था की प्रकृति को स्पष्ट करने के लिए जाति को अनेक परिभाषाओं द्वारा स्पष्ट किया है मजूमदार तथा मदान के अनुसार-“जाति एक बन्द वर्ग है।” इसका तात्पर्य है कि प्रत्येक जाति को एक ऐसे वर्ग के रूप में समझा जा सकता है जिसकी सदस्यता जन्म पर आधारित होती है तथा व्यक्ति को अपनी जाति को बदलने की किसी भी दशा में अनुमति नहीं दी जाती। चार्ल्स कूले के अनुसार-“जब एक वर्ग पूरी तरह आनुवंशिकता पर होता है, तब हम उसे एक जाति कहते हैं।” जाति व्यवस्था की विशेषताएँ जाति व्यवस्था की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

(1) समाज का खण्डनात्मक विभाजन-जाति एक ऐसी व्यवस्था है, जिसके द्वारा सम्पूर्ण समाज को चार खण्डों (Segments) में विभाजित कर दिया गया। यह खण्ड ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र जाति के हैं। एक-एक खण्ड के अन्दर बहुत-सी जातियों का समावेश होता है। प्रत्येक खण्ड के सदस्यों की सामाजिक स्थिति, कर्त्तव्य और व्यवहार के नियम पूर्व-निर्धारित होते हैं।

(2) खान-पान के प्रतिबन्ध- इस प्रतिबन्ध का सम्बन्ध भी पवित्रता और अपवित्रता की धारणा से है। जाति व्यवस्था में सामान्य नियम यह रखा गया है कि प्रत्येक व्यक्त केल अपनी जाति के व्यक्तियों द्वारा बनाये गये भोजन को ही ग्रहण करेगा। इसके बाद ही खान के प्रतिबन्ध को कच्चे और पक्के भोजन के रूप में दो भागों में विभाजित करके स्पष्ट किया गया। विशेष परिस्थिति में ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य जातियों को एक-दूसरे के द्वारा बनाये गये पक्के भोजन को ग्रहण करने की अनुमति दी गयी लेकिन इनमें से किसी भी जाति को अपने से निम्न जाति द्वारा बनाये गये कच्चे भोजन को ग्रहण करने पर प्रतिबन्ध लगाया जाता है।

(3) सामाजिक और धार्मिक निर्योग्यताएँ-जाति व्यवस्था ने कुछ जातियों को सामाजिक व धार्मिक क्षेत्र में विशेष अधिकार प्रदान किये हैं और कुछ जातियों को अनेक अधिकारों से बिल्कुल वंचित कर दिया है। इस सम्बन्ध में सबसे अधिक निर्योग्यताएँ अन जातियों के लिए हैं। जैसे उनको सार्वजनिक सड़कों पर चलने, दिन में निकलने और मन्दिरों के पास जाने का अधिकार नहीं दिया जाता था। स्कूलों में शिक्षा पाने, कुओं और तालाबों का प्रयोग करने और सार्वजनिक स्थानों पर बैठने के सम्बन्ध में भी उनका कठोर नियन्त्रण था।

(4) व्यावसायिक विभाजन-जाति व्यवस्था में प्रत्येक जाति के द्वारा किये जाने वाले व्यवसाय का रूप पूर्व निर्धारित होता है। साधारणतया ब्राह्मण जातियों के लिए धार्मिक क्रियाओं तथा शिक्षा देने का कार्य, क्षत्रिय जातियों के लिए रक्षा और प्रशासन से सम्बन्धित व्यवसाय, वैश्य जातियों के लिए व्यापार और पशुपालन का व्यवसाय तथा शूद्रों के लिए सेवा एवं ऐसे व्यवसाय निर्धारित किये गये जिन्हें गंदा और अपवित्र समझा जाता है। सभी जातियों को यह विश्वास दिलाया गया कि अपनी जाति के लिए निर्धारित व्यवसाय करना ही उनका धार्मिक कर्तव्य है।

(5) अन्तर्विवाह- जाति व्यवस्था का सबसे कठोर नियम यह है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी ही जाति के अन्दर विवाह करना आवश्यक है। इसी को अन्तर्विवाह का नियम कहा जाता है। व्यावहारिक रूप अन्तर्विवाह ही जाति व्यवस्था का सार तत्त्व है। इस नियम के कारण ही भारत में जातियों का विभाजन इतने लम्बे समय तक स्थायी और प्रभावपूर्ण बना रह सका।

(6) जातियों की आत्मनिर्भरता – विभिन्न जातियों को कार्यात्मक आधार पर एक-दूसरे से जोड़े रखने के लिए ऐसी व्यवस्था की गई जिससे सभी जातियाँ एक-दूसरे पर निर्भर रहें। इस व्यवस्था को जजमानी व्यवस्था के रूप में आज भी भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में सरलता से देखा जा सकता है।

प्रश्न 2. जाति व्यवस्था के गुण/कार्यों/भूमिका की विवेचना कीजिए। उत्तर- भारतीय जाति-प्रथा अपनी ही तरह की विचित्र और रोचक संस्था है। धर्म सीमा के बाहर हिन्दुओं का जो अपनापन है, उसकी अनोखी अभिव्यक्ति यह जाति प्रथा है। आज भारत में लगभग 3,000 जातियाँ और उपजातियाँ हैं। जाति प्रथा जन्म के आधार पर सामाजिक संस्तरण और खण्ड विभाजन की वह गतिशील व्यवस्था है जो खाने-पीने, विवाह, पेशे आदि के सम्बन्ध में अनेक या कुछ प्रतिबन्धों को अपने सदस्यों पर लागू करती है। जाति प्रथा का प्रभाव जीवन के समस्त सम्बन्धों और घटनाओं पर आधारित होता है। जाति प्रथा के गुण जाति के गुण/लाभों/कार्यों को तीन भागों में बाँटा जा सकता है

(1) सदस्यों के व्यक्तिगत जीवन में लाभ के गुण-व्यक्ति के जीवन के समस्त सम्बन्ध पर जाति का प्रभाव पड़ता है। अपने सदस्यों के व्यक्तिगत जीवन से सम्बन्धित जाति के कार्य निम्नलिखित हैं

(i) सामाजिक स्थिति को निश्चित करना- जाति जन्म से ही अपने सदस्य की सामाजिक स्थिति को निश्चित करती है, जिसे सम्पत्ति, दरिद्रता, सफलता और किसी भी प्रकार से हटाया नहीं जा सकता।

(ii) मानसिक सुरक्षा प्रदान करना- जाति प्रत्येक व्यक्ति का पद और उसके कार्य को जन्म से ही निश्चित करके सदस्यों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करती है।

(iii) पेशे का निर्णय- प्रत्येक जाति का पेशा जन्म से ही निश्चित हो जाता है और बचपन से ही पेशे के पर्यावरण में पलने के कारण उसके विषय में व्यक्ति को स्वतः ही सामान्य ज्ञान प्राप्त हो जाता है।

(iv) जीवनसाथी का चुनाव-जाति का विवाह सम्बन्धी कार्य भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है। जाति इस बात का निर्णय करती है कि व्यक्ति को किस समूह में विवाह करना है।

(v) व्यवहारों पर नियन्त्रण- प्रत्येक जाति के अपने नियम और प्रतिबन्ध होते हैं। इन नियमों और प्रतिबन्धों के द्वारा जाति अपने सदस्यों के व्यवहारों पर नियन्त्रण रखती है।

(2) जाति समुदाय से सम्बन्धित गुण-जाति न केवल व्यक्तिगत जीवन से सम्बन्धित कार्यों को करती है, बल्कि अनेक अन्य कार्य भी करती है।

(i) धार्मिक भावनाओं की रक्षा-प्रत्येक जाति की अपनी धार्मिक विधियाँ होती हैं, जिनकी वह रक्षा करते हैं तथा अलग-अलग जातियों के अलग-अलग देवी-देवता भी होते हैं।

(ii) रक्त की शुद्धता बनाये रखना-जाति, विवाह सम्बन्धी विविध निषेधों द्वारा जाति के रक्त की शुद्धता बनाए रखने में सहायक होती है। विशेषकर नीचे की जातियों के साथ सम्मिश्रण से बचने के लिए जाति प्रथा एक उत्तम व्यवस्था है।

(iii) संस्कृति की सुरक्षा प्रत्येक जाति की अपनी एक निजी शिक्षा पद्धती, ज्ञान कुशलता आदि होती है, जाति अपनी संस्कृति को स्थिर बनाये रखती है।

(iv) सामाजिक स्थिति प्रदान करना-प्रत्येक जाति अपने समुदाय के लिए एक निश्चित सामाजिक स्थिति को निर्धारित करती हैं। सामुदायिक प्रयत्न और आन्दोलन के द्वारा अपने सदस्यों की स्थिति को उन्नत करने में भी सहायक होती है।

(3) सामाजिक कार्य-जांति व्यक्ति के लिए या अपने जातीय समुदाय के लिए ही कार्य नहीं करती, बल्कि सम्पूर्ण समाज के लिए भी अनेक कार्यों को करती है।

(I) समाज के विकास और संरक्षा में सहायक देना-जाति प्रथा ने समाज को ऐसी अवस्था प्रदान की है जिसमें कोई भी समुदाय अपनी विशिष्ट प्रकृति और अपनी पृथक स को बनाए रखते हुए अपने को समग्र समाज में एक सहयोगी अंग के रूप में उपयुक्त बन सकता है।

(ii) राजनीतिक स्थिरता को बनाए रखना-भारत पर विभिन्न समयों में विदेशियों ने आक्रमण किए। मुसलमान और अंग्रेज आधुनिक समय में इसके उत्तम उदाहरण है। लेकिन जाति प्रथा ने भारतीय समाज और सामाजिक संगठन को ही नहीं, अपितु अपनी संस्कृति की भी नष्ट होने से बचाया।

(iii) समाज को सरल श्रम विभाजन-जाति प्रथा के कारण ही समाज के सब कार्य शिक्षा से लेकर सफाई तक, गृहस्थी से लेकर सरकारी कार्य तक सुचारू रूप से चलते हैं और ये सभी कार्य धार्मिक विश्वास या ‘कर्म’ की धारणा के आधार पर किए जाते हैं।

(iv) समाजवादी ढाँचे का आधार जाति प्रथा को प्राचीनकाल का सुपरीक्षित वैज्ञानिक समाजवाद मानते हैं। जाति प्रथा प्रत्येक व्यक्ति को समाज में उसका स्थान, कार्य, पेशा तथा मित्र मण्डली प्रदान करती है।

(v) शिक्षा दान-जाति व्यक्ति की शिक्षा के प्रति मनोवृत्ति को निश्चित करती है और उसे किस प्रकार की शिक्षा मिलेगी, यह भी स्थिर करती है, जैसे- ब्राह्मण की शिक्षा, क्षत्रिय की शिक्षा आदि।

प्रश्न 3. भारत में जनजातियों का वर्गीकरण किस प्रकार किया गया है ? उत्तर भारत में जनजातियों का वर्गीकरण उनके स्थायी तथा अर्जित लक्षणों के आधार पर किया गया है। इन आधारों का वर्गीकरण आगे तालिका में दर्शाया गया है

तालिका का विवरण

(1) स्थायी लक्षण

(क) भाषा के आधार पर भाषा के आधार पर जनजातियों को चार श्रेणियों में बाँटा गया है। जनजातियों में लगभग 1% लोग इण्डो आर्यन (आर्य), 3% लोग द्रविड़, ऑस्ट्रिक परिवार की भाषा समस्त जनजाति तथा तिब्बती वर्मी परिवार की भाषाएँ 80% से अधिक जनजातीय द्वारा प्रयुक्त होती है।

(ख) क्षेत्र के आधार पर जनजातियाँ अलग-अलग क्षेत्रों में फैली हुई है। 85% जनजातियाँ मध्य भारत में हैं, 11% जनसंख्या पूर्वोत्तर राज्यों में है। अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम, नगालैण्ड जैसे राज्यों में इसकी जनसंख्या 60% से लेकर 95% तक है।

(ग) शारीरिक प्रजातीय आधार पर शारीरिक प्रजातीय दृष्टि से जनजातीय लोग को नीग्रिटो, ऑस्ट्रेलॉयड, द्रविड़ तथा आर्य श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया है।

अर्जित लक्षण

(क) आजीविका के आधार पर-आजीविका के आधार पर मछुआरे, खेतिहर, औद्योगिक कर्मचारी, कृषक आदि श्रेणियों में बाँटा जा सकता है।

(ख) संस्कृतिकरण के आधार पर – संस्कृति के द्वारा जनजातियों को हिन्दू समाज में आत्मसात् करने और शूद्र वर्ण वालों को स्वीकार करने की सीमा है। इन लोगों को हिन्दू समाज में उनके व्यवहार तथा वित्तीय स्थिति देखकर शामिल किया गया।

प्रश्न 4. जनजातियाँ आदिम समुदाय हैं जो सभ्यता से अछूते रहकर अपना अलग-थलग जीवन व्यतीत करते हैं। इस दृष्टिकोण के विपक्ष में आप क्या साक्ष्य प्रस्तुत करना चाहेंगे?

उत्तर- जनजातियाँ आदिम समुदाय हैं जो सभ्यता से अछूते रहकर अपना अलग-थलग जीवन व्यतीत करते हैं ऐसा मानने का कोई आधार नहीं है, जनजातियाँ विश्व के शेष ि से कटी रही हैं। वास्तविकता यह है कि भारत में सांस्कृतिक सम्पकों का शून्य बिन्दु (जीरी प्वॉइंट) है ही नहीं। सभी कबीले अपने से अधिक उन्नत संस्कृतियों के सम्पर्क में आए है। सम्पर्क स्थिति से समायोजन स्थापित कर अपेक्षाकृत सन्तोषप्रद जीवन व्यतीत कर रहे हैं।

• अधिकांश भारतीय कबीलों का निवास वनों में है और वे वन्य प्राकृतिक साधनों पर ही निर्भर करते हैं।

● मध्यवर्ती तथा पश्चिमी भारत के तथाकथित राजपूत राज्यों में से अनेक रजवाड़े वास्तव में स्वयं आदिवासी समुदायों के स्तरीकरण की प्रक्रिया के माध्यम से ही उत्पन्न हुए।

• आदिवासी लोग अक्सर अपनी आक्रामकता तथा स्थानीय लड़ाकू दलों से मिली भगत के कारण मैदानी इलाकों के लोगों पर अपना प्रभुत्व कायम करते हैं। जनजातियों को एक आदिम समुदाय के रूप में प्रमाणित करने वाले तथ्य

(1) सामान्य लोगों की तरह जनजातियों का कोई अपना राज्य अथवा राजनीतिक पद्धति नहीं है।

(2) सामान्य जातियों की तरह उनके समाज में भी कोई लिखित धार्मिक कानून नहीं है।

(3) प्रारम्भिक रूप से वे खाद्य संग्रहण, मछली पकड़ने, शिकार, कृषि इत्यादि गतिविधियों में संलिप्त रहे हैं।

प्रश्न 5. आज जनजातीय पहचानों के लिए जो दावा किया जा रहा है, उसके पीछे क्या कारण हैं ?

उत्तर- जनजातीय पहचान को सुरक्षित रखने का आग्रह दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है, इसके निम्न कारण है

(1) जनजातीय संस्कृति के बलात् समावेश का प्रभाव जनजाति के समाज पर ही नहीं बल्कि अर्थव्यवस्था पर भी पड़ रहा है।

(2) मुख्यधारा की प्रक्रिया आमतौर पर जनजातीय समुदायों के लिए अनुकूल शर्तों पर नहीं होती इसलिए आज अनेक जनजातीय पहचानें गैर-जनजातीय जगत की दुर्दमनीय शक्ति का प्रतिरोध करने के विचारों पर अपना ध्यान केन्द्रित करती हैं।

• झारखण्ड तथा छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों के गठन के कारण जो सकारात्मक असर पड़ा वह सतत् समस्याओं के कारण नष्ट हो गया।

• शनैः-शनैः उभरते हुए शिक्षित मध्यम वर्ग ने आरक्षण की नीतियों के साथ मिलकर एक नगरीकृत व्यावसायिक वर्ग का निर्माण किया है।

• जनजातीय समाज के भीतर भी एक मध्यवर्ग का प्रादुर्भाव हो चला है। इस वर्ग के प्रादुर्भाव से भूमि तथा संसाधनों पर नियन्त्रण, परियोजनाओं के लाभ में हिस्से की माँगें, अपनी पहचान को सुरक्षित रखने का आग्रह करती हैं।

इसलिए अब जनजातियों में, उनके मध्य वर्गों में एक नई जागरूकता की लहर आ रही है तथा जिन्हें सरकार की आरक्षण नीतियों से बल मिला है।

प्रश्न 6. भारत में ग्रामीण और नगरीय वर्ग संरचना का वर्णन कीजिए।

उत्तर- भारतीय समाज मुख्यत: ग्रामीण और नगरीय दो क्षेत्रों में बँटा हुआ है। ग्रामीण वर्गों की संरचना और नगरीय वर्ग संरचना अलग-अलग हैं जोकि निम्नलिखित हैं

भारतीय ग्रामीण वर्ग संरचना

(1) मालिक तथा साहूकार वर्ग-ग्रामीण क्षेत्र में सर्वोच्च वर्ग के अन्तर्गत जमदार एवं साहूकार आते हैं, ये गाँव के प्रधान कहलाते हैं। इनकी आर्थिक स्थिति उच्च होती है तथा समस्त ऐश्वर्य इनके जीवन में होते हैं। ये लोग आर्थिक सम्पन्न होने के साथ-साथ राजनीतिक व सामाजिक दृष्टि से भी धनी होते हैं।

(2) कृषक वर्ग-ग्रामीण क्षेत्र में दूसरा वर्ग किसानों का होता है जिनके पास अपनी भूमि होती है, जिस पर वह खेती करते हैं। इनका जीवन स्तर साहूकार व जमींदार से नीचा होता है।

(3) भूमिहीन किसान एवं मजदूर वर्ग-भूमिहीन किसान दूसरों के खेतों पर मजदूरी करके जीवन निर्वाह करते हैं। ग्रामीण क्षेत्र में यह वर्ग संख्या में अधिक होता है। भूमिहीन किसान साल भर मजदूरी करके बहुत मुश्किल से दो जून की रोटी जुटा पाता है।

भारतीय नगरीय वर्ग संरचना

(1) उच्च वर्ग-शहर में इस वर्ग के लोग बड़ी-बड़ी फर्मों के मालिक व कारखानों के मालिक होते हैं। इनका प्रभाव राजनीतिक दलों पर भी रहता है। ये समस्त सुख-सुविधा सम्पन्न वर्ग हैं।

(2) मध्यम वर्ग-इस वर्ग के लोगों का उत्पादन के साधनों पर नियन्त्रण नहीं होता। ये लोग परम्परा व रूढ़ियों से बँधे होते हैं तथा सामाजिक, धार्मिक, नैतिक नियमों का पालन करते हैं।

(3) निम्न वर्ग/मजदूर वर्ग-इस वर्ग के अन्तर्गत खानों, मशीनों, फैक्टरियों आदि पर काम करने वाले मजदूर आते हैं। इनके पास सीमित साधन होते हैं। अपनी आवश्यकताओं को कठिनाई से पूरा कर पाते हैं।

प्रश्न 7. अनुसूचित जनजाति की प्रमुख समस्याएँ क्या हैं ? प्रकाश डालिए।

उत्तर- अनुसूचित जनजाति वर्तमान समाज में अपने अस्तित्व के लिए अनेक चुनौतियों का सामना कर रही हैं। भारत सरकार ने जनजातियों के उत्थान के लिए कई कदम उठाए हैं एवं इनके उत्थान के लिए वर्तमान में भी प्रयासरत् हैं। लेकिन इसके बाद भी भारतीय जनजातियाँ आर्थिक एवं सामाजिक रूप से काफी अविकसित हैं।

अनुसूचित जनजाति की प्रमुख समस्याएँ

(1) भूमि से अलग होना-जनजातियों की मुख्य समस्या भूमि से अलग होना है। जनजातियाँ आज भी सभ्य समाज से दूर जंगलों और पर्वतों में अधिक निवास करती हैं। जनजातियों की प्रमुख समस्या भूमि से अलग हो जाने की रही है। प्रशासनिक अधिकारी, वन विभाग के ठेकेदार, इत्यादि के प्रवेश से उनका शोषण प्रारम्भ हुआ है।

(2) अशिक्षा-जनजाति की दूसरी समस्या अशिक्षा है, जनजाति के लोग शिक्षा में काफी पिछड़े हुए हैं। यह लोग अपने बच्चों को स्कूल भेजने की बजाए खेतों में काम करवाना अधिक पसंद करते हैं।

(3) बंधक मजदूर-ऋणग्रस्तता, अज्ञानता आदि कारणों से यह लोग बंधक मजदूर बन जाते हैं। इनमें केवल एक व्यक्ति ही नहीं होता, बल्कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी बंधक के रूप में कार्य करते हैं।

(4) बेरोजगारी-जनजातियों की आजीविका के परम्परागत स्रोत सीमित हैं। जिससे इनमें बेरोजगारी की समस्या बनी रहती है। यह लोग शिक्षित बहुत ही कम होते हैं, इसलिए इन लोगों को कोई अच्छा काम भी नहीं मिल पाता है।

(5) निर्धनता-जनजातीय समुदाय में निर्धनता की स्थिति उनके अस्तित्व के लिए संकट पैदा करती है। इनकी आजीविका का मुख्य साधन कंद-मूल, शिकार, जलाने को लकड़ियाँ तथा छोटी-मोटी झोंपड़ियों तक ही सीमित है। आर्थिक रूप से यह लोग काफी पिछड़े हुए हैं।

(6) ऋणग्रस्तता – जनजाति की ऋणग्रस्तता की समस्या काफी गम्भीर समस्या रही है। जनजातियाँ अपनी उपभोग की सीमित आवश्यकताओं के साथ प्रकृति पर ही निर्भर रहते हुए सरल जीवन जीते थे, लेकिन बाहरी समाज या सभ्य समाज के सम्पर्क में आने से इनकी सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिस्थिति में बदलाव होने लगे हैं। इन लोगों की जीवन भर की कमाई खाने-पीने में ही निकल जाती है और ये जनजातियाँ ऋणी हो जाती हैं।

(7) नशे की लत-जनजातियों में शराब, बीड़ी, तम्बाकू आदि का चलन बहुतायत में पाया जाता है। इनका नशा करना इनकी आदत बन चुकी है। इन लोगों में परम्परागत रूप से देशी शराब को प्रसाद के रूप में ग्रहण करने की परम्परा है। आदिवासियों में पुरुष ही नहीं, बल्कि महिलाएँ भी शराब का सेवन करती हैं।

(8) प्राकृतिक आपदाएँ-प्राकृतिक आपदाएँ भी जनजातियों की समस्याएँ रही है। प्राकृतिक आपदाओं के कारण स्थायी या अस्थायी रूप से इन्हें अपने मूल स्थान से दूर जाने के लिए विवश कर देती हैं।

प्रश्न 8. परिवार से आप क्या समझते हैं एवं परिवार के प्रकारों का उल्लेख कीजिए

उत्तर भारतीय समाज की आधारशिला परिवार है। यह एक सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण समूह है, सर्वव्यापी संस्था है। परिवार जिसमें माता-पिता व बच्चे होते हैं। परिवार का निर्माण विवाह संस्था के द्वारा होता है। एक परिवार में रक्त सम्बन्धों का पाया जाना अति आवश्यक है। इसके अभाव में परिवार का गठन होना भी सम्भव नहीं है। परिवार का गठन मूलतः तीन सम्बन्धों पर निर्भर है

(1) पति-पत्नी के सम्बन्ध, (2) माता-पिता एवं बच्चों के सम्बन्ध, (3) भाई-बहनों के सम्बन्ध इन तीन सम्बन्धों में प्रथम प्रकार का सम्बन्ध वैवाहिक सम्बन्ध है, जबकि दूसरे और तीसरे प्रकार का सम्बन्ध रक्त सम्बन्ध होता है।

परिवार के प्रकार (1) संख्या के आधार पर परिवार को उनकी सदस्य संख्या के आधार पर तीन प्रकारों में बाँटा जा सकता है-(i) केन्द्रीय या नाभिक परिवार- इसमें एक पुरुष, एक स्त्री

और उनके आश्रित बच्चे रहते हैं। (ii) संयुक्त परिवार में तीन या तीन से अधिक पीढ़ियों के सदस्य एक साथ एक ही घर में निवास करते हैं। (iii) विस्तृत परिवार जिसमें परिवार के सभी रक्त सम्बन्धी और कुछ अन्य सम्बन्धी भी सम्मिलित रहते हैं। इसमें मातृ और पितृ पक्ष दोनों के सदस्य रहते हैं।

(2) निवास के आधार पर निवास के आधार पर परिवार को चार प्रकारों में बाँटा गया है

(i) पितृस्थानिक परिवार जिसमें विवाह के बाद पत्नी अपने पति के माता-पिता के साथ रहती है।

(ii) मातृस्थानिक परिवार-जिसमें विवाह के बाद पति अपनी पत्नी के साथ एवं पत्नी के माता-पिता के साथ रहता है।

(iii) नवस्थानीय परिवार इस परिवार में पति-पत्नी एक अलग जगह पर घर बनाकर रहते हैं।

(iv) द्विस्थानीय परिवार- इसमें विवाह के बाद पति-पत्नी अपने जन्म के परिवारों में रहते हैं। पति रात्रि में अपनी पत्नी के घर जाता है, लेकिन दिन में वह अपने जन्म के परिवार में रहता है।

(3) अधिकार के आधार पर अधिकार के आधार पर परिवार में माता-पिता में से जिसकी सत्ता चलती है. परिवार को दो प्रकारों-पितृ और मातृसत्तात्मक में बाँटा गया है। (i) पितृसत्तात्मक वह परिवार है, जिसमें सत्ता और अधिकार पिता और पुरुषों के हाथ में रहता है एवं (ii) मातृसत्तात्मक वह परिवार है जिसमें स्त्री के पास अधिकार, सत्ता और नियन्त्रण रहता है।

(4) वंश के आधार पर इसमें परिवार को मातृवंशीय और पितृवंशीय में बाँटा गया है। इसमें जब परिवारों में वंश परम्परा माँ के नाम से चलती है, तो मातृवंशीय परिवार कहलाता है। जब परिवारों में वंश परम्परा पिता के नाम से चलती है और पुत्रों को पिता का ही वंशनाम प्राप्त होता है।

(5) विवाह के आधार पर विवाह के आधार पर भी परिवार को एकविवाही और बहुविवाही परिवार में बाँटा गया है। एकविवाही परिवार जिसमें एक पुरुष व एक स्त्री के सम्मिलन से बनता है और बहुविवाही परिवार में एक समय में एक से अधिक जीवन साथी स्वीकृत होते हैं।

प्रश्न 9. नातेदारी से क्या अभिप्राय है? सामाजिक संरचना में नातेदारी की भूमिका का वर्णन कीजिए।

उत्तर- नातेदारी से अभिप्राय ऐसे व्यक्तियों के परस्पर सम्बन्धों की व्यवस्था से है, जो प्रजनन एवं वास्तविक वंशावली के आधार पर परस्पर सम्बन्धित हैं, अर्थात् विवाह या रक्त सम्बन्धों के आधार पर जुड़े हुए व्यक्ति (नातेदार) नातेदारी व्यवस्था का निर्माण करते हैं। जैविक दृष्टि से ‘नातेदारी’ शब्द का अभिप्राय आनुवंशिकता द्वारा बँधे सम्बन्धियों से है। सामाजिक संरचना में नातेदारी व्यवस्था की भूमिका- भारतीय समाज में नातेदारी व्यवस्था की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। इसके सामाजिक व्यवस्था में योगदान का विवरण अग्र प्रकार है

(1) सामाजिक व्यवहार के नियमों का निर्धारण-नातेदारी व्यवस्था व्यक्ति के उन समूहों को बताती है, जिनके बीच अपने जीवन का महत्त्वपूर्ण हिस्सा व्यतीत होता है। सामाजिक जीवन के तीन ऐसे विशिष्ट अवसर हैं जिन पर ऐसे व्यवहार प्रतिमान विशेष रूप से क्रियाशील होते हैं

(1) जीवन चक्र सम्बन्धी संस्कार, जैसे-जन्म, विद्यारम्भ, विवाह, व्यापार आरम्भ, मृत्यु आदि। (ii) दाग या उत्तराधिकार का निर्धारण करते समय, (iii) खेती या व्यापार में विशेष अवसरों पर

(2) सामाजिक व्यवहार का नियमन-व्यक्ति के आचरण पर नियन्त्रण रखने में नातेदारी समूह की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। एक विशिष्ट अवसर पर विशिष्ट नातेदार की भूमिका अन्य नातेदार बड़े ध्यान से देखते और उसकी प्रशंसा व आलोचना करते हैं। इसलिए व्यक्ति उचित व्यवहार करने के लिए स्वयं को बाध्य करता है।

(3) सामाजिक-सांस्कृतिक निरन्तरता बनाए रखना-नातेदारी व्यवस्था से जुड़े व्यक्ति एक दूसरे के नजदीक अनुभव करते हैं। इसलिए वे इस बात का ध्यान रखते हैं कि समाज के व्यवहार, आदर्श और सांस्कृतिक मूल्य एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तान्तरित होते रहें।

(4) सामाजिक सहायता एवं सुरक्षा प्रदान करना नातेदारी व्यवस्था जीवन के विशेष अवसरों में सामाजिक सहायता का काम करती है, जैसे-लड़की के विवाह के समय मामा का भात देना। इससे उस समय कुछ सहायता मिल जाती है। इसी तरह जीवन के जोखिमों, बुढ़ापा, दुर्घटना, बीमारी, बेकारी के विरुद्ध नातेदारी व्यवस्था सुरक्षा प्रदान करती है।

(5) व्यक्ति की अलगाव की भावना से सुरक्षा-व्यक्ति की सुरक्षा में नातेदारी व्यवस्था सक्रिय भूमिका निभाती है। इस तरह व्यक्ति के मन में एकाकीपन या अलगाव की भावना उत्पन्न नहीं होने देती। यह व्यवस्था उसे शक्ति का अहसास दिलाती है। वह अपने स्वजनों व नातेदारों पर गर्व का अनुभव करता है, क्योंकि नातेदारी की सामाजिक प्रतिष्ठा उम्र व्यक्ति की प्रतिष्ठा पर भी आधारित होती है।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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